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== शिक्षा आजीवन चलती है ==
 
== शिक्षा आजीवन चलती है ==
वर्तमान व्यवस्था की तरह शिक्षा को केवल विद्यालय के साथ और केवल जीवन के प्रारंभिक वर्षों के साथ नहीं जोड़ा गया । शिक्षा का जीवन के साथ वैसा संबंध जोड़ा भी नहीं जा सकता है । कारण यह है की व्यक्ति का इस जन्म का जीवन शुरू होता है तब से शिक्षा उसके साथ जुड़ जाती है । सीखना शब्द संपूर्ण जीवन के साथ हर पहलू में जुड़ा है । गर्भाधान से ही व्यक्ति सीखना शुरू करता है । पुराणों में हम इसके अनेक उदाहरण देखते हैं । अभिमन्यु, अष्टावक्र आदि ने गर्भावस्था में ही अनेक बातें सीख ली थीं । केवल पुराणों के ही नहीं तो अर्वाचीन काल के, और केवल भारत में ही नहीं तो विश्व के अन्य देशों में भी ऐसे उदाहरण प्राप्त होते हैं । व्यक्ति अपनी मातृभाषा गर्भावस्था में ही सीखना प्रारम्भ कर देता है । पूर्व जन्म के और आनुवांशिक संस्कारों के रूप में व्यक्ति इस जन्म में जो साथ लेकर आता है उसमें गर्भावस्‍था से ही वह जोड़ना शुरू कर देता है । जन्म के बाद पहले ही दिन से उसकी शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है । वह रोना, लेटना, दूध पीना सीखता ही है । वह रेंगना, घुटने चलना, खड़ा होना, हँसना, रोना, खाना, चलना, बोलना सीखता ही है। लोगों को पहचानना, उनका अनुकरण करना, सुनी हुई भाषा बोलना सीखता है । असंख्य बातें ऐसी हैं जो वह घर में, मातापिता के और अन्य जनों के साथ रहते रहते सीखता है । सीखते सीखते ही वह बड़ा होता है । जैसे जैसे बड़ा होता है वह अनेक प्रकार के काम करना सीखता है। अनेक वस्तुओं का उपयोग करना सीखता है । लोगों के साथ व्यवहार करना सीखता है, विचार करना, अपने अभिप्राय बनाना, अपने विचार व्यक्त करना,कल्पनायें करना सीखता है । अनेक खेल, अनेक हुनर, अनेक खूबियाँ, अनेक युक्तियाँ सीखता है । बड़ा होता है तो जीवन को समझता जाता है । प्रेरणा ग्रहण करता है और विवेक सीखता है । कर्तव्य समझता है, कर्तव्य निभाता भी है। बड़ा होता है तो पैसा कमाना सीखता है । अपने परिवार को चलाना सीखता है । अपने जीवन का अर्थ क्या है इसका विचार करता है । अपने मातापिता से, संबंधियों से, मित्रों से, साधुसंतों से वह अनेक बातें सीखता है । अपने अन्तःकारण से भी सीखता है । जप करके, ध्यान करके, दर्शन करके, तीर्थयात्रा करके वह अनेक बातें सीखता है। अनुभव से सिखता है । संक्षेप में एक दिन भी बिना सीखे खाली नहीं जाता । जीवन उसे सिखाता है, जगत उसे सिखाता है, अंतरात्मा उसे सिखाती है ।
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वर्तमान व्यवस्था की तरह शिक्षा को केवल विद्यालय के साथ और केवल जीवन के प्रारंभिक वर्षों के साथ नहीं जोड़ा गया । शिक्षा का जीवन के साथ वैसा संबंध जोड़ा भी नहीं जा सकता है । कारण यह है की व्यक्ति का इस जन्म का जीवन आरम्भ होता है तब से शिक्षा उसके साथ जुड़ जाती है । सीखना शब्द संपूर्ण जीवन के साथ हर पहलू में जुड़ा है । गर्भाधान से ही व्यक्ति सीखना आरम्भ करता है । पुराणों में हम इसके अनेक उदाहरण देखते हैं । अभिमन्यु, अष्टावक्र आदि ने गर्भावस्था में ही अनेक बातें सीख ली थीं । केवल पुराणों के ही नहीं तो अर्वाचीन काल के, और केवल भारत में ही नहीं तो विश्व के अन्य देशों में भी ऐसे उदाहरण प्राप्त होते हैं । व्यक्ति अपनी मातृभाषा गर्भावस्था में ही सीखना प्रारम्भ कर देता है । पूर्व जन्म के और आनुवांशिक संस्कारों के रूप में व्यक्ति इस जन्म में जो साथ लेकर आता है उसमें गर्भावस्‍था से ही वह जोड़ना आरम्भ कर देता है । जन्म के बाद पहले ही दिन से उसकी शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है । वह रोना, लेटना, दूध पीना सीखता ही है । वह रेंगना, घुटने चलना, खड़ा होना, हँसना, रोना, खाना, चलना, बोलना सीखता ही है। लोगों को पहचानना, उनका अनुकरण करना, सुनी हुई भाषा बोलना सीखता है । असंख्य बातें ऐसी हैं जो वह घर में, मातापिता के और अन्य जनों के साथ रहते रहते सीखता है । सीखते सीखते ही वह बड़ा होता है । जैसे जैसे बड़ा होता है वह अनेक प्रकार के काम करना सीखता है। अनेक वस्तुओं का उपयोग करना सीखता है । लोगों के साथ व्यवहार करना सीखता है, विचार करना, अपने अभिप्राय बनाना, अपने विचार व्यक्त करना,कल्पनायें करना सीखता है । अनेक खेल, अनेक हुनर, अनेक खूबियाँ, अनेक युक्तियाँ सीखता है । बड़ा होता है तो जीवन को समझता जाता है । प्रेरणा ग्रहण करता है और विवेक सीखता है । कर्तव्य समझता है, कर्तव्य निभाता भी है। बड़ा होता है तो पैसा कमाना सीखता है । अपने परिवार को चलाना सीखता है । अपने जीवन का अर्थ क्या है इसका विचार करता है । अपने मातापिता से, संबंधियों से, मित्रों से, साधुसंतों से वह अनेक बातें सीखता है । अपने अन्तःकारण से भी सीखता है । जप करके, ध्यान करके, दर्शन करके, तीर्थयात्रा करके वह अनेक बातें सीखता है। अनुभव से सिखता है । संक्षेप में एक दिन भी बिना सीखे खाली नहीं जाता । जीवन उसे सिखाता है, जगत उसे सिखाता है, अंतरात्मा उसे सिखाती है ।
    
अपने जीवन के अंतिम दिन तक वह सीखता ही है । मृत्यु के साथ इस जन्म का जीवन जब पूर्ण होता है तब अनेक बातें वह अगले जन्म के लिए साथ ले जाता है। इस प्रकार शिक्षा उसके साथ आजीवन जुड़ी हुई रहती है । जो सीखता है और बढ़ता है वही मनुष्य है । इस शिक्षा के लिए उसे विद्यालय जाना, गृहकार्य करना, प्रमाणपत्र प्राप्त करना अनिवार्य नहीं है। यह भी आवश्यक नहीं की उसे लिखना और पढ़ना आता ही हो । भारत में अक्षर लेखन और पुस्तक पठन को आज के जितना महत्व कभी नहीं दिया गया । अनेक यशस्वी उद्योगपति बिना अक्षरज्ञान के हुए हैं। अनेक उत्कृष्ट कारीगर और कलाकार बिना अक्षरज्ञान के हुए हैं। अनेक सन्त महात्मा बिना अक्षरज्ञान के हुए हैं । अर्थार्जन, कला, तत्वज्ञान और साक्षात्कार के लिए अक्षरज्ञान कभी भी अनिवार्य नहीं रहा । इतिहास प्रमाण है कि शिक्षा के संबंध में इस धारणा के चलते भारत अत्यन्त शिक्षित राष्ट्र रहा है क्योंकि ज्ञानविज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में भारत ने अनेक सिद्धियाँ हासिल की हैं। ऐसी शिक्षा के कारण ही भारत ने जीवन को समृद्ध और सार्थक बनाया है।
 
अपने जीवन के अंतिम दिन तक वह सीखता ही है । मृत्यु के साथ इस जन्म का जीवन जब पूर्ण होता है तब अनेक बातें वह अगले जन्म के लिए साथ ले जाता है। इस प्रकार शिक्षा उसके साथ आजीवन जुड़ी हुई रहती है । जो सीखता है और बढ़ता है वही मनुष्य है । इस शिक्षा के लिए उसे विद्यालय जाना, गृहकार्य करना, प्रमाणपत्र प्राप्त करना अनिवार्य नहीं है। यह भी आवश्यक नहीं की उसे लिखना और पढ़ना आता ही हो । भारत में अक्षर लेखन और पुस्तक पठन को आज के जितना महत्व कभी नहीं दिया गया । अनेक यशस्वी उद्योगपति बिना अक्षरज्ञान के हुए हैं। अनेक उत्कृष्ट कारीगर और कलाकार बिना अक्षरज्ञान के हुए हैं। अनेक सन्त महात्मा बिना अक्षरज्ञान के हुए हैं । अर्थार्जन, कला, तत्वज्ञान और साक्षात्कार के लिए अक्षरज्ञान कभी भी अनिवार्य नहीं रहा । इतिहास प्रमाण है कि शिक्षा के संबंध में इस धारणा के चलते भारत अत्यन्त शिक्षित राष्ट्र रहा है क्योंकि ज्ञानविज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में भारत ने अनेक सिद्धियाँ हासिल की हैं। ऐसी शिक्षा के कारण ही भारत ने जीवन को समृद्ध और सार्थक बनाया है।
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== आजीवन चलने वाली शिक्षा ==
 
== आजीवन चलने वाली शिक्षा ==
मनुष्य गर्भाधान के समय अपने पूर्वजन्मों के संचित कर्म लेकर इस जन्म में आता है और उसकी शिक्षा शुरू होती है। गर्भ के रूप में आने से पहले ही गर्भाधान संस्कार किए जाते हैं जो उसकी शिक्षा का प्रारम्भ है । इस जन्म के उसके प्रथम शिक्षक उसके मातापिता ही हैं जो अपने कुल में आने के लिये उसका आवाहन और स्वागत करते हैं। उसके अध्ययन के लिये आवास बनाते हैं । पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार उसे अनुवंश के नाते प्राप्त हो जाते हैं । गर्भाधान के समय भी माता और पिता से उसे सम्पूर्ण जीवन का पाथेय प्राप्त हो जाता है जिसके बल पर वह अपनी भविष्य की यात्रा करता है। उसकी प्रथम पाठशाला घर है और उसकी प्रथम कक्षा माता की कोख में है । माता के गर्भाशय में गर्भ के रूप में रहते हुए वह माता के माध्यम से शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक क्षमातायें प्राप्त करता है, माता की ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही बाहर की दुनिया के अन्यान्य विषयों के अनुभव ग्रहण करता है।
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मनुष्य गर्भाधान के समय अपने पूर्वजन्मों के संचित कर्म लेकर इस जन्म में आता है और उसकी शिक्षा आरम्भ होती है। गर्भ के रूप में आने से पहले ही गर्भाधान संस्कार किए जाते हैं जो उसकी शिक्षा का प्रारम्भ है । इस जन्म के उसके प्रथम शिक्षक उसके मातापिता ही हैं जो अपने कुल में आने के लिये उसका आवाहन और स्वागत करते हैं। उसके अध्ययन के लिये आवास बनाते हैं । पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार उसे अनुवंश के नाते प्राप्त हो जाते हैं । गर्भाधान के समय भी माता और पिता से उसे सम्पूर्ण जीवन का पाथेय प्राप्त हो जाता है जिसके बल पर वह अपनी भविष्य की यात्रा करता है। उसकी प्रथम पाठशाला घर है और उसकी प्रथम कक्षा माता की कोख में है । माता के गर्भाशय में गर्भ के रूप में रहते हुए वह माता के माध्यम से शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक क्षमातायें प्राप्त करता है, माता की ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही बाहर की दुनिया के अन्यान्य विषयों के अनुभव ग्रहण करता है।
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आयुर्वेद के अनुसार गर्भावस्‍था में मातृज, पितृज, रसज, सत्वज, सात्म्यज, आत्मज ऐसे छः भावों से उसका पिण्ड बनता है जो केवल शरीर नहीं होता अपितु उसका पूरा व्यक्तित्व होता है, उसका चरित्र होता है। जन्म का समय माता से स्वतंत्र अपने बल पर जीवन की यात्रा शुरू करने का है । गर्भोपनिषद्‌ कहता है{{Citation needed}}  
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आयुर्वेद के अनुसार गर्भावस्‍था में मातृज, पितृज, रसज, सत्वज, सात्म्यज, आत्मज ऐसे छः भावों से उसका पिण्ड बनता है जो केवल शरीर नहीं होता अपितु उसका पूरा व्यक्तित्व होता है, उसका चरित्र होता है। जन्म का समय माता से स्वतंत्र अपने बल पर जीवन की यात्रा आरम्भ करने का है । गर्भोपनिषद्‌ कहता है{{Citation needed}}  
  कि जब जीव माता के गर्भाशय में होता है तब वहाँ की स्थिति से परेशान होता हुआ सदैव विचार करता है कि यदि मैं इस कारागार से मुक्त होता हूँ तो जीवन में और कुछ नहीं करूँगा, केवल नारायण का नाम ही जपूँगा जिससे मेरी मुक्ति हो, परन्तु जैसे ही वह गर्भाशय से बाहर आना शुरू करता है माया का आवरण विस्मृति बनकर उसे लपेट लेता है और वह अपना संकल्प भूल जाता है और संसार में आसक्त हो जाता है।<blockquote>अथ जन्तु: ख्रीयोनिशतं योनिट्वारि संप्राप्तो, यन्त्रेणापीद्यमानो महता दुःखेन जातमात्रस्तु</blockquote><blockquote>वैष्णवेन वायुना संस्पृश्यते तदा न स्मरति, जन्ममरणं न च कर्म शुभाशुभम्‌ ।।४।॥।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌ वह योनिट्टवार को प्राप्त होकर योनिरूप यन्त्र में दबाया जाकर बड़े कष्ट से जन्म ग्रहण करता है । बाहर निकलते ही वैष्णवी वायु (माया) के स्पर्श से वह अपने पिछले जन्म और मृत्युओं को भूल जाता है और शुभाशुभ कर्म भी उसके सामने से हट जाते हैं ॥</blockquote>इस जन्म की पूरी शिक्षायात्रा अपने भूले हुए संकल्प को याद करने के लिये है। जन्म के समय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, आसपास के लोगों के मनोभावों से जिस प्रकार उसका स्वागत होता है वैसे संस्कार उसके चित्त पर होते हैं । संस्कारों के रूप में होने वाले यह संस्कार बहुत प्रभावी शिक्षा है जो जीवनभर नींव बनकर, चरित्र का अभिन्न अंग बनकर उसके साथ रहती है। जन्म के बाद के प्रथम पाँच वर्ष में मुख्य रूप में संस्कारों के माध्यम से शिक्षा होती है । जीवन का घनिष्ठततम अनुभव वह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त करता है परन्तु ग्रहण करने वाला तो चित्त ही होता है। इस समय मातापिता का लालनपालन उसके चरित्र को आकार देता है । आहारविहार और बड़ों के अनुकरण से वह आकार लेता है। आनन्द उसका केंद्रवर्ती भाव होता है। पाँच वर्ष की आयु तक उसकी शिशु अवस्था होती है जिसमें उसकी शिक्षा संस्कारों के रूप में होती है।
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  कि जब जीव माता के गर्भाशय में होता है तब वहाँ की स्थिति से परेशान होता हुआ सदैव विचार करता है कि यदि मैं इस कारागार से मुक्त होता हूँ तो जीवन में और कुछ नहीं करूँगा, केवल नारायण का नाम ही जपूँगा जिससे मेरी मुक्ति हो, परन्तु जैसे ही वह गर्भाशय से बाहर आना आरम्भ करता है माया का आवरण विस्मृति बनकर उसे लपेट लेता है और वह अपना संकल्प भूल जाता है और संसार में आसक्त हो जाता है।<blockquote>अथ जन्तु: ख्रीयोनिशतं योनिट्वारि संप्राप्तो, यन्त्रेणापीद्यमानो महता दुःखेन जातमात्रस्तु</blockquote><blockquote>वैष्णवेन वायुना संस्पृश्यते तदा न स्मरति, जन्ममरणं न च कर्म शुभाशुभम्‌ ।।४।॥।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌ वह योनिट्टवार को प्राप्त होकर योनिरूप यन्त्र में दबाया जाकर बड़े कष्ट से जन्म ग्रहण करता है । बाहर निकलते ही वैष्णवी वायु (माया) के स्पर्श से वह अपने पिछले जन्म और मृत्युओं को भूल जाता है और शुभाशुभ कर्म भी उसके सामने से हट जाते हैं ॥</blockquote>इस जन्म की पूरी शिक्षायात्रा अपने भूले हुए संकल्प को याद करने के लिये है। जन्म के समय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, आसपास के लोगों के मनोभावों से जिस प्रकार उसका स्वागत होता है वैसे संस्कार उसके चित्त पर होते हैं । संस्कारों के रूप में होने वाले यह संस्कार बहुत प्रभावी शिक्षा है जो जीवनभर नींव बनकर, चरित्र का अभिन्न अंग बनकर उसके साथ रहती है। जन्म के बाद के प्रथम पाँच वर्ष में मुख्य रूप में संस्कारों के माध्यम से शिक्षा होती है । जीवन का घनिष्ठततम अनुभव वह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त करता है परन्तु ग्रहण करने वाला तो चित्त ही होता है। इस समय मातापिता का लालनपालन उसके चरित्र को आकार देता है । आहारविहार और बड़ों के अनुकरण से वह आकार लेता है। आनन्द उसका केंद्रवर्ती भाव होता है। पाँच वर्ष की आयु तक उसकी शिशु अवस्था होती है जिसमें उसकी शिक्षा संस्कारों के रूप में होती है।
    
आगे बढ़कर बालअवस्था में मुख्य रूप से वह क्रिया आधारित और अनुभव आधारित शिक्षा ग्रहण करता है। इस आयु में उसका प्रेरणा पक्ष भी प्रबल होता है। अब उसके सीखने के दो स्थान हैं। एक है घर और दूसरा है विद्यालय।
 
आगे बढ़कर बालअवस्था में मुख्य रूप से वह क्रिया आधारित और अनुभव आधारित शिक्षा ग्रहण करता है। इस आयु में उसका प्रेरणा पक्ष भी प्रबल होता है। अब उसके सीखने के दो स्थान हैं। एक है घर और दूसरा है विद्यालय।
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घर में उसे मन की शिक्षा प्राप्त होती है। वह नियमपालन, आज्ञापालन, संयम, अनुशासन, परिश्रम करना आदि की शिक्षा प्राप्त करता है। विद्यालय में वह अनेक प्रकार के कौशल, जानकारी प्रेरणा ग्रहण करता है। उसकी आदतें बनती हैं, उसके स्वभाव का गठन होता है। खेल, कहानी, भ्रमण, प्रयोग, परिश्रम आदि उसके सीखने के माध्यम होते हैं। उसका मन बहुत सक्रिय होता है परन्तु विचार से भावना पक्ष ही अधिक प्रबल होता है। बारह वर्ष की आयु तक उसके चरित्र का गठन ठीक ठीक हो जाता है । आगे किशोर अवस्था में वह विचार करता है। निरीक्षण और परीक्षण करना सीखता है। अपने अभिमत बनाता है । अपने आसपास के जगत का मूल्यांकन करता है। बड़ों से सीखने लायक बातें सीखता है। अब वह स्वतंत्र होने की राह पर होता है। बड़ा नहीं हुआ है परन्तु बनने की अनुभूति करता है। सोलह वर्ष का होते होते वह स्वतंत्र बुद्धि का हो जाता है। अब तक इंद्रियों, मन और बुद्धि का जितना भी विकास हुआ है उसके आधार पर अब वह जीवन का और जगत का अध्ययन स्वत: शुरू करता है। वह बुद्धि से स्वतंत्र है। अब उसे व्यवहार में भी स्वतंत्र होना है। अब उसकी आगे गृहस्थाश्रम चलाने की तैयारी शुरू होती है। वह अब बुद्धि से सीखता है, अहंकार के कारण अस्मिता जागृत होती है। कर्ताभाव जुड़ता है। अहंकार विधायक रहा तो दायित्वबोध भी जागृत होता है।
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घर में उसे मन की शिक्षा प्राप्त होती है। वह नियमपालन, आज्ञापालन, संयम, अनुशासन, परिश्रम करना आदि की शिक्षा प्राप्त करता है। विद्यालय में वह अनेक प्रकार के कौशल, जानकारी प्रेरणा ग्रहण करता है। उसकी आदतें बनती हैं, उसके स्वभाव का गठन होता है। खेल, कहानी, भ्रमण, प्रयोग, परिश्रम आदि उसके सीखने के माध्यम होते हैं। उसका मन बहुत सक्रिय होता है परन्तु विचार से भावना पक्ष ही अधिक प्रबल होता है। बारह वर्ष की आयु तक उसके चरित्र का गठन ठीक ठीक हो जाता है । आगे किशोर अवस्था में वह विचार करता है। निरीक्षण और परीक्षण करना सीखता है। अपने अभिमत बनाता है । अपने आसपास के जगत का मूल्यांकन करता है। बड़ों से सीखने लायक बातें सीखता है। अब वह स्वतंत्र होने की राह पर होता है। बड़ा नहीं हुआ है परन्तु बनने की अनुभूति करता है। सोलह वर्ष का होते होते वह स्वतंत्र बुद्धि का हो जाता है। अब तक इंद्रियों, मन और बुद्धि का जितना भी विकास हुआ है उसके आधार पर अब वह जीवन का और जगत का अध्ययन स्वत: आरम्भ करता है। वह बुद्धि से स्वतंत्र है। अब उसे व्यवहार में भी स्वतंत्र होना है। अब उसकी आगे गृहस्थाश्रम चलाने की तैयारी आरम्भ होती है। वह अब बुद्धि से सीखता है, अहंकार के कारण अस्मिता जागृत होती है। कर्ताभाव जुड़ता है। अहंकार विधायक रहा तो दायित्वबोध भी जागृत होता है।
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गृहस्थाश्रम चलाने के लिये दो प्रकार की तैयारी उसे करनी है। एक है अर्थार्जन की और दूसरी है विवाह की। एक के लिये उसे व्यवसाय निश्चित करना है और सीखना है। दूसरे के लिये उसे गृहस्थी कैसे चलती है यह सीखना है। एक विद्यालय में सीखा जाता है, दूसरा घर में । एक शिक्षकों से सीखना है, दूसरा मातापिता से । लगभग दस वर्ष यह तैयारी चलती है। फिर उसका विवाह होता है और दोनों बातें अर्थात्‌ गृहस्थी और अधथर्जिन शुरू होते हैं ।
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गृहस्थाश्रम चलाने के लिये दो प्रकार की तैयारी उसे करनी है। एक है अर्थार्जन की और दूसरी है विवाह की। एक के लिये उसे व्यवसाय निश्चित करना है और सीखना है। दूसरे के लिये उसे गृहस्थी कैसे चलती है यह सीखना है। एक विद्यालय में सीखा जाता है, दूसरा घर में । एक शिक्षकों से सीखना है, दूसरा मातापिता से । लगभग दस वर्ष यह तैयारी चलती है। फिर उसका विवाह होता है और दोनों बातें अर्थात्‌ गृहस्थी और अधथर्जिन आरम्भ होते हैं ।
    
अब उसे विद्यालय में जाकर नहीं सीखना है। अब उसके सीखने के दो केंद्र हैं। एक है घर और दूसरा है समाज। अब वह अपने बड़ों से नई पीढ़ी को कैसे शिक्षा देना यह सीखता है। अपने कुल की रीत, समाज में कैसे रहना, यश और प्रतिष्ठा कैसे प्राप्त करना, अपने सामाजिक कर्तव्य कैसे निभाना आदि सीखता है । साथ ही अपने बालकों को शिक्षा भी देता है। अर्थार्जन का स्थान भी बहुत कुछ सीखने का केंद्र है। वह अभ्यास से अपने व्यवसाय में माहिर होता जाता है, अनुभवी होता जाता है । सामाजिक कर्तव्य भी निभाता है। अपने मित्रों से सीखता है, अनुभवों से सीखता है । गलतियाँ करके भी सीखता है।
 
अब उसे विद्यालय में जाकर नहीं सीखना है। अब उसके सीखने के दो केंद्र हैं। एक है घर और दूसरा है समाज। अब वह अपने बड़ों से नई पीढ़ी को कैसे शिक्षा देना यह सीखता है। अपने कुल की रीत, समाज में कैसे रहना, यश और प्रतिष्ठा कैसे प्राप्त करना, अपने सामाजिक कर्तव्य कैसे निभाना आदि सीखता है । साथ ही अपने बालकों को शिक्षा भी देता है। अर्थार्जन का स्थान भी बहुत कुछ सीखने का केंद्र है। वह अभ्यास से अपने व्यवसाय में माहिर होता जाता है, अनुभवी होता जाता है । सामाजिक कर्तव्य भी निभाता है। अपने मित्रों से सीखता है, अनुभवों से सीखता है । गलतियाँ करके भी सीखता है।

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