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| == प्रस्तावना == | | == प्रस्तावना == |
− | व्यक्ति अपने आप स्वयंपूर्ण या स्वावलंबी नहीं बन सकता । उसे अन्यों की मदद लेनी ही पड़ती है । अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों की मान्यता के अनुसार व्यक्ति अपने स्वार्थ को प्राप्त करने के लिए साथ में आकर एक करार करते हैं । इसे ‘सोशल कोंट्राक्ट थियरी’ कहते हैं । इसलिए प्रत्येक सामाजिक परस्पर संबंधों का आधार कोंट्राक्ट होता है । राजा प्रजा का सम्बन्ध किंग्ज चार्टर होता है । यहांतक पुरुष और स्त्री का विवाह भी एक करार होता है। | + | व्यक्ति अपने आप स्वयंपूर्ण या स्वावलंबी नहीं बन सकता । उसे अन्यों की सहायता लेनी ही पड़ती है । अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों की मान्यता के अनुसार व्यक्ति अपने स्वार्थ को प्राप्त करने के लिए साथ में आकर एक करार करते हैं । इसे ‘सोशल कोंट्राक्ट थियरी’ कहते हैं । इसलिए प्रत्येक सामाजिक परस्पर संबंधों का आधार कोंट्राक्ट होता है । राजा प्रजा का सम्बन्ध किंग्ज चार्टर होता है । यहांतक पुरुष और स्त्री का विवाह भी एक करार होता है। |
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| धार्मिक सामाजिक विचार इससे भिन्न है । केवल अपने स्वार्थ का विचार न कर ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का विचार करने का है ।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय ९, लेखक - दिलीप केलकर</ref> | | धार्मिक सामाजिक विचार इससे भिन्न है । केवल अपने स्वार्थ का विचार न कर ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का विचार करने का है ।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय ९, लेखक - दिलीप केलकर</ref> |
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| शब्दकल्पद्रुम मे दी हुई समाज की व्याख्या के अनुसार एक जैसा ही शरीर जिन्हें प्राप्त हुआ है, लेकिन कोई समान लक्ष्य लेकर जो जी नहीं रहे होते ऐसे समुदाय को ‘समज’ कहते हैं और एक जैसा ही शरीर जिन्हें प्राप्त हुआ है किंतु साथ ही में जो एक समान लक्ष्य को लेकर विचारपूर्वक उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील हैं वह समुदाय समाज कहलाता है। इसीलिये मेले में एकत्रित मानव समुदाय को भीड कहते हैं। भीड में उपस्थित लोग अलग अलग उद्देश्य लेकर मेले में आते हैं। इसलिये भीड को समाज नहीं कहते। समाज भावना का सबसे अच्छा उदाहरण पंढरपुर की वारी जैसा होता है । इसमें सब का लक्ष्य एक होता है । और सबके सहभाग और सहयोग से इस लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है । कुछ मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं: | | शब्दकल्पद्रुम मे दी हुई समाज की व्याख्या के अनुसार एक जैसा ही शरीर जिन्हें प्राप्त हुआ है, लेकिन कोई समान लक्ष्य लेकर जो जी नहीं रहे होते ऐसे समुदाय को ‘समज’ कहते हैं और एक जैसा ही शरीर जिन्हें प्राप्त हुआ है किंतु साथ ही में जो एक समान लक्ष्य को लेकर विचारपूर्वक उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील हैं वह समुदाय समाज कहलाता है। इसीलिये मेले में एकत्रित मानव समुदाय को भीड कहते हैं। भीड में उपस्थित लोग अलग अलग उद्देश्य लेकर मेले में आते हैं। इसलिये भीड को समाज नहीं कहते। समाज भावना का सबसे अच्छा उदाहरण पंढरपुर की वारी जैसा होता है । इसमें सब का लक्ष्य एक होता है । और सबके सहभाग और सहयोग से इस लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है । कुछ मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं: |
| # मानव अकेला अपने आप जन्म नहीं लेता। वह माँ के साथ बँधकर ही, नाल से जुडकर ही जन्म लेता है। उसे एक अलग मानव तो नाल काटकर ही बनाया जाता है। इस प्रकार से मानव का समष्टि से संबंध तो गर्भ से ही आरम्भ होता है। नाल काटी जाने तक तो वह माता का ही एक हिस्सा होता है। इसलिये मानव का समाज पर अवलंबन तो गर्भावस्था से ही आरम्भ होता है। जन्म से पशूवत् मानव को रक्षण, पोषण तथा संस्कार और शिक्षा देकर उसे समाज में रहने और अपना दायित्व निभाने योग्य बनाना समाज का काम होता है। आगे समर्थ और सक्षम बनकर समाज के ऋण को चुकाना व्यक्ति का दायित्व होता है। इस दायित्व को निभाना उस व्यक्ति को अपने आगामी जीवन के लिये और समाज के लिये भी सदैव हितकारी होता है। | | # मानव अकेला अपने आप जन्म नहीं लेता। वह माँ के साथ बँधकर ही, नाल से जुडकर ही जन्म लेता है। उसे एक अलग मानव तो नाल काटकर ही बनाया जाता है। इस प्रकार से मानव का समष्टि से संबंध तो गर्भ से ही आरम्भ होता है। नाल काटी जाने तक तो वह माता का ही एक हिस्सा होता है। इसलिये मानव का समाज पर अवलंबन तो गर्भावस्था से ही आरम्भ होता है। जन्म से पशूवत् मानव को रक्षण, पोषण तथा संस्कार और शिक्षा देकर उसे समाज में रहने और अपना दायित्व निभाने योग्य बनाना समाज का काम होता है। आगे समर्थ और सक्षम बनकर समाज के ऋण को चुकाना व्यक्ति का दायित्व होता है। इस दायित्व को निभाना उस व्यक्ति को अपने आगामी जीवन के लिये और समाज के लिये भी सदैव हितकारी होता है। |
− | # मानव जन्म के समय तो इतना अक्षम होता है कि वह अन्य लोगों की मदद के बगैर जी नहीं सकता। उसका पूरा विकास ही लोगों की यानी समाज की मदद लेकर ही होता रहता है। समाज का यह ऋण होता है। देवऋण, पितरऋण, गुरूऋण, समाजऋण और भूतऋण ऐसे मोटे मोटे प्रमुख रूप से पाँच ऋण लेता हुआ ही जीवन में मानव आगे बढता है। इन ऋणों से उॠण होने के प्रयास यदि वह नहीं करता है तो इन ऋणों का बोझ, इन उपकारों का बोझ बढता ही जाता है। जिस प्रकार से ऋण नहीं चुकाने से गृहस्थ की साख घटती जाती है उसी तरह जो अपने ऋण उसी जन्म में नहीं चुका पाता वह अधम गति को प्राप्त होता है। यानी घटिया स्तर का मानव जन्म या ऋणों का बोझ जब अत्यधिक हो जाता है तब पशू योनियों में जन्म प्राप्त करता है। कृतज्ञता या ऋण का बोझ और अधम गति को जाना केवल मनुष्य को इसलिये लागू है कि उसे परमात्मा ने श्रेष्ठ स्मृति की शक्ति दी हुई है। ऋण सिध्दांत की अधिक जानकारी के लिये इस [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (धार्मिक/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|लेख]] और इस [[Personality (व्यक्तित्व)|लेख]] को देखें । | + | # मानव जन्म के समय तो इतना अक्षम होता है कि वह अन्य लोगों की सहायता के बगैर जी नहीं सकता। उसका पूरा विकास ही लोगों की यानी समाज की सहायता लेकर ही होता रहता है। समाज का यह ऋण होता है। देवऋण, पितरऋण, गुरूऋण, समाजऋण और भूतऋण ऐसे मोटे मोटे प्रमुख रूप से पाँच ऋण लेता हुआ ही जीवन में मानव आगे बढता है। इन ऋणों से उॠण होने के प्रयास यदि वह नहीं करता है तो इन ऋणों का बोझ, इन उपकारों का बोझ बढता ही जाता है। जिस प्रकार से ऋण नहीं चुकाने से गृहस्थ की साख घटती जाती है उसी तरह जो अपने ऋण उसी जन्म में नहीं चुका पाता वह अधम गति को प्राप्त होता है। यानी घटिया स्तर का मानव जन्म या ऋणों का बोझ जब अत्यधिक हो जाता है तब पशू योनियों में जन्म प्राप्त करता है। कृतज्ञता या ऋण का बोझ और अधम गति को जाना केवल मनुष्य को इसलिये लागू है कि उसे परमात्मा ने श्रेष्ठ स्मृति की शक्ति दी हुई है। ऋण सिध्दांत की अधिक जानकारी के लिये इस [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (धार्मिक/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|लेख]] और इस [[Personality (व्यक्तित्व)|लेख]] को देखें । |
| # यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के न्याय से समाज भी एक जीवंत ईकाई है। यह भी सुखी होता है, समृध्द होता है, सुसंस्कृत होता है। समाज को भी मन होता है। पंचकोश होते हैं। अपने जीने का एक तरीका होता है। श्रेष्ठ जीवन जीने की जीवनदृष्टि होती है। धार्मिक (धार्मिक) जीवनदृष्टि और व्यवहार सूत्र या जीवनशैली के सूत्र जानने के लिये इस [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (धार्मिक/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|लेख]] और इस [[Personality (व्यक्तित्व)|लेख]] को देखें । | | # यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के न्याय से समाज भी एक जीवंत ईकाई है। यह भी सुखी होता है, समृध्द होता है, सुसंस्कृत होता है। समाज को भी मन होता है। पंचकोश होते हैं। अपने जीने का एक तरीका होता है। श्रेष्ठ जीवन जीने की जीवनदृष्टि होती है। धार्मिक (धार्मिक) जीवनदृष्टि और व्यवहार सूत्र या जीवनशैली के सूत्र जानने के लिये इस [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (धार्मिक/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|लेख]] और इस [[Personality (व्यक्तित्व)|लेख]] को देखें । |
| # समाज जीवन का लक्ष्य ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ से भिन्न नहीं हो सकता। इसलिये व्यक्तियों में जो अच्छी बुरी वृत्तियाँ होतीं हैं उन्हें ध्यान में रखकर समाज में व्यवस्थाएँ निर्माण करनी होती हैं। व्यवस्थाओं का प्रवर्तन चार प्रकार से होता है। सज्जन लोगों के लिये तो शिक्षा का माध्यम पर्याप्त होता है। इसे हमारे पूर्वज विनयाधान कहते थे। जो नासमझ लोग होते हैं कुछ अल्पबुध्दि होते हैं और अपनी नासमझी या अल्पबुध्दि को जानते हैं, उन के लिये अधिकारी व्यक्ति के आदेश के माध्यम से काम चल जाता है। कुछ लोग क्षणिक आवेग में व्यवस्था भंग कर देते हैं या अपराध कर देते हैं। ऐसे लोगों के लिये पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त की व्यवस्था होती है। लेकिन जो नासमझ होकर भी अपने को समझदार मानते हैं ऐसे मूर्ख लोग और जो मूलत: दुष्ट बुध्दि होते हैं ऐसे लोगों के लिये दण्डविधान की व्यवस्था होती है। | | # समाज जीवन का लक्ष्य ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ से भिन्न नहीं हो सकता। इसलिये व्यक्तियों में जो अच्छी बुरी वृत्तियाँ होतीं हैं उन्हें ध्यान में रखकर समाज में व्यवस्थाएँ निर्माण करनी होती हैं। व्यवस्थाओं का प्रवर्तन चार प्रकार से होता है। सज्जन लोगों के लिये तो शिक्षा का माध्यम पर्याप्त होता है। इसे हमारे पूर्वज विनयाधान कहते थे। जो नासमझ लोग होते हैं कुछ अल्पबुध्दि होते हैं और अपनी नासमझी या अल्पबुध्दि को जानते हैं, उन के लिये अधिकारी व्यक्ति के आदेश के माध्यम से काम चल जाता है। कुछ लोग क्षणिक आवेग में व्यवस्था भंग कर देते हैं या अपराध कर देते हैं। ऐसे लोगों के लिये पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त की व्यवस्था होती है। लेकिन जो नासमझ होकर भी अपने को समझदार मानते हैं ऐसे मूर्ख लोग और जो मूलत: दुष्ट बुध्दि होते हैं ऐसे लोगों के लिये दण्डविधान की व्यवस्था होती है। |