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| {{One source|date=January 2019}} | | {{One source|date=January 2019}} |
| == प्रस्तावना == | | == प्रस्तावना == |
− | व्यक्ति अपने आप स्वयंपूर्ण या स्वावलंबी नहीं बन सकता । उसे अन्यों की सहायता लेनी ही पड़ती है । अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों की मान्यता के अनुसार व्यक्ति अपने स्वार्थ को प्राप्त करने के लिए साथ में आकर एक करार करते हैं । इसे ‘सोशल कोंट्राक्ट थियरी’ कहते हैं । इसलिए प्रत्येक सामाजिक परस्पर संबंधों का आधार कोंट्राक्ट होता है । राजा प्रजा का सम्बन्ध किंग्ज चार्टर होता है । यहांतक पुरुष और स्त्री का विवाह भी एक करार होता है। | + | व्यक्ति अपने आप स्वयंपूर्ण या स्वावलंबी नहीं बन सकता । उसे अन्यों की सहायता लेनी ही पड़ती है । अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों की मान्यता के अनुसार व्यक्ति अपने स्वार्थ को प्राप्त करने के लिए साथ में आकर एक करार करते हैं । इसे ‘सोशल कोंट्राक्ट थियरी’ कहते हैं । अतः प्रत्येक सामाजिक परस्पर संबंधों का आधार कोंट्राक्ट होता है । राजा प्रजा का सम्बन्ध किंग्ज चार्टर होता है । यहांतक पुरुष और स्त्री का विवाह भी एक करार होता है। |
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| धार्मिक सामाजिक विचार इससे भिन्न है । केवल अपने स्वार्थ का विचार न कर ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का विचार करने का है ।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय ९, लेखक - दिलीप केलकर</ref> | | धार्मिक सामाजिक विचार इससे भिन्न है । केवल अपने स्वार्थ का विचार न कर ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का विचार करने का है ।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय ९, लेखक - दिलीप केलकर</ref> |
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| एक आलू की बोरी में आलू बंधे होते हैं । जब तक बाहरी बोरी खुलती या फटती नहीं आलू बोरी के अन्दर रहते हैं । जैसे ही बोरी का अवरोध हट जाता है आलू बिखर जाते हैं । ऐसे बिखरने वाले आलू और बोरी जैसा व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध नहीं होता । यह स्थिर होता है । लेकिन अनार को तोडने पर भी अनार के दाने बिखरते नहीं हैं । तो क्या समाज और व्यक्ति संबंध अनार और उसके दानोंजैसा है? | | एक आलू की बोरी में आलू बंधे होते हैं । जब तक बाहरी बोरी खुलती या फटती नहीं आलू बोरी के अन्दर रहते हैं । जैसे ही बोरी का अवरोध हट जाता है आलू बिखर जाते हैं । ऐसे बिखरने वाले आलू और बोरी जैसा व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध नहीं होता । यह स्थिर होता है । लेकिन अनार को तोडने पर भी अनार के दाने बिखरते नहीं हैं । तो क्या समाज और व्यक्ति संबंध अनार और उसके दानोंजैसा है? |
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− | समाज कुछ बातों में अनार जैसा होता है । जिस प्रकार अनार उसके अन्दर विद्यमान दानों के विकास के साथ विकास पाता है । हर दाने का विकास उसके पड़ोसी और अन्य सभी दानों के परिप्रेक्ष में ही होता है । उसी तरह से सामाजिक वातावरण ऐसा होना चाहिए जिससे किसी भी व्यक्ति के स्वाभाविक विकास में बाधा न हो । इसी प्रकार अनार की विशेषता यह होती है कि इसके दानों की विकसित होने की सीमा अनार के बाहरी आवरण की संभाव्य वृद्धि तक की ही होती है । लेकिन अनार और अनार के दानों में जीवात्मा नहीं होता । इसलिए समाज अनार से अधिक कुछ भी है । | + | समाज कुछ बातों में अनार जैसा होता है । जिस प्रकार अनार उसके अन्दर विद्यमान दानों के विकास के साथ विकास पाता है । हर दाने का विकास उसके पड़ोसी और अन्य सभी दानों के परिप्रेक्ष में ही होता है । उसी तरह से सामाजिक वातावरण ऐसा होना चाहिए जिससे किसी भी व्यक्ति के स्वाभाविक विकास में बाधा न हो । इसी प्रकार अनार की विशेषता यह होती है कि इसके दानों की विकसित होने की सीमा अनार के बाहरी आवरण की संभाव्य वृद्धि तक की ही होती है । लेकिन अनार और अनार के दानों में जीवात्मा नहीं होता । अतः समाज अनार से अधिक कुछ भी है । |
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− | तो क्या समाज एक दौड़ की स्पर्धा जैसा होता है । सभी का लक्ष्य एक ही होता है । एक ही दिशा में सभी लोग चलते हैं । लेकिन स्पर्धा में लक्ष्य एक ही होनेपर भी वह प्रत्येक का व्यक्तिगत लक्ष्य होता है । अन्य लोग उसे प्राप्त नहीं कर सकें ऐसी इच्छा प्रत्येक की होती है । और ऐसा ही प्रयास प्रत्येक का होता है । इसलिए समाज दौड़ की स्पर्धा जैसा भी नहीं है । | + | तो क्या समाज एक दौड़ की स्पर्धा जैसा होता है । सभी का लक्ष्य एक ही होता है । एक ही दिशा में सभी लोग चलते हैं । लेकिन स्पर्धा में लक्ष्य एक ही होनेपर भी वह प्रत्येक का व्यक्तिगत लक्ष्य होता है । अन्य लोग उसे प्राप्त नहीं कर सकें ऐसी इच्छा प्रत्येक की होती है । और ऐसा ही प्रयास प्रत्येक का होता है । अतः समाज दौड़ की स्पर्धा जैसा भी नहीं है । |
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| शब्दकल्पद्रुम मे दी हुई समाज की व्याख्या के अनुसार एक जैसा ही शरीर जिन्हें प्राप्त हुआ है, लेकिन कोई समान लक्ष्य लेकर जो जी नहीं रहे होते ऐसे समुदाय को ‘समज’ कहते हैं और एक जैसा ही शरीर जिन्हें प्राप्त हुआ है किंतु साथ ही में जो एक समान लक्ष्य को लेकर विचारपूर्वक उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील हैं वह समुदाय समाज कहलाता है। इसीलिये मेले में एकत्रित मानव समुदाय को भीड कहते हैं। भीड में उपस्थित लोग अलग अलग उद्देश्य लेकर मेले में आते हैं। इसलिये भीड को समाज नहीं कहते। समाज भावना का सबसे अच्छा उदाहरण पंढरपुर की वारी जैसा होता है । इसमें सब का लक्ष्य एक होता है । और सबके सहभाग और सहयोग से इस लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है । कुछ मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं: | | शब्दकल्पद्रुम मे दी हुई समाज की व्याख्या के अनुसार एक जैसा ही शरीर जिन्हें प्राप्त हुआ है, लेकिन कोई समान लक्ष्य लेकर जो जी नहीं रहे होते ऐसे समुदाय को ‘समज’ कहते हैं और एक जैसा ही शरीर जिन्हें प्राप्त हुआ है किंतु साथ ही में जो एक समान लक्ष्य को लेकर विचारपूर्वक उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील हैं वह समुदाय समाज कहलाता है। इसीलिये मेले में एकत्रित मानव समुदाय को भीड कहते हैं। भीड में उपस्थित लोग अलग अलग उद्देश्य लेकर मेले में आते हैं। इसलिये भीड को समाज नहीं कहते। समाज भावना का सबसे अच्छा उदाहरण पंढरपुर की वारी जैसा होता है । इसमें सब का लक्ष्य एक होता है । और सबके सहभाग और सहयोग से इस लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है । कुछ मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं: |
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| # समाज में चिरकाल से सुर और असुर वृत्तियों का विभाजन रहा है । सुर उन्हें कहते हैं जिनके सभी प्रकार के परस्पर संबंधों का आधार आत्मीयता होता है । प्रेम, सहानुभूति, श्रद्धा आदि होता है । असुर प्रवृत्ति उसे कहते हैं जिनके परस्पर संबंधों का आधार स्वार्थ होता है । इसका अधिक विस्तार से वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १६ में किया गया है । आत्मीयता के परस्पर संबंधों को ही व्यवहार की भाषा में ‘कुटुंब भावना’ कहते हैं । | | # समाज में चिरकाल से सुर और असुर वृत्तियों का विभाजन रहा है । सुर उन्हें कहते हैं जिनके सभी प्रकार के परस्पर संबंधों का आधार आत्मीयता होता है । प्रेम, सहानुभूति, श्रद्धा आदि होता है । असुर प्रवृत्ति उसे कहते हैं जिनके परस्पर संबंधों का आधार स्वार्थ होता है । इसका अधिक विस्तार से वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १६ में किया गया है । आत्मीयता के परस्पर संबंधों को ही व्यवहार की भाषा में ‘कुटुंब भावना’ कहते हैं । |
| # मनुष्य एक बुद्धिशील जीव है । जीवन की अनिश्चितताओं को दूर करने के लिए तथा सुख को निरंतर बनाए रखने के लिए समाज अपने लिए कुछ संगठन निर्माण करता है । इन संगठनों और व्यवस्थाओं की श्रेष्ठता के कारण धार्मिक (धार्मिक) समाज चिरंजीवी बना है । श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए समाज अपने को संगठित करता है । संगठन का अर्थ है समाज के प्रत्येक घटक की शक्तियां, मर्यादाएं, स्वभाव आदि को ध्यानमें रखकर समाज में कुछ रचना निर्माण करना । संगठन बनाने के साथ ही अपनी रक्षण, पोषण और शिक्षण की कुछ व्यवस्थाएं भी बनाता है । | | # मनुष्य एक बुद्धिशील जीव है । जीवन की अनिश्चितताओं को दूर करने के लिए तथा सुख को निरंतर बनाए रखने के लिए समाज अपने लिए कुछ संगठन निर्माण करता है । इन संगठनों और व्यवस्थाओं की श्रेष्ठता के कारण धार्मिक (धार्मिक) समाज चिरंजीवी बना है । श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए समाज अपने को संगठित करता है । संगठन का अर्थ है समाज के प्रत्येक घटक की शक्तियां, मर्यादाएं, स्वभाव आदि को ध्यानमें रखकर समाज में कुछ रचना निर्माण करना । संगठन बनाने के साथ ही अपनी रक्षण, पोषण और शिक्षण की कुछ व्यवस्थाएं भी बनाता है । |
− | # हर बच्चा जन्म लेते समय अपने विकास की सम्भावनाओं के साथ ही जन्म लेता है । इन सम्भावनाओं के उच्चतम स्तरतक विकास होने से वह बच्चा (मनुष्य) लाभान्वित होता है और साथ ही में समाज को भी लाभ होता है । इसलिए प्रत्येक बालक के विकास की जिम्मेदारी समाज की है । इस विकास के साथ ही समाज की व्यवस्थाओं और संगठनों को ठीक से चलाने के लिए भी प्रत्येक बालक को श्रेष्ठ शिक्षण, संस्कार और प्रशिक्षण मिलना आवश्यक है । समाज के लिए हितकारी स्वतंत्रता, सदाचार, सादगी, स्वावलंबन, सत्यनिष्ठा, सहजता, स्वदेशी आदि गुणों का विकास सामाजिक हित की ही बातें हैं । | + | # हर बच्चा जन्म लेते समय अपने विकास की सम्भावनाओं के साथ ही जन्म लेता है । इन सम्भावनाओं के उच्चतम स्तरतक विकास होने से वह बच्चा (मनुष्य) लाभान्वित होता है और साथ ही में समाज को भी लाभ होता है । अतः प्रत्येक बालक के विकास की जिम्मेदारी समाज की है । इस विकास के साथ ही समाज की व्यवस्थाओं और संगठनों को ठीक से चलाने के लिए भी प्रत्येक बालक को श्रेष्ठ शिक्षण, संस्कार और प्रशिक्षण मिलना आवश्यक है । समाज के लिए हितकारी स्वतंत्रता, सदाचार, सादगी, स्वावलंबन, सत्यनिष्ठा, सहजता, स्वदेशी आदि गुणों का विकास सामाजिक हित की ही बातें हैं । |
| == सामाजिक स्तर पर लक्ष्य == | | == सामाजिक स्तर पर लक्ष्य == |
| जिस प्रकार व्यक्ति के स्तर पर मानव का लक्ष्य मोक्ष होता है। मुक्ति होता है। उसी प्रकार मानव जीवन का सामाजिक स्तर का लक्ष्य भी मोक्ष ही होगा। मुक्ति ही होगा। इस सामाजिक लक्ष्य का व्यावहारिक स्वरूप ‘स्वतंत्रता’ है। स्वतंत्रता का अर्थ है अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करने की सामर्थ्य। सामर्थ्य प्राप्ति के लिये परिश्रम करने की सामान्यत: लोगों की तैयारी नहीं होती। लेकिन ऐसे किसी प्रयास के बगैर ही यदि जादू से वे समर्थ बन जाएँ तो प्रत्येक को ‘अनिर्बाध स्वतंत्रता’ की चाहत होती है। स्वैराचार और स्वतंत्रता में अंतर होता है। स्वैराचार की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन समाज में जहाँ अन्यों के सुख के साथ संघर्ष खडा होता है तब स्वतंत्रता की सीमा आ जाती है। धर्म ही स्वैराचार को सीमामें बाँधकर उसे स्वतंत्रता बना देता है। | | जिस प्रकार व्यक्ति के स्तर पर मानव का लक्ष्य मोक्ष होता है। मुक्ति होता है। उसी प्रकार मानव जीवन का सामाजिक स्तर का लक्ष्य भी मोक्ष ही होगा। मुक्ति ही होगा। इस सामाजिक लक्ष्य का व्यावहारिक स्वरूप ‘स्वतंत्रता’ है। स्वतंत्रता का अर्थ है अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करने की सामर्थ्य। सामर्थ्य प्राप्ति के लिये परिश्रम करने की सामान्यत: लोगों की तैयारी नहीं होती। लेकिन ऐसे किसी प्रयास के बगैर ही यदि जादू से वे समर्थ बन जाएँ तो प्रत्येक को ‘अनिर्बाध स्वतंत्रता’ की चाहत होती है। स्वैराचार और स्वतंत्रता में अंतर होता है। स्वैराचार की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन समाज में जहाँ अन्यों के सुख के साथ संघर्ष खडा होता है तब स्वतंत्रता की सीमा आ जाती है। धर्म ही स्वैराचार को सीमामें बाँधकर उसे स्वतंत्रता बना देता है। |