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# विवाह के समय पुरुष की आयु स्त्री से अधिक रखने के कई कारण हैं। स्त्री यानि लड़की आयु की अवस्था की दृष्टि से यौन संबंधों के सन्दर्भ में जल्दी सज्ञान बनती है। सामान्यत: ११ से १४ वर्ष की आयु में लड़कियाँ यौन आकर्षण का अनुभव करने लग जाती हैं। संपर्क में आनेवाले हर पुरुष के प्रति आकर्षण अनुभव करने लग जाती है। उनका चिन्तन करने लग जाती हैं। पुरुष यानि लडके १४ – १६ वर्ष की आयु में सज्ञान होते हैं। इसी प्रकार से प्रसूतियों के कारण स्त्री के शरीर में जो कुछ कमी निर्माण हो जाती है उसका भी विचार किया गया है। पिछली सदी में बच्चे अधिक संख्या में पैदा होते थे। इसलिए पुरुष से स्त्री विवाह के समय ८-१० वर्ष कम आयु की हुआ करती थी। हम दो हमारे दो के काल में यह अंतर ४-५ वर्ष तक कम हो जाना स्वाभाविक ही है। इन दोनों बातों को ध्यान में रखकर विवाह के समय पुरुष और स्त्री की आयु में अंतर रखा जाता है। स्त्री कम आयु की होती है। ऐसा करने के पीछे दोनों का सहजीवन और जीवन भी लगभग साथ में समाप्त हो ऐसा विचार होता है। साथी के बिना जीवन बिताने का समय न्यूनतम हो यही विवाह के समय स्त्री और पुरुष की आयु में अंतर रखने के पीछे भूमिका होती है। तीसरा कारण आयु अधिक होने से पत्नी के रक्षण की दृष्टि से पति को अधिक अनुभव रहे इससे भी है।
 
# विवाह के समय पुरुष की आयु स्त्री से अधिक रखने के कई कारण हैं। स्त्री यानि लड़की आयु की अवस्था की दृष्टि से यौन संबंधों के सन्दर्भ में जल्दी सज्ञान बनती है। सामान्यत: ११ से १४ वर्ष की आयु में लड़कियाँ यौन आकर्षण का अनुभव करने लग जाती हैं। संपर्क में आनेवाले हर पुरुष के प्रति आकर्षण अनुभव करने लग जाती है। उनका चिन्तन करने लग जाती हैं। पुरुष यानि लडके १४ – १६ वर्ष की आयु में सज्ञान होते हैं। इसी प्रकार से प्रसूतियों के कारण स्त्री के शरीर में जो कुछ कमी निर्माण हो जाती है उसका भी विचार किया गया है। पिछली सदी में बच्चे अधिक संख्या में पैदा होते थे। इसलिए पुरुष से स्त्री विवाह के समय ८-१० वर्ष कम आयु की हुआ करती थी। हम दो हमारे दो के काल में यह अंतर ४-५ वर्ष तक कम हो जाना स्वाभाविक ही है। इन दोनों बातों को ध्यान में रखकर विवाह के समय पुरुष और स्त्री की आयु में अंतर रखा जाता है। स्त्री कम आयु की होती है। ऐसा करने के पीछे दोनों का सहजीवन और जीवन भी लगभग साथ में समाप्त हो ऐसा विचार होता है। साथी के बिना जीवन बिताने का समय न्यूनतम हो यही विवाह के समय स्त्री और पुरुष की आयु में अंतर रखने के पीछे भूमिका होती है। तीसरा कारण आयु अधिक होने से पत्नी के रक्षण की दृष्टि से पति को अधिक अनुभव रहे इससे भी है।
 
# धार्मिक (धार्मिक) समाज में असंस्कृत घरों में स्त्री को जो दुय्यम स्थिति प्राप्त हुई है इसके पीछे कुछ ऐतिहासिक कारण भी हैं। पहला कारण बौद्ध कालीन है। आदि शंकराचार्य के समयतक भारत में बौद्ध मत अत्यंत प्रभावी बन गया था। राजाओं के आश्रय के कारण और मुक्त यौन संबंधों के कारण बौद्ध विहार व्यभिचार के अड्डे बन गए थे। यौन आकर्षण के कारण जवान लड़कियाँ संघों में शरण ले लेतीं थीं। एक  बार संघ में शरण ले लेने के बाद उसे वहाँ से वापस लाना लगभग असंभव होता था। इसलिए लड़कियों के माता पिता लड़की के सज्ञान होने से पहले ही अपनी बेटियों के विवाह करा देते थे। इसलिए बाल विवाह की प्रथा चल पड़ी थी। स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक (धार्मिक) समाज का इस काल में बहुत नुकसान हुआ। फिर हुए बर्बर मुस्लिम आक्रमण। ये आक्रमणकारी शत्रू की स्त्रियों पर बलात्कार, अत्याचार करना अपने मजहब के अनुसार उचित मानते थे। लड़कियों, स्त्रियों को भगाकर ले जाना, दासी बनाना, रखेली बनाना, गुलाम बनाना, बेचना ये सब बातें इनके लिए मजहबी दृष्टि से आवश्यक थीं। प्रत्यक्ष शिवाजी महाराज की चाची को मुसलमान भगा ले गए थे। उसे शिवाजी के पिता शाहजी जैसा उस समय का एक जबरदस्त कद्दावर सेनापति भी वापस नहीं ला सका था। ऐसी परिस्थिति में स्त्री का घर से बाहर निकलना ही बंद हो गया। इसके परिणामस्वरूप भी स्त्री शिक्षा की अपार हानि हुई। अन्यथा शंकराचार्य के काल तक तो मंडन मिश्र की पत्नी भारती जैसी विदुषियों की भारत में उपलब्धता थी।
 
# धार्मिक (धार्मिक) समाज में असंस्कृत घरों में स्त्री को जो दुय्यम स्थिति प्राप्त हुई है इसके पीछे कुछ ऐतिहासिक कारण भी हैं। पहला कारण बौद्ध कालीन है। आदि शंकराचार्य के समयतक भारत में बौद्ध मत अत्यंत प्रभावी बन गया था। राजाओं के आश्रय के कारण और मुक्त यौन संबंधों के कारण बौद्ध विहार व्यभिचार के अड्डे बन गए थे। यौन आकर्षण के कारण जवान लड़कियाँ संघों में शरण ले लेतीं थीं। एक  बार संघ में शरण ले लेने के बाद उसे वहाँ से वापस लाना लगभग असंभव होता था। इसलिए लड़कियों के माता पिता लड़की के सज्ञान होने से पहले ही अपनी बेटियों के विवाह करा देते थे। इसलिए बाल विवाह की प्रथा चल पड़ी थी। स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक (धार्मिक) समाज का इस काल में बहुत नुकसान हुआ। फिर हुए बर्बर मुस्लिम आक्रमण। ये आक्रमणकारी शत्रू की स्त्रियों पर बलात्कार, अत्याचार करना अपने मजहब के अनुसार उचित मानते थे। लड़कियों, स्त्रियों को भगाकर ले जाना, दासी बनाना, रखेली बनाना, गुलाम बनाना, बेचना ये सब बातें इनके लिए मजहबी दृष्टि से आवश्यक थीं। प्रत्यक्ष शिवाजी महाराज की चाची को मुसलमान भगा ले गए थे। उसे शिवाजी के पिता शाहजी जैसा उस समय का एक जबरदस्त कद्दावर सेनापति भी वापस नहीं ला सका था। ऐसी परिस्थिति में स्त्री का घर से बाहर निकलना ही बंद हो गया। इसके परिणामस्वरूप भी स्त्री शिक्षा की अपार हानि हुई। अन्यथा शंकराचार्य के काल तक तो मंडन मिश्र की पत्नी भारती जैसी विदुषियों की भारत में उपलब्धता थी।
# अब स्त्रियों को शिक्षा के द्वार खुल गए हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि मिलने वाली शिक्षा विपरीत शिक्षा है। गुलामी की शिक्षा है। स्त्री को परायों के पास जाने को बाध्य करनेवाली और उनको नौकर बनानेवाली शिक्षा है। असंस्कृत समाज निर्माण करनेवाली शिक्षा है। स्त्री को बरगलाने वाली शिक्षा है। संस्कारों का काम सरकार डंडे की मदद से करे ऐसी अपेक्षा समाज में निर्माण करनेवाली शिक्षा है। स्त्री-मुक्ति के नाम पर स्त्री का शोषण करने के लिये स्त्री को भोग वस्तु बनानेवाली शिक्षा है। स्त्री को अरक्षित करनेवाले अर्थशास्त्र को सिखाने वाली शिक्षा है। पारिवारिक सुरक्षा कवच को तोड़ने की स्त्री को प्रेरणा देनेवाली शिक्षा है। केवल स्त्री ही नहीं तो पुरुषों को भी कर्तव्यों के स्थानपर अधिकारों के लिए झगडा करने को प्रेरित करने वाली शिक्षा है। अपनी सुरक्षा, अपना स्वार्थ किस में है इसका विवेक नष्ट करनेवाली शिक्षा है।
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# अब स्त्रियों को शिक्षा के द्वार खुल गए हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि मिलने वाली शिक्षा विपरीत शिक्षा है। गुलामी की शिक्षा है। स्त्री को परायों के पास जाने को बाध्य करनेवाली और उनको नौकर बनानेवाली शिक्षा है। असंस्कृत समाज निर्माण करनेवाली शिक्षा है। स्त्री को बरगलाने वाली शिक्षा है। संस्कारों का काम सरकार डंडे की सहायता से करे ऐसी अपेक्षा समाज में निर्माण करनेवाली शिक्षा है। स्त्री-मुक्ति के नाम पर स्त्री का शोषण करने के लिये स्त्री को भोग वस्तु बनानेवाली शिक्षा है। स्त्री को अरक्षित करनेवाले अर्थशास्त्र को सिखाने वाली शिक्षा है। पारिवारिक सुरक्षा कवच को तोड़ने की स्त्री को प्रेरणा देनेवाली शिक्षा है। केवल स्त्री ही नहीं तो पुरुषों को भी कर्तव्यों के स्थानपर अधिकारों के लिए झगडा करने को प्रेरित करने वाली शिक्षा है। अपनी सुरक्षा, अपना स्वार्थ किस में है इसका विवेक नष्ट करनेवाली शिक्षा है।
 
# स्वामी विवेकानंद कहते थे कि उनकी माता और पिता ने अच्छे बच्चे की प्राप्ति के लिए बहुत तप किया था। उनके काल में कई घरों में माता पिता श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति के लिए ऐसा तप करते थे। अब हालत यह है कि सामान्यत: बच्चे अपघात से पैदा हो रहे हैं। माता पिता का परिवार नियोजन चल रहा होता है। बच्चे की कोई चाहत होती नहीं है। लेकिन प्रकृति काम करती रहती है। किसी असावधानी के क्षण के कारण गर्भ ठहर जाता है। ऐसे माता पिताओं से और उनके द्वारा अपघात से पैदा हुए बच्चों से संस्कारों की अपेक्षा करना व्यर्थ है।
 
# स्वामी विवेकानंद कहते थे कि उनकी माता और पिता ने अच्छे बच्चे की प्राप्ति के लिए बहुत तप किया था। उनके काल में कई घरों में माता पिता श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति के लिए ऐसा तप करते थे। अब हालत यह है कि सामान्यत: बच्चे अपघात से पैदा हो रहे हैं। माता पिता का परिवार नियोजन चल रहा होता है। बच्चे की कोई चाहत होती नहीं है। लेकिन प्रकृति काम करती रहती है। किसी असावधानी के क्षण के कारण गर्भ ठहर जाता है। ऐसे माता पिताओं से और उनके द्वारा अपघात से पैदा हुए बच्चों से संस्कारों की अपेक्षा करना व्यर्थ है।
 
# सामाजिक दृष्टि से सम्मान की बात आती है तब भी माता का क्रम सबसे पहले आता है। तैत्तिरीय उपनिषद् में जो समावर्तन संस्कार के समय दिया जानेवाला उपदेश और आदेश है उसमें कहा गया है: मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव , माता का स्थान पिता से और गुरु से भी ऊपर का माना गया है।   
 
# सामाजिक दृष्टि से सम्मान की बात आती है तब भी माता का क्रम सबसे पहले आता है। तैत्तिरीय उपनिषद् में जो समावर्तन संस्कार के समय दिया जानेवाला उपदेश और आदेश है उसमें कहा गया है: मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव , माता का स्थान पिता से और गुरु से भी ऊपर का माना गया है।   
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## जब तक बच्चा दूध पीता होता है उसका स्वास्थ्य पूरी तरह माँ के स्वास्थ्य के साथ जुडा रहता है। इसलिए इस आयु में भी माँ की आहार विहार की आदतें बच्चे के गुण लक्षणों के विकास की दृष्टि से अनुकूल होना आवश्यक होता है।  
 
## जब तक बच्चा दूध पीता होता है उसका स्वास्थ्य पूरी तरह माँ के स्वास्थ्य के साथ जुडा रहता है। इसलिए इस आयु में भी माँ की आहार विहार की आदतें बच्चे के गुण लक्षणों के विकास की दृष्टि से अनुकूल होना आवश्यक होता है।  
 
## बच्चे की ५ वर्ष तक की आयु अत्यंत संस्कारक्षम होती है। इस आयु में बच्चे पर संस्कार करना सरल होता है। लेकिन संस्कार क्षमता के साथ ही में उसका मन चंचल होता है। इसलिए इस आयु में संस्कार करना बहुत कौशल का काम होता है। बच्चे की ठीक से परवरिश हो सके इस लिए माता को उसे अधिक से अधिक समय देना चाहिए। संयुक्त परिवार में यह बहुत सहज और सरल होता है। इसलिए विवाह करते समय संयुक्त परिवार की बहू बनना उचित होता है। इस से घर के बड़े और अनुभवी लोगों से आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन भी प्राप्त होता रहता है।  
 
## बच्चे की ५ वर्ष तक की आयु अत्यंत संस्कारक्षम होती है। इस आयु में बच्चे पर संस्कार करना सरल होता है। लेकिन संस्कार क्षमता के साथ ही में उसका मन चंचल होता है। इसलिए इस आयु में संस्कार करना बहुत कौशल का काम होता है। बच्चे की ठीक से परवरिश हो सके इस लिए माता को उसे अधिक से अधिक समय देना चाहिए। संयुक्त परिवार में यह बहुत सहज और सरल होता है। इसलिए विवाह करते समय संयुक्त परिवार की बहू बनना उचित होता है। इस से घर के बड़े और अनुभवी लोगों से आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन भी प्राप्त होता रहता है।  
## बड़े लोग अपनी मर्जी से जो चाहे करते हैं। छोटे बच्चों को हर कोई टोकता रहता है। यह बच्चों को रास नहीं आता। इसलिए हर बच्चे को शीघ्रातिशीघ्र बड़ा बनने की तीव्र इच्छा होती है। वह बड़ों का अनुकरण करता है। इसी को संस्कारक्षमता भी कह सकते हैं। संयुक्त परिवार में भिन्न भिन्न प्रकार के ‘स्व’भाववाले लोग होते हैं। उनमें बच्चे अपना आदर्श ढूँढ लेते हैं। माँ का काम ऐसा आदर्श ढूँढने में बच्चे की मदद करने का होता है। इसे ध्यान में रखकर बड़ों को भी अपना व्यवहार श्रेष्ठ रहे यह सुनिश्चित करना चाहिये। माँ ने भी गलत आदर्श के चयन से बच्चे को कुशलता से दूर रखना चाहिए। इस में माँ अपने पति की मदद ले सकती है।
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## बड़े लोग अपनी मर्जी से जो चाहे करते हैं। छोटे बच्चों को हर कोई टोकता रहता है। यह बच्चों को रास नहीं आता। इसलिए हर बच्चे को शीघ्रातिशीघ्र बड़ा बनने की तीव्र इच्छा होती है। वह बड़ों का अनुकरण करता है। इसी को संस्कारक्षमता भी कह सकते हैं। संयुक्त परिवार में भिन्न भिन्न प्रकार के ‘स्व’भाववाले लोग होते हैं। उनमें बच्चे अपना आदर्श ढूँढ लेते हैं। माँ का काम ऐसा आदर्श ढूँढने में बच्चे की सहायता करने का होता है। इसे ध्यान में रखकर बड़ों को भी अपना व्यवहार श्रेष्ठ रहे यह सुनिश्चित करना चाहिये। माँ ने भी गलत आदर्श के चयन से बच्चे को कुशलता से दूर रखना चाहिए। इस में माँ अपने पति की सहायता ले सकती है।
 
## अपने व्यवहार में संयम, सदाचार, सादगी, सत्यनिष्ठा, स्वछता, स्वावलंबन, नम्रता, विवेक आदि होना आवश्यक है। वैसे तो यह गुण परिवार के सभी बड़े लोगों में होंगे ही यह आवश्यक नहीं है। लेकिन जब बच्चे यह देखते हैं की इन गुणों का घर के बड़े लोग सम्मान करते हैं तब वे उन गुणों को ग्रहण करते हैं।  
 
## अपने व्यवहार में संयम, सदाचार, सादगी, सत्यनिष्ठा, स्वछता, स्वावलंबन, नम्रता, विवेक आदि होना आवश्यक है। वैसे तो यह गुण परिवार के सभी बड़े लोगों में होंगे ही यह आवश्यक नहीं है। लेकिन जब बच्चे यह देखते हैं की इन गुणों का घर के बड़े लोग सम्मान करते हैं तब वे उन गुणों को ग्रहण करते हैं।  
 
# बच्चे की आयु ५ वर्ष से अधिक होने पर:  
 
# बच्चे की आयु ५ वर्ष से अधिक होने पर:  

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