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घर में उसे मन की शिक्षा प्राप्त होती है। वह नियमपालन, आज्ञापालन, संयम, अनुशासन, परिश्रम करना आदि की शिक्षा प्राप्त करता है। विद्यालय में वह अनेक प्रकार के कौशल, जानकारी प्रेरणा ग्रहण करता है। उसकी आदतें बनती हैं, उसके स्वभाव का गठन होता है। खेल, कहानी, भ्रमण, प्रयोग, परिश्रम आदि उसके सीखने के माध्यम होते हैं। उसका मन बहुत सक्रिय होता है परन्तु विचार से भावना पक्ष ही अधिक प्रबल होता है। बारह वर्ष की आयु तक उसके चरित्र का गठन ठीक ठीक हो जाता है । आगे किशोर अवस्था में वह विचार करता है। निरीक्षण और परीक्षण करना सीखता है। अपने अभिमत बनाता है । अपने आसपास के जगत का मूल्यांकन करता है। बड़ों से सीखने लायक बातें सीखता है। अब वह स्वतंत्र होने की राह पर होता है। बड़ा नहीं हुआ है परन्तु बनने की अनुभूति करता है। सोलह वर्ष का होते होते वह स्वतंत्र बुद्धि का हो जाता है। अब तक इंद्रियों, मन और बुद्धि का जितना भी विकास हुआ है उसके आधार पर अब वह जीवन का और जगत का अध्ययन स्वत: शुरू करता है। वह बुद्धि से स्वतंत्र है। अब उसे व्यवहार में भी स्वतंत्र होना है। अब उसकी आगे गृहस्थाश्रम चलाने की तैयारी शुरू होती है। वह अब बुद्धि से सीखता है, अहंकार के कारण अस्मिता जागृत होती है। कर्ताभाव जुड़ता है। अहंकार विधायक रहा तो दायित्वबोध भी जागृत होता है।
 
घर में उसे मन की शिक्षा प्राप्त होती है। वह नियमपालन, आज्ञापालन, संयम, अनुशासन, परिश्रम करना आदि की शिक्षा प्राप्त करता है। विद्यालय में वह अनेक प्रकार के कौशल, जानकारी प्रेरणा ग्रहण करता है। उसकी आदतें बनती हैं, उसके स्वभाव का गठन होता है। खेल, कहानी, भ्रमण, प्रयोग, परिश्रम आदि उसके सीखने के माध्यम होते हैं। उसका मन बहुत सक्रिय होता है परन्तु विचार से भावना पक्ष ही अधिक प्रबल होता है। बारह वर्ष की आयु तक उसके चरित्र का गठन ठीक ठीक हो जाता है । आगे किशोर अवस्था में वह विचार करता है। निरीक्षण और परीक्षण करना सीखता है। अपने अभिमत बनाता है । अपने आसपास के जगत का मूल्यांकन करता है। बड़ों से सीखने लायक बातें सीखता है। अब वह स्वतंत्र होने की राह पर होता है। बड़ा नहीं हुआ है परन्तु बनने की अनुभूति करता है। सोलह वर्ष का होते होते वह स्वतंत्र बुद्धि का हो जाता है। अब तक इंद्रियों, मन और बुद्धि का जितना भी विकास हुआ है उसके आधार पर अब वह जीवन का और जगत का अध्ययन स्वत: शुरू करता है। वह बुद्धि से स्वतंत्र है। अब उसे व्यवहार में भी स्वतंत्र होना है। अब उसकी आगे गृहस्थाश्रम चलाने की तैयारी शुरू होती है। वह अब बुद्धि से सीखता है, अहंकार के कारण अस्मिता जागृत होती है। कर्ताभाव जुड़ता है। अहंकार विधायक रहा तो दायित्वबोध भी जागृत होता है।
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गृहस्थाश्रम चलाने के लिये दो प्रकार की तैयारी उसे करनी है। एक है अथर्जिन की और दूसरी है विवाह की। एक के लिये उसे व्यवसाय निश्चित करना है और सीखना है। दूसरे के लिये उसे गृहस्थी कैसे चलती है यह सीखना है। एक विद्यालय में सीखा जाता है, दूसरा घर में । एक शिक्षकों से सीखना है, दूसरा मातापिता से । लगभग दस वर्ष यह तैयारी चलती है। फिर उसका विवाह होता है और दोनों बातें अर्थात्‌ गृहस्थी और अधथर्जिन शुरू होते हैं ।
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गृहस्थाश्रम चलाने के लिये दो प्रकार की तैयारी उसे करनी है। एक है अर्थार्जन की और दूसरी है विवाह की। एक के लिये उसे व्यवसाय निश्चित करना है और सीखना है। दूसरे के लिये उसे गृहस्थी कैसे चलती है यह सीखना है। एक विद्यालय में सीखा जाता है, दूसरा घर में । एक शिक्षकों से सीखना है, दूसरा मातापिता से । लगभग दस वर्ष यह तैयारी चलती है। फिर उसका विवाह होता है और दोनों बातें अर्थात्‌ गृहस्थी और अधथर्जिन शुरू होते हैं ।
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अब उसे विद्यालय में जाकर नहीं सीखना है। अब उसके सीखने के दो केंद्र हैं। एक है घर और दूसरा है समाज। अब वह अपने बड़ों से नई पीढ़ी को कैसे शिक्षा देना यह सीखता है। अपने कुल की रीत, समाज में कैसे रहना, यश और प्रतिष्ठा कैसे प्राप्त करना, अपने सामाजिक कर्तव्य कैसे निभाना आदि सीखता है । साथ ही अपने बालकों को शिक्षा भी देता है। अथर्जिन का स्थान भी बहुत कुछ सीखने का केंद्र है। वह अभ्यास से अपने व्यवसाय में माहिर होता जाता है, अनुभवी होता जाता है । सामाजिक कर्तव्य भी निभाता है। अपने मित्रों से सीखता है, अनुभवों से सीखता है । गलतियाँ करके भी सीखता है।
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अब उसे विद्यालय में जाकर नहीं सीखना है। अब उसके सीखने के दो केंद्र हैं। एक है घर और दूसरा है समाज। अब वह अपने बड़ों से नई पीढ़ी को कैसे शिक्षा देना यह सीखता है। अपने कुल की रीत, समाज में कैसे रहना, यश और प्रतिष्ठा कैसे प्राप्त करना, अपने सामाजिक कर्तव्य कैसे निभाना आदि सीखता है । साथ ही अपने बालकों को शिक्षा भी देता है। अर्थार्जन का स्थान भी बहुत कुछ सीखने का केंद्र है। वह अभ्यास से अपने व्यवसाय में माहिर होता जाता है, अनुभवी होता जाता है । सामाजिक कर्तव्य भी निभाता है। अपने मित्रों से सीखता है, अनुभवों से सीखता है । गलतियाँ करके भी सीखता है।
    
धीरे धीरे वह आयु में बढ़ता जाता है। अपने बच्चों की शिक्षा और भावी गृहस्थों की शिक्षा पूर्ण होते ही अपनी सांसारिक ज़िम्मेदारी पूर्ण करता है । संतानों के विवाह सम्पन्न होते ही वह वानप्रस्थी होने की तैयारी करता है। संसार के सभी दायित्व पूर्ण कर वह वानप्रस्थी बनता है । अब वह अपने बारे में चिंतन करता है, जीवन का मूल्यांकन करता है। अपने मन को अनासक्त बनाने का अभ्यास करता है । छोटों को मार्गदर्शन करता है । अधिकार छोड़ने की तैयारी करता है । उसकी बुद्धि परिपक्क और तटस्थ होती जाती है। अब वह सत्संग और उपदेश श्रवण से शिक्षा ग्रहण करता है। जीवन के अन्तिम पड़ाव में यदि विरक्त हुआ तो संन्यासी बनता है, नहीं तो घर में ही वानप्रस्थ जीवन जीता है। अपने पुत्रों को सहायता करता है । अपने मन को पूर्ण रूप से शान्त बनाता है । आगामी जन्म का चिंतन भी करता है । अपने इस जन्म का हिसाब कर भावी जन्म के लिये क्या साथ ले जाएगा इसका विचार करता है और एक दिन उसका इस जन्म का जीवन पूर्ण होता है।
 
धीरे धीरे वह आयु में बढ़ता जाता है। अपने बच्चों की शिक्षा और भावी गृहस्थों की शिक्षा पूर्ण होते ही अपनी सांसारिक ज़िम्मेदारी पूर्ण करता है । संतानों के विवाह सम्पन्न होते ही वह वानप्रस्थी होने की तैयारी करता है। संसार के सभी दायित्व पूर्ण कर वह वानप्रस्थी बनता है । अब वह अपने बारे में चिंतन करता है, जीवन का मूल्यांकन करता है। अपने मन को अनासक्त बनाने का अभ्यास करता है । छोटों को मार्गदर्शन करता है । अधिकार छोड़ने की तैयारी करता है । उसकी बुद्धि परिपक्क और तटस्थ होती जाती है। अब वह सत्संग और उपदेश श्रवण से शिक्षा ग्रहण करता है। जीवन के अन्तिम पड़ाव में यदि विरक्त हुआ तो संन्यासी बनता है, नहीं तो घर में ही वानप्रस्थ जीवन जीता है। अपने पुत्रों को सहायता करता है । अपने मन को पूर्ण रूप से शान्त बनाता है । आगामी जन्म का चिंतन भी करता है । अपने इस जन्म का हिसाब कर भावी जन्म के लिये क्या साथ ले जाएगा इसका विचार करता है और एक दिन उसका इस जन्म का जीवन पूर्ण होता है।

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