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== वर्तमान की वास्तविकता ==
 
== वर्तमान की वास्तविकता ==
 
स्त्री और पुरुष संबन्धों के विषय में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य समझे बिना वर्तमान में स्त्री की दुर्दशा का समाधान नहीं निकल सकता। ये तथ्य निम्न हैं:
 
स्त्री और पुरुष संबन्धों के विषय में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य समझे बिना वर्तमान में स्त्री की दुर्दशा का समाधान नहीं निकल सकता। ये तथ्य निम्न हैं:
# धार्मिक (धार्मिक) मान्यता के अनुसार स्त्री और पुरुष दोनों को परमात्मा ने साथ में निर्माण किया है। दोनों में स्पर्धा नहीं है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। पूरक का अर्थ है एक दूसरे के अभाव में अधूरे होना। जब अधूरापन अनुभव होता है तो मनुष्य उसकी पूर्ति करने के प्रयास करता है। स्त्री और पुरुष में जो स्वाभाविक आकर्षण है वह इसी अधूरेपन को पूरा करने के लिए होता है। इसलिए स्त्री और पुरुष दोनों परस्पर पूरक हैं। इनमें दोनों अलग अलग सन्दर्भ में एक दूसरे से श्रेष्ठ हैं।
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# धार्मिक (धार्मिक) मान्यता के अनुसार स्त्री और पुरुष दोनों को परमात्मा ने साथ में निर्माण किया है। दोनों में स्पर्धा नहीं है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। पूरक का अर्थ है एक दूसरे के अभाव में अधूरे होना। जब अधूरापन अनुभव होता है तो मनुष्य उसकी पूर्ति करने के प्रयास करता है। स्त्री और पुरुष में जो स्वाभाविक आकर्षण है वह इसी अधूरेपन को पूरा करने के लिए होता है। अतः स्त्री और पुरुष दोनों परस्पर पूरक हैं। इनमें दोनों अलग अलग सन्दर्भ में एक दूसरे से श्रेष्ठ हैं।
 
# सामान्यत: स्त्री शारीरिक दृष्टि से पुरुष से दुर्बल है। अपवाद हो सकते हैं। अपवादों से ही नियम सिद्ध होते हैं।
 
# सामान्यत: स्त्री शारीरिक दृष्टि से पुरुष से दुर्बल है। अपवाद हो सकते हैं। अपवादों से ही नियम सिद्ध होते हैं।
# नर और मादा तो सभी जीवों में होते ही है। उनमें आकर्षण भी स्वाभाविक ही है। मानवेतर किसी भी जीव-जाति के नर द्वारा उस जीव-जाति की मादा पर बलात्कार संभव नहीं है। उनकी शारीरिक रचना ही ऐसी बनी हुई है। शरीर रचना के अंतर के कारण केवल मानव जाति में नारी के ऊपर नर बलात्कार कर सकता है। इसलिए मानव जाति को सुखी, सौहार्दपूर्ण, सुसंस्कृत सहजीवन जीने के लिए संस्कारों की और शिक्षण प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। इसी हेतु से विवाह होते हैं। परिवारों की रचना स्त्री की सुरक्षा के लिए भी होती है। पिता, भाई और पति ये तीनों ही पारिवारिक रिश्ते ही तो हैं जिनसे स्त्री की रक्षा की अपेक्षा होती है। इसी दृष्टि से विद्यालयीन और लोक शिक्षा की व्यवस्था में भी मार्गदर्शन होना चाहिए।
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# नर और मादा तो सभी जीवों में होते ही है। उनमें आकर्षण भी स्वाभाविक ही है। मानवेतर किसी भी जीव-जाति के नर द्वारा उस जीव-जाति की मादा पर बलात्कार संभव नहीं है। उनकी शारीरिक रचना ही ऐसी बनी हुई है। शरीर रचना के अंतर के कारण केवल मानव जाति में नारी के ऊपर नर बलात्कार कर सकता है। अतः मानव जाति को सुखी, सौहार्दपूर्ण, सुसंस्कृत सहजीवन जीने के लिए संस्कारों की और शिक्षण प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। इसी हेतु से विवाह होते हैं। परिवारों की रचना स्त्री की सुरक्षा के लिए भी होती है। पिता, भाई और पति ये तीनों ही पारिवारिक रिश्ते ही तो हैं जिनसे स्त्री की रक्षा की अपेक्षा होती है। इसी दृष्टि से विद्यालयीन और लोक शिक्षा की व्यवस्था में भी मार्गदर्शन होना चाहिए।
 
# बच्चे को जन्म देने का काम स्त्री और पुरुष दोनों करते हैं। लेकिन नवजात शिशू के साथ पुरुष और स्त्री के संबंधों में स्वाभाविक भिन्नता होती है। नवजात शिशू को स्त्री अपनी कोख में ९ महीने पालती है। गर्भस्थ बच्चे की रक्षा के लिए जागरुक रहती है। हर संभव प्रयास से उसे सुरक्षा देती है। बच्चा भी ९ महीने माता के उदर में रहता है। माता की साँस के माध्यम से साँस लेता है। माता के अन्न खाने से पोषित होता है। माता की भाव भावनाओं से प्रभावित होता है। इन ९ महीनों में पुरुष की या पिता की भूमिका दुय्यम और माता की भूमिका अहम् होती है।
 
# बच्चे को जन्म देने का काम स्त्री और पुरुष दोनों करते हैं। लेकिन नवजात शिशू के साथ पुरुष और स्त्री के संबंधों में स्वाभाविक भिन्नता होती है। नवजात शिशू को स्त्री अपनी कोख में ९ महीने पालती है। गर्भस्थ बच्चे की रक्षा के लिए जागरुक रहती है। हर संभव प्रयास से उसे सुरक्षा देती है। बच्चा भी ९ महीने माता के उदर में रहता है। माता की साँस के माध्यम से साँस लेता है। माता के अन्न खाने से पोषित होता है। माता की भाव भावनाओं से प्रभावित होता है। इन ९ महीनों में पुरुष की या पिता की भूमिका दुय्यम और माता की भूमिका अहम् होती है।
# यह सामान्य ज्ञान की बात है कि जिसका अन्न खाओगे उसकी चाकरी करोगे। यह सामान्य नियम है। बच्चे को भी लागु होता है। माता के दूध पिलाए बिना वह जी नहीं सकता। माता ही उसका जीवन है। इतना तो वह बच्चा भी समझता है। यह प्रकृति-प्रदत्त ऐसी स्थिति है। इसलिए माता का प्रभाव बच्चे पर अन्य किसी यानि पिता से भी अधिक होगा यह स्वाभाविक है। शिशु से पिता की पहचान भी तो माता ही कराती है।
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# यह सामान्य ज्ञान की बात है कि जिसका अन्न खाओगे उसकी चाकरी करोगे। यह सामान्य नियम है। बच्चे को भी लागु होता है। माता के दूध पिलाए बिना वह जी नहीं सकता। माता ही उसका जीवन है। इतना तो वह बच्चा भी समझता है। यह प्रकृति-प्रदत्त ऐसी स्थिति है। अतः माता का प्रभाव बच्चे पर अन्य किसी यानि पिता से भी अधिक होगा यह स्वाभाविक है। शिशु से पिता की पहचान भी तो माता ही कराती है।
# विवाह के समय पुरुष की आयु स्त्री से अधिक रखने के कई कारण हैं। स्त्री यानि लड़की आयु की अवस्था की दृष्टि से यौन संबंधों के सन्दर्भ में जल्दी सज्ञान बनती है। सामान्यत: ११ से १४ वर्ष की आयु में लड़कियाँ यौन आकर्षण का अनुभव करने लग जाती हैं। संपर्क में आनेवाले हर पुरुष के प्रति आकर्षण अनुभव करने लग जाती है। उनका चिन्तन करने लग जाती हैं। पुरुष यानि लडके १४ – १६ वर्ष की आयु में सज्ञान होते हैं। इसी प्रकार से प्रसूतियों के कारण स्त्री के शरीर में जो कुछ कमी निर्माण हो जाती है उसका भी विचार किया गया है। पिछली सदी में बच्चे अधिक संख्या में पैदा होते थे। इसलिए पुरुष से स्त्री विवाह के समय ८-१० वर्ष कम आयु की हुआ करती थी। हम दो हमारे दो के काल में यह अंतर ४-५ वर्ष तक कम हो जाना स्वाभाविक ही है। इन दोनों बातों को ध्यान में रखकर विवाह के समय पुरुष और स्त्री की आयु में अंतर रखा जाता है। स्त्री कम आयु की होती है। ऐसा करने के पीछे दोनों का सहजीवन और जीवन भी लगभग साथ में समाप्त हो ऐसा विचार होता है। साथी के बिना जीवन बिताने का समय न्यूनतम हो यही विवाह के समय स्त्री और पुरुष की आयु में अंतर रखने के पीछे भूमिका होती है। तीसरा कारण आयु अधिक होने से पत्नी के रक्षण की दृष्टि से पति को अधिक अनुभव रहे इससे भी है।
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# विवाह के समय पुरुष की आयु स्त्री से अधिक रखने के कई कारण हैं। स्त्री यानि लड़की आयु की अवस्था की दृष्टि से यौन संबंधों के सन्दर्भ में जल्दी सज्ञान बनती है। सामान्यत: ११ से १४ वर्ष की आयु में लड़कियाँ यौन आकर्षण का अनुभव करने लग जाती हैं। संपर्क में आनेवाले हर पुरुष के प्रति आकर्षण अनुभव करने लग जाती है। उनका चिन्तन करने लग जाती हैं। पुरुष यानि लडके १४ – १६ वर्ष की आयु में सज्ञान होते हैं। इसी प्रकार से प्रसूतियों के कारण स्त्री के शरीर में जो कुछ कमी निर्माण हो जाती है उसका भी विचार किया गया है। पिछली सदी में बच्चे अधिक संख्या में पैदा होते थे। अतः पुरुष से स्त्री विवाह के समय ८-१० वर्ष कम आयु की हुआ करती थी। हम दो हमारे दो के काल में यह अंतर ४-५ वर्ष तक कम हो जाना स्वाभाविक ही है। इन दोनों बातों को ध्यान में रखकर विवाह के समय पुरुष और स्त्री की आयु में अंतर रखा जाता है। स्त्री कम आयु की होती है। ऐसा करने के पीछे दोनों का सहजीवन और जीवन भी लगभग साथ में समाप्त हो ऐसा विचार होता है। साथी के बिना जीवन बिताने का समय न्यूनतम हो यही विवाह के समय स्त्री और पुरुष की आयु में अंतर रखने के पीछे भूमिका होती है। तीसरा कारण आयु अधिक होने से पत्नी के रक्षण की दृष्टि से पति को अधिक अनुभव रहे इससे भी है।
# धार्मिक (धार्मिक) समाज में असंस्कृत घरों में स्त्री को जो दुय्यम स्थिति प्राप्त हुई है इसके पीछे कुछ ऐतिहासिक कारण भी हैं। पहला कारण बौद्ध कालीन है। आदि शंकराचार्य के समयतक भारत में बौद्ध मत अत्यंत प्रभावी बन गया था। राजाओं के आश्रय के कारण और मुक्त यौन संबंधों के कारण बौद्ध विहार व्यभिचार के अड्डे बन गए थे। यौन आकर्षण के कारण जवान लड़कियाँ संघों में शरण ले लेतीं थीं। एक  बार संघ में शरण ले लेने के बाद उसे वहाँ से वापस लाना लगभग असंभव होता था। इसलिए लड़कियों के माता पिता लड़की के सज्ञान होने से पहले ही अपनी बेटियों के विवाह करा देते थे। इसलिए बाल विवाह की प्रथा चल पड़ी थी। स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक (धार्मिक) समाज का इस काल में बहुत नुकसान हुआ। फिर हुए बर्बर मुस्लिम आक्रमण। ये आक्रमणकारी शत्रू की स्त्रियों पर बलात्कार, अत्याचार करना अपने मजहब के अनुसार उचित मानते थे। लड़कियों, स्त्रियों को भगाकर ले जाना, दासी बनाना, रखेली बनाना, गुलाम बनाना, बेचना ये सब बातें इनके लिए मजहबी दृष्टि से आवश्यक थीं। प्रत्यक्ष शिवाजी महाराज की चाची को मुसलमान भगा ले गए थे। उसे शिवाजी के पिता शाहजी जैसा उस समय का एक जबरदस्त कद्दावर सेनापति भी वापस नहीं ला सका था। ऐसी परिस्थिति में स्त्री का घर से बाहर निकलना ही बंद हो गया। इसके परिणामस्वरूप भी स्त्री शिक्षा की अपार हानि हुई। अन्यथा शंकराचार्य के काल तक तो मंडन मिश्र की पत्नी भारती जैसी विदुषियों की भारत में उपलब्धता थी।
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# धार्मिक (धार्मिक) समाज में असंस्कृत घरों में स्त्री को जो दुय्यम स्थिति प्राप्त हुई है इसके पीछे कुछ ऐतिहासिक कारण भी हैं। पहला कारण बौद्ध कालीन है। आदि शंकराचार्य के समयतक भारत में बौद्ध मत अत्यंत प्रभावी बन गया था। राजाओं के आश्रय के कारण और मुक्त यौन संबंधों के कारण बौद्ध विहार व्यभिचार के अड्डे बन गए थे। यौन आकर्षण के कारण जवान लड़कियाँ संघों में शरण ले लेतीं थीं। एक  बार संघ में शरण ले लेने के बाद उसे वहाँ से वापस लाना लगभग असंभव होता था। अतः लड़कियों के माता पिता लड़की के सज्ञान होने से पहले ही अपनी बेटियों के विवाह करा देते थे। अतः बाल विवाह की प्रथा चल पड़ी थी। स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक (धार्मिक) समाज का इस काल में बहुत नुकसान हुआ। फिर हुए बर्बर मुस्लिम आक्रमण। ये आक्रमणकारी शत्रू की स्त्रियों पर बलात्कार, अत्याचार करना अपने मजहब के अनुसार उचित मानते थे। लड़कियों, स्त्रियों को भगाकर ले जाना, दासी बनाना, रखेली बनाना, गुलाम बनाना, बेचना ये सब बातें इनके लिए मजहबी दृष्टि से आवश्यक थीं। प्रत्यक्ष शिवाजी महाराज की चाची को मुसलमान भगा ले गए थे। उसे शिवाजी के पिता शाहजी जैसा उस समय का एक जबरदस्त कद्दावर सेनापति भी वापस नहीं ला सका था। ऐसी परिस्थिति में स्त्री का घर से बाहर निकलना ही बंद हो गया। इसके परिणामस्वरूप भी स्त्री शिक्षा की अपार हानि हुई। अन्यथा शंकराचार्य के काल तक तो मंडन मिश्र की पत्नी भारती जैसी विदुषियों की भारत में उपलब्धता थी।
 
# अब स्त्रियों को शिक्षा के द्वार खुल गए हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि मिलने वाली शिक्षा विपरीत शिक्षा है। गुलामी की शिक्षा है। स्त्री को परायों के पास जाने को बाध्य करनेवाली और उनको नौकर बनानेवाली शिक्षा है। असंस्कृत समाज निर्माण करनेवाली शिक्षा है। स्त्री को बरगलाने वाली शिक्षा है। संस्कारों का काम सरकार डंडे की सहायता से करे ऐसी अपेक्षा समाज में निर्माण करनेवाली शिक्षा है। स्त्री-मुक्ति के नाम पर स्त्री का शोषण करने के लिये स्त्री को भोग वस्तु बनानेवाली शिक्षा है। स्त्री को अरक्षित करनेवाले अर्थशास्त्र को सिखाने वाली शिक्षा है। पारिवारिक सुरक्षा कवच को तोड़ने की स्त्री को प्रेरणा देनेवाली शिक्षा है। केवल स्त्री ही नहीं तो पुरुषों को भी कर्तव्यों के स्थानपर अधिकारों के लिए झगडा करने को प्रेरित करने वाली शिक्षा है। अपनी सुरक्षा, अपना स्वार्थ किस में है इसका विवेक नष्ट करनेवाली शिक्षा है।
 
# अब स्त्रियों को शिक्षा के द्वार खुल गए हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि मिलने वाली शिक्षा विपरीत शिक्षा है। गुलामी की शिक्षा है। स्त्री को परायों के पास जाने को बाध्य करनेवाली और उनको नौकर बनानेवाली शिक्षा है। असंस्कृत समाज निर्माण करनेवाली शिक्षा है। स्त्री को बरगलाने वाली शिक्षा है। संस्कारों का काम सरकार डंडे की सहायता से करे ऐसी अपेक्षा समाज में निर्माण करनेवाली शिक्षा है। स्त्री-मुक्ति के नाम पर स्त्री का शोषण करने के लिये स्त्री को भोग वस्तु बनानेवाली शिक्षा है। स्त्री को अरक्षित करनेवाले अर्थशास्त्र को सिखाने वाली शिक्षा है। पारिवारिक सुरक्षा कवच को तोड़ने की स्त्री को प्रेरणा देनेवाली शिक्षा है। केवल स्त्री ही नहीं तो पुरुषों को भी कर्तव्यों के स्थानपर अधिकारों के लिए झगडा करने को प्रेरित करने वाली शिक्षा है। अपनी सुरक्षा, अपना स्वार्थ किस में है इसका विवेक नष्ट करनेवाली शिक्षा है।
 
# स्वामी विवेकानंद कहते थे कि उनकी माता और पिता ने अच्छे बच्चे की प्राप्ति के लिए बहुत तप किया था। उनके काल में कई घरों में माता पिता श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति के लिए ऐसा तप करते थे। अब हालत यह है कि सामान्यत: बच्चे अपघात से पैदा हो रहे हैं। माता पिता का परिवार नियोजन चल रहा होता है। बच्चे की कोई चाहत होती नहीं है। लेकिन प्रकृति काम करती रहती है। किसी असावधानी के क्षण के कारण गर्भ ठहर जाता है। ऐसे माता पिताओं से और उनके द्वारा अपघात से पैदा हुए बच्चों से संस्कारों की अपेक्षा करना व्यर्थ है।
 
# स्वामी विवेकानंद कहते थे कि उनकी माता और पिता ने अच्छे बच्चे की प्राप्ति के लिए बहुत तप किया था। उनके काल में कई घरों में माता पिता श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति के लिए ऐसा तप करते थे। अब हालत यह है कि सामान्यत: बच्चे अपघात से पैदा हो रहे हैं। माता पिता का परिवार नियोजन चल रहा होता है। बच्चे की कोई चाहत होती नहीं है। लेकिन प्रकृति काम करती रहती है। किसी असावधानी के क्षण के कारण गर्भ ठहर जाता है। ऐसे माता पिताओं से और उनके द्वारा अपघात से पैदा हुए बच्चों से संस्कारों की अपेक्षा करना व्यर्थ है।
 
# सामाजिक दृष्टि से सम्मान की बात आती है तब भी माता का क्रम सबसे पहले आता है। तैत्तिरीय उपनिषद् में जो समावर्तन संस्कार के समय दिया जानेवाला उपदेश और आदेश है उसमें कहा गया है: मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव , माता का स्थान पिता से और गुरु से भी ऊपर का माना गया है।   
 
# सामाजिक दृष्टि से सम्मान की बात आती है तब भी माता का क्रम सबसे पहले आता है। तैत्तिरीय उपनिषद् में जो समावर्तन संस्कार के समय दिया जानेवाला उपदेश और आदेश है उसमें कहा गया है: मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव , माता का स्थान पिता से और गुरु से भी ऊपर का माना गया है।   
 
# प्राचीन धार्मिक (धार्मिक) आख्यायिका के अनुसार मूलत: विवाह का चलन ही स्त्री की सुरक्षा के लिए आरम्भ हुआ था। एक तेजस्वी बालक था। नाम था श्वेतकेतु। उस की माता का विरोध होते हुए भी कुछ बलवान पुरुष उसकी माता का विनय भंग करने लगे। पुत्र से यह देखा नहीं गया। लेकिन वह छोटा था। दुर्बल था। इस स्थिति को बदलने का उसने प्रण किया। उसने सार्वत्रिक जागृति कर विवाह की प्रथा को जन्म दिया। स्त्रियों को यानि समाज के ५० % घटकों को इससे सुरक्षा प्राप्त होने के कारण, सुविधा होने के कारण विवाह संस्था सर्वमान्य हो गई। अभी तक इससे श्रेष्ठ अन्य व्यवस्था कोई निर्माण नहीं कर पाया है।  
 
# प्राचीन धार्मिक (धार्मिक) आख्यायिका के अनुसार मूलत: विवाह का चलन ही स्त्री की सुरक्षा के लिए आरम्भ हुआ था। एक तेजस्वी बालक था। नाम था श्वेतकेतु। उस की माता का विरोध होते हुए भी कुछ बलवान पुरुष उसकी माता का विनय भंग करने लगे। पुत्र से यह देखा नहीं गया। लेकिन वह छोटा था। दुर्बल था। इस स्थिति को बदलने का उसने प्रण किया। उसने सार्वत्रिक जागृति कर विवाह की प्रथा को जन्म दिया। स्त्रियों को यानि समाज के ५० % घटकों को इससे सुरक्षा प्राप्त होने के कारण, सुविधा होने के कारण विवाह संस्था सर्वमान्य हो गई। अभी तक इससे श्रेष्ठ अन्य व्यवस्था कोई निर्माण नहीं कर पाया है।  
# समाज में धर्म का अनुपालन करनेवाले लोगों की संख्या ९०-९५ % तक लाने का काम शिक्षा का है। बचे हुए  ५-१० % लोगों के लिए ही शासन व्यवस्था होती है। जब तक शिक्षा अक्षम होती है अर्थात् शिक्षा समाज में धर्म का पालन करने वाले लोगों की संख्या को ९०-९५ % तक नहीं ले जाती, शासन ठीक से काम नहीं कर सकता। इसलिए वर्तमान परिस्थितियों का अचूक आकलन और पूर्वजों का मार्गदर्शन इन दोनों के प्रकाश में हमें वर्तमान की स्त्रियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की समस्या का हल निकालना होगा।
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# समाज में धर्म का अनुपालन करनेवाले लोगों की संख्या ९०-९५ % तक लाने का काम शिक्षा का है। बचे हुए  ५-१० % लोगों के लिए ही शासन व्यवस्था होती है। जब तक शिक्षा अक्षम होती है अर्थात् शिक्षा समाज में धर्म का पालन करने वाले लोगों की संख्या को ९०-९५ % तक नहीं ले जाती, शासन ठीक से काम नहीं कर सकता। अतः वर्तमान परिस्थितियों का अचूक आकलन और पूर्वजों का मार्गदर्शन इन दोनों के प्रकाश में हमें वर्तमान की स्त्रियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की समस्या का हल निकालना होगा।
    
== समस्या के मूल ==
 
== समस्या के मूल ==
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श्रेष्ठ मानव निर्माण के लिए दो बातें आवश्यक होतीं हैं। पहली बात है बीज का शुद्ध होना। दूसरी बात है संस्कार और शिक्षा। बीज में खोट होने से संस्कार और शिक्षा कितने भी श्रेष्ठ हों मायने नहीं रखते। संस्कार और शिक्षा भी उतने ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। बीज को बंजर जमींन में फ़ेंक देने से कितना भी श्रेष्ठ बीज हो वह नष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह है कि श्रेष्ठ बीज को जन्म देने का ५० % और श्रेष्ठ संस्कार देने का २५ % काम भी परिवार में ही होता है। शिक्षा की जिम्मेदारी तो बचे हुए महज २५ % की होती है। इसका अर्थ है कि श्रेष्ठ मानव निर्माण की मुख्य जिम्मेदारी परिवार की यानि माता और पिता की होती है।  
 
श्रेष्ठ मानव निर्माण के लिए दो बातें आवश्यक होतीं हैं। पहली बात है बीज का शुद्ध होना। दूसरी बात है संस्कार और शिक्षा। बीज में खोट होने से संस्कार और शिक्षा कितने भी श्रेष्ठ हों मायने नहीं रखते। संस्कार और शिक्षा भी उतने ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। बीज को बंजर जमींन में फ़ेंक देने से कितना भी श्रेष्ठ बीज हो वह नष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह है कि श्रेष्ठ बीज को जन्म देने का ५० % और श्रेष्ठ संस्कार देने का २५ % काम भी परिवार में ही होता है। शिक्षा की जिम्मेदारी तो बचे हुए महज २५ % की होती है। इसका अर्थ है कि श्रेष्ठ मानव निर्माण की मुख्य जिम्मेदारी परिवार की यानि माता और पिता की होती है।  
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धार्मिक (धार्मिक) शैक्षिक चिंतन के अनुसार कहा गया है – माता प्रथमो गुरु: पिता द्वितीयो। अर्थ है श्रेष्ठ मानव निर्माण की जिम्मेदारी माता और पिता की साझी होती है। लेकिन उन में भी माता की जिम्मेदारी प्राथमिक और अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। बच्चे पर किये जाने वाले या होने वाले गर्भपूर्व और गर्भसंस्कार मुख्यत: माता के माध्यम से और माता चाहे तो ही होते हैं। इनमें पिता की भूमिका तो दुय्यम ही हो सकती है। सहयोगी की ही हो सकती है। ऐसी परिस्थिति में बच्चा यदि बिगड़ता है तो जिम्मेदारी पिता की तो है ही लेकिन यह जिम्मेदारी प्राथमिकता से माता की ही होगी। इसलिए इसे सुधारने के लिए किसी एक बिंदु से नहीं तो सभी बिन्दुओं को लेकर एक साथ पहल करने की आवश्यकता है। लेकिन स्त्री की सुरक्षा की दृष्टि से इन सभी बिन्दुओं में सुधार होने तक नहीं रुका जा सकता। जीवन का पूरा प्रतिमान, लोकतंत्र, विपरीत शिक्षा, परिवारों का सुदृढीकरण आदि सभी में पूरे समाज की यानि स्त्री और पुरुष दोनों की पहल और सहयोग आवश्यक है। जब कि माता प्रथमो गुरु: में केवल स्त्री की पहल और सक्रियता की आवश्यकता है।  
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धार्मिक (धार्मिक) शैक्षिक चिंतन के अनुसार कहा गया है – माता प्रथमो गुरु: पिता द्वितीयो। अर्थ है श्रेष्ठ मानव निर्माण की जिम्मेदारी माता और पिता की साझी होती है। लेकिन उन में भी माता की जिम्मेदारी प्राथमिक और अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। बच्चे पर किये जाने वाले या होने वाले गर्भपूर्व और गर्भसंस्कार मुख्यत: माता के माध्यम से और माता चाहे तो ही होते हैं। इनमें पिता की भूमिका तो दुय्यम ही हो सकती है। सहयोगी की ही हो सकती है। ऐसी परिस्थिति में बच्चा यदि बिगड़ता है तो जिम्मेदारी पिता की तो है ही लेकिन यह जिम्मेदारी प्राथमिकता से माता की ही होगी। अतः इसे सुधारने के लिए किसी एक बिंदु से नहीं तो सभी बिन्दुओं को लेकर एक साथ पहल करने की आवश्यकता है। लेकिन स्त्री की सुरक्षा की दृष्टि से इन सभी बिन्दुओं में सुधार होने तक नहीं रुका जा सकता। जीवन का पूरा प्रतिमान, लोकतंत्र, विपरीत शिक्षा, परिवारों का सुदृढीकरण आदि सभी में पूरे समाज की यानि स्त्री और पुरुष दोनों की पहल और सहयोग आवश्यक है। जब कि माता प्रथमो गुरु: में केवल स्त्री की पहल और सक्रियता की आवश्यकता है।  
    
== माता प्रथमो गुरु: पिता द्वितीयो ==
 
== माता प्रथमो गुरु: पिता द्वितीयो ==
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## ब्रह्मचर्य का पालन करना। अर्थात् मनपर संयम रखना। पति के रूप में पुरुष का चिन्तन नहीं करना। यह बहुत कठिन है  लेकिन करना तो आवश्यक ही है। शायद इसीलिए बाल विवाह की प्रथा चली होगी? इससे मन श्रेष्ठ बनता है।
 
## ब्रह्मचर्य का पालन करना। अर्थात् मनपर संयम रखना। पति के रूप में पुरुष का चिन्तन नहीं करना। यह बहुत कठिन है  लेकिन करना तो आवश्यक ही है। शायद इसीलिए बाल विवाह की प्रथा चली होगी? इससे मन श्रेष्ठ बनता है।
 
## अपनी आहार विहार और व्यायाम की आदतों को श्रेष्ठ रखना। स्वास्थ्य अच्छा रहे यह सुनिश्चित करना।
 
## अपनी आहार विहार और व्यायाम की आदतों को श्रेष्ठ रखना। स्वास्थ्य अच्छा रहे यह सुनिश्चित करना।
## आजकल स्त्रियों को भी नौकरी करने का शौक हो गया है। विपरीत शिक्षा के कारण अन्य किसी कौशल के ह्स्तगत नहीं होने से मजबूरी में पति नौकरी करे यह समझ में आता है। स्त्री को भी मजबूरी में नौकरी करनी पड़े यह भी समझ में आता है। किन्तु अच्छे कमाऊ पति के होते हुए भी पत्नी नौकरी करना ‘स्वाभिमान’ का लक्षण मानती है, यह बात समझ से बाहर है। विशेषत: माता यदि नौकर है तो बच्चे मालिक की मानसिकता के कैसे बनेंगे? माता कुमाता नहीं होती। ऐसी कहावत थी। लेकिन नौकर माँ क्या कुमाता नहीं होगी? नौकरों को जन्म देनेवाली नहीं होगी। इसलिए जिन्हें श्रेष्ठ माता बनना है उन्हें यथा संभव नौकर नहीं बनना चाहिए।
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## आजकल स्त्रियों को भी नौकरी करने का शौक हो गया है। विपरीत शिक्षा के कारण अन्य किसी कौशल के ह्स्तगत नहीं होने से मजबूरी में पति नौकरी करे यह समझ में आता है। स्त्री को भी मजबूरी में नौकरी करनी पड़े यह भी समझ में आता है। किन्तु अच्छे कमाऊ पति के होते हुए भी पत्नी नौकरी करना ‘स्वाभिमान’ का लक्षण मानती है, यह बात समझ से बाहर है। विशेषत: माता यदि नौकर है तो बच्चे मालिक की मानसिकता के कैसे बनेंगे? माता कुमाता नहीं होती। ऐसी कहावत थी। लेकिन नौकर माँ क्या कुमाता नहीं होगी? नौकरों को जन्म देनेवाली नहीं होगी। अतः जिन्हें श्रेष्ठ माता बनना है उन्हें यथा संभव नौकर नहीं बनना चाहिए।
 
# गर्भधारणा के लिए
 
# गर्भधारणा के लिए
 
## केवल अपने पति का ही चिन्तन मन में रहे। पति भी पत्नी के प्रति निष्ठावान रहे।
 
## केवल अपने पति का ही चिन्तन मन में रहे। पति भी पत्नी के प्रति निष्ठावान रहे।
 
## कैसे गुण लक्षणों की संतान की अपेक्षा है यह पति के साथ तय करना।
 
## कैसे गुण लक्षणों की संतान की अपेक्षा है यह पति के साथ तय करना।
 
## योग्य वैद्यों तथा ज्योतिषाचार्यों की सलाह लेना। गर्भधारणा का समय तय करना। असावधानी के कारण अपघात से गलत समय पर गर्भधारणा न हो इसे ध्यान में रखना।
 
## योग्य वैद्यों तथा ज्योतिषाचार्यों की सलाह लेना। गर्भधारणा का समय तय करना। असावधानी के कारण अपघात से गलत समय पर गर्भधारणा न हो इसे ध्यान में रखना।
## गर्भधारणा से पहले कुछ मास तक पति और पत्नी दोनों ने कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करना। ऐसा करने से माता का और पिता का दोनों का ओज बढ़ता है। पत्नी जब नौकरी नहीं करती उसे अन्य पुरुषों का सहवास नहीं मिलता। ऐसी स्त्रियों को ब्रह्मचर्य पालन कम कठिन होता है। समय का सार्थक उपयोग करने के लिए घर में अकेली माँ को निश्चय की आवश्यकता होती है। समय का सार्थक उपयोग करने के लिए संयुक्त परिवार में कई अच्छे अच्छे तरीके होते हैं। जैसे भजन मण्डली, कथाकथन, घर के काम, सिलाई, बुनाई आदि। इसलिए संयुक्त परिवारों में तो ब्रह्मचर्य पालन और भी कम कठिन होता है।
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## गर्भधारणा से पहले कुछ मास तक पति और पत्नी दोनों ने कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करना। ऐसा करने से माता का और पिता का दोनों का ओज बढ़ता है। पत्नी जब नौकरी नहीं करती उसे अन्य पुरुषों का सहवास नहीं मिलता। ऐसी स्त्रियों को ब्रह्मचर्य पालन कम कठिन होता है। समय का सार्थक उपयोग करने के लिए घर में अकेली माँ को निश्चय की आवश्यकता होती है। समय का सार्थक उपयोग करने के लिए संयुक्त परिवार में कई अच्छे अच्छे तरीके होते हैं। जैसे भजन मण्डली, कथाकथन, घर के काम, सिलाई, बुनाई आदि। अतः संयुक्त परिवारों में तो ब्रह्मचर्य पालन और भी कम कठिन होता है।
 
## जिन गुण लक्षणों वाली संतान की इच्छा है उस के गुण लक्षणों के अनुरूप और अनुकूल अपना व्यवहार रखना। उन गुण और लक्षणों का निरंतर चिंतन करना। उन गुण लक्षणों वाले महापुरुषों की कथाएँ पढ़ना। गीत सुनना। वैसा वातावरण बनाए रखना। पराई स्त्री माता के समान होती है इस भाव को मन पर अंकित करनेवाली कहानियाँ पढ़ना। स्त्री का आदर, सम्मान करनेवाली कहानियां पढ़ना, सुनना। अश्लील, हिंसक साहित्य, सिनेमा, दूरदर्शन की मलिकाओं से दूर रहना। माता पिता दोनों के लिए यह आवश्यक है।
 
## जिन गुण लक्षणों वाली संतान की इच्छा है उस के गुण लक्षणों के अनुरूप और अनुकूल अपना व्यवहार रखना। उन गुण और लक्षणों का निरंतर चिंतन करना। उन गुण लक्षणों वाले महापुरुषों की कथाएँ पढ़ना। गीत सुनना। वैसा वातावरण बनाए रखना। पराई स्त्री माता के समान होती है इस भाव को मन पर अंकित करनेवाली कहानियाँ पढ़ना। स्त्री का आदर, सम्मान करनेवाली कहानियां पढ़ना, सुनना। अश्लील, हिंसक साहित्य, सिनेमा, दूरदर्शन की मलिकाओं से दूर रहना। माता पिता दोनों के लिए यह आवश्यक है।
 
# गर्भधारणा के बाद संतान के जन्म तक: इस काल में पिता की भूमिका दुय्यम हो जाती है। माता के सहायक की हो जाती है। मुख्य भूमिका माता की ही होती है।
 
# गर्भधारणा के बाद संतान के जन्म तक: इस काल में पिता की भूमिका दुय्यम हो जाती है। माता के सहायक की हो जाती है। मुख्य भूमिका माता की ही होती है।
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# जन्म के उपरांत ५ वर्ष की आयुतक   
 
# जन्म के उपरांत ५ वर्ष की आयुतक   
 
## माता का दूध बच्चे के लिए आवश्यक होता है। दूध  पीता बच्चा लोगों को पहचानने लगता है। बारबार माँ का दूध पीने से वह माँ को सबसे अधिक पहचानता है। चाहता है। आसपास माँ को न पाकर वह बेचैन हो जाता है। रोने लग जाता है। माँ की हर बात मानता है। गर्भधारणा के समय बच्चा अत्यंत संवेदनशील होता है। अत्यंत संस्कारक्षम होता है। जैसे जैसे गर्भ की आयु बढ़ती है उसकी संस्कार क्षमता कम होती जाती है। इस अवस्था में माँ बच्चे के जितनी निकट होती है, अन्य कोई नहीं। इस कारण माँ की आदतें, क्रियाकलाप बच्चे को बहुत प्रभावित करते हैं। बच्चे को उसका पिता कौन है इसका परिचय माता ही कराती है।
 
## माता का दूध बच्चे के लिए आवश्यक होता है। दूध  पीता बच्चा लोगों को पहचानने लगता है। बारबार माँ का दूध पीने से वह माँ को सबसे अधिक पहचानता है। चाहता है। आसपास माँ को न पाकर वह बेचैन हो जाता है। रोने लग जाता है। माँ की हर बात मानता है। गर्भधारणा के समय बच्चा अत्यंत संवेदनशील होता है। अत्यंत संस्कारक्षम होता है। जैसे जैसे गर्भ की आयु बढ़ती है उसकी संस्कार क्षमता कम होती जाती है। इस अवस्था में माँ बच्चे के जितनी निकट होती है, अन्य कोई नहीं। इस कारण माँ की आदतें, क्रियाकलाप बच्चे को बहुत प्रभावित करते हैं। बच्चे को उसका पिता कौन है इसका परिचय माता ही कराती है।
## जब तक बच्चा दूध पीता होता है उसका स्वास्थ्य पूरी तरह माँ के स्वास्थ्य के साथ जुडा रहता है। इसलिए इस आयु में भी माँ की आहार विहार की आदतें बच्चे के गुण लक्षणों के विकास की दृष्टि से अनुकूल होना आवश्यक होता है।  
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## जब तक बच्चा दूध पीता होता है उसका स्वास्थ्य पूरी तरह माँ के स्वास्थ्य के साथ जुडा रहता है। अतः इस आयु में भी माँ की आहार विहार की आदतें बच्चे के गुण लक्षणों के विकास की दृष्टि से अनुकूल होना आवश्यक होता है।  
## बच्चे की ५ वर्ष तक की आयु अत्यंत संस्कारक्षम होती है। इस आयु में बच्चे पर संस्कार करना सरल होता है। लेकिन संस्कार क्षमता के साथ ही में उसका मन चंचल होता है। इसलिए इस आयु में संस्कार करना बहुत कौशल का काम होता है। बच्चे की ठीक से परवरिश हो सके इस लिए माता को उसे अधिक से अधिक समय देना चाहिए। संयुक्त परिवार में यह बहुत सहज और सरल होता है। इसलिए विवाह करते समय संयुक्त परिवार की बहू बनना उचित होता है। इस से घर के बड़े और अनुभवी लोगों से आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन भी प्राप्त होता रहता है।  
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## बच्चे की ५ वर्ष तक की आयु अत्यंत संस्कारक्षम होती है। इस आयु में बच्चे पर संस्कार करना सरल होता है। लेकिन संस्कार क्षमता के साथ ही में उसका मन चंचल होता है। अतः इस आयु में संस्कार करना बहुत कौशल का काम होता है। बच्चे की ठीक से परवरिश हो सके इस लिए माता को उसे अधिक से अधिक समय देना चाहिए। संयुक्त परिवार में यह बहुत सहज और सरल होता है। अतः विवाह करते समय संयुक्त परिवार की बहू बनना उचित होता है। इस से घर के बड़े और अनुभवी लोगों से आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन भी प्राप्त होता रहता है।  
## बड़े लोग अपनी मर्जी से जो चाहे करते हैं। छोटे बच्चों को हर कोई टोकता रहता है। यह बच्चों को रास नहीं आता। इसलिए हर बच्चे को शीघ्रातिशीघ्र बड़ा बनने की तीव्र इच्छा होती है। वह बड़ों का अनुकरण करता है। इसी को संस्कारक्षमता भी कह सकते हैं। संयुक्त परिवार में भिन्न भिन्न प्रकार के ‘स्व’भाववाले लोग होते हैं। उनमें बच्चे अपना आदर्श ढूँढ लेते हैं। माँ का काम ऐसा आदर्श ढूँढने में बच्चे की सहायता करने का होता है। इसे ध्यान में रखकर बड़ों को भी अपना व्यवहार श्रेष्ठ रहे यह सुनिश्चित करना चाहिये। माँ ने भी गलत आदर्श के चयन से बच्चे को कुशलता से दूर रखना चाहिए। इस में माँ अपने पति की सहायता ले सकती है।
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## बड़े लोग अपनी मर्जी से जो चाहे करते हैं। छोटे बच्चों को हर कोई टोकता रहता है। यह बच्चों को रास नहीं आता। अतः हर बच्चे को शीघ्रातिशीघ्र बड़ा बनने की तीव्र इच्छा होती है। वह बड़ों का अनुकरण करता है। इसी को संस्कारक्षमता भी कह सकते हैं। संयुक्त परिवार में भिन्न भिन्न प्रकार के ‘स्व’भाववाले लोग होते हैं। उनमें बच्चे अपना आदर्श ढूँढ लेते हैं। माँ का काम ऐसा आदर्श ढूँढने में बच्चे की सहायता करने का होता है। इसे ध्यान में रखकर बड़ों को भी अपना व्यवहार श्रेष्ठ रहे यह सुनिश्चित करना चाहिये। माँ ने भी गलत आदर्श के चयन से बच्चे को कुशलता से दूर रखना चाहिए। इस में माँ अपने पति की सहायता ले सकती है।
 
## अपने व्यवहार में संयम, सदाचार, सादगी, सत्यनिष्ठा, स्वछता, स्वावलंबन, नम्रता, विवेक आदि होना आवश्यक है। वैसे तो यह गुण परिवार के सभी बड़े लोगों में होंगे ही यह आवश्यक नहीं है। लेकिन जब बच्चे यह देखते हैं की इन गुणों का घर के बड़े लोग सम्मान करते हैं तब वे उन गुणों को ग्रहण करते हैं।  
 
## अपने व्यवहार में संयम, सदाचार, सादगी, सत्यनिष्ठा, स्वछता, स्वावलंबन, नम्रता, विवेक आदि होना आवश्यक है। वैसे तो यह गुण परिवार के सभी बड़े लोगों में होंगे ही यह आवश्यक नहीं है। लेकिन जब बच्चे यह देखते हैं की इन गुणों का घर के बड़े लोग सम्मान करते हैं तब वे उन गुणों को ग्रहण करते हैं।  
 
# बच्चे की आयु ५ वर्ष से अधिक होने पर:  
 
# बच्चे की आयु ५ वर्ष से अधिक होने पर:  
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== उपसंहार ==
 
== उपसंहार ==
उपर्युक्त सभी बिंदु श्रेष्ठ मानव निर्माण की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। महत्व क्रम की दृष्टि से माता की जिम्मेदारी अन्य सभी घटकों द्वारा प्रभावित होती है। उसी प्रकार से माता की जिम्मेदारी अन्य सभी बिन्दुओं को भी प्रभावित करती है। इसलिए पहले सुधार कहाँ से आरम्भ हो यह समस्या खड़ी हो जाती है। पहले मुर्गी या पहले अंडा जैसी पहेली से भी अधिक यह पहेली बन जाती है। इस पहेली का उत्तर पहले अंडा यह है। मुर्गी को पकड़ना अति कठिन काम है। अंडे को पकड़ना सरल है। इसलिए बुद्धिमान लोग अंडे से आरम्भ करते हैं। स्त्रियों की दृष्टि से जो काम वे स्वत: कर सकतीं हैं वह उन्हें करना आरम्भ कर देना चाहिए। शासन, पुलिस, अत्याचारी, बलात्कारी आदि अन्यों की ओर उंगली बताना सरल है। योग्य भी है। किन्तु इसकी अपेक्षा तो अपना कर्तव्य निभाने के बाद ही की जा सकती है। विद्वानों का कहना है – उद्धरेदात्मनात्मानम्।  
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उपर्युक्त सभी बिंदु श्रेष्ठ मानव निर्माण की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। महत्व क्रम की दृष्टि से माता की जिम्मेदारी अन्य सभी घटकों द्वारा प्रभावित होती है। उसी प्रकार से माता की जिम्मेदारी अन्य सभी बिन्दुओं को भी प्रभावित करती है। अतः पहले सुधार कहाँ से आरम्भ हो यह समस्या खड़ी हो जाती है। पहले मुर्गी या पहले अंडा जैसी पहेली से भी अधिक यह पहेली बन जाती है। इस पहेली का उत्तर पहले अंडा यह है। मुर्गी को पकड़ना अति कठिन काम है। अंडे को पकड़ना सरल है। अतः बुद्धिमान लोग अंडे से आरम्भ करते हैं। स्त्रियों की दृष्टि से जो काम वे स्वत: कर सकतीं हैं वह उन्हें करना आरम्भ कर देना चाहिए। शासन, पुलिस, अत्याचारी, बलात्कारी आदि अन्यों की ओर उंगली बताना सरल है। योग्य भी है। किन्तु इसकी अपेक्षा तो अपना कर्तव्य निभाने के बाद ही की जा सकती है। विद्वानों का कहना है – उद्धरेदात्मनात्मानम्।  
    
अर्थ है मेरा उद्धार मैं ही कर सकता हूँ कोई अन्य नहीं। जो चाहता है कि उसका उद्धार हो, उसे ही उद्धार के लिए तप करना होता है। वर्तमान में स्त्री ही भुक्तभोगी होने के कारण स्त्री इसमें पहल करे यह उचित होगा। जो चाहता है कि मेरा उद्धार हो, उसे ही उद्धार के लिए पहल और कृति करनी होती है। इस दृष्टि से भी स्त्री को अत्याचारों से छुटकारा पाना है तो पहल और कृति स्त्री करे यह तो स्वाभाविक ही कहा जाएगा। वीरमाता जीजाबाई के देश में ‘मातृवत् परदारेषु’ यानि ‘पराई स्त्री माता के समान होती है’ इसका संस्कार अपने बच्चों पर करना यह कठिन बात नहीं है। बस ! माताएं मन में ठान लें।
 
अर्थ है मेरा उद्धार मैं ही कर सकता हूँ कोई अन्य नहीं। जो चाहता है कि उसका उद्धार हो, उसे ही उद्धार के लिए तप करना होता है। वर्तमान में स्त्री ही भुक्तभोगी होने के कारण स्त्री इसमें पहल करे यह उचित होगा। जो चाहता है कि मेरा उद्धार हो, उसे ही उद्धार के लिए पहल और कृति करनी होती है। इस दृष्टि से भी स्त्री को अत्याचारों से छुटकारा पाना है तो पहल और कृति स्त्री करे यह तो स्वाभाविक ही कहा जाएगा। वीरमाता जीजाबाई के देश में ‘मातृवत् परदारेषु’ यानि ‘पराई स्त्री माता के समान होती है’ इसका संस्कार अपने बच्चों पर करना यह कठिन बात नहीं है। बस ! माताएं मन में ठान लें।

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