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शिक्षा व्यक्ति के लिये होती है इस कथन में तो कोई आश्चर्य नहीं है । वर्तमान में हम शिक्षा के जिस अर्थ से परिचित हैं वह है विद्यालय में जाकर जो पढ़ा जाता है वह ।परन्तु शिक्षा का यह अर्थ बहुत सीमित है । भारतीय परम्परा में एक व्यक्ति के लिये शिक्षा के बारे में जो समझा गया है उसके प्रमुख आयाम इस प्रकार हैं<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय ११, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>:
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शिक्षा व्यक्ति के लिये होती है इस कथन में तो कोई आश्चर्य नहीं है । वर्तमान में हम शिक्षा के जिस अर्थ से परिचित हैं वह है विद्यालय में जाकर जो पढ़ा जाता है वह ।परन्तु शिक्षा का यह अर्थ बहुत सीमित है । धार्मिक परम्परा में एक व्यक्ति के लिये शिक्षा के बारे में जो समझा गया है उसके प्रमुख आयाम इस प्रकार हैं<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय ११, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>:
    
== शिक्षा आजीवन चलती है ==
 
== शिक्षा आजीवन चलती है ==
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इस स्थिति में मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता से तात्पर्य यह है कि मनुष्य मूल रूप में आत्मतत्व ही है । केवल आत्मतत्व के स्वरूप में ही वह पूर्ण होता है । मनुष्य का जीवन लक्ष्य अपने आप को आत्मतत्व के रूप में जानने का है । यह जानने के लिये शिक्षा होती है ।
 
इस स्थिति में मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता से तात्पर्य यह है कि मनुष्य मूल रूप में आत्मतत्व ही है । केवल आत्मतत्व के स्वरूप में ही वह पूर्ण होता है । मनुष्य का जीवन लक्ष्य अपने आप को आत्मतत्व के रूप में जानने का है । यह जानने के लिये शिक्षा होती है ।
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अपने आपको आत्मतत्व के रूप में जानने की यह यात्रा जन्मजन्मांतर में चलती है। मनुष्य हर जन्म में इस यात्रा में आगे बढ़ता जाता है । मनुष्य इस जन्म में उस पूर्णता के अंश स्वरूप कुछ क्षमतायें लेकर आता है । शिक्षा इन क्षमताओं का प्रकटीकरण करती है । यही अंतर्निहित क्षमताओं का विकास है। मनुष्य की इस जन्म की अंतर्निहित क्षमताओं को उसकी विकास की संभावना कहा जाता है । अर्थात्‌ इस जन्म में कितना विकास होगा इसका आधार उसकी अंतर्निहित क्षमतायें कितनी हैं उसके ऊपर निर्भर होता है। मनुष्य की क्षमतायें कितनी हैं यह जानने से पूर्व मनुष्य का स्वरूप क्या है यह जानना आवश्यक है । मनुष्य की क्षमताओं के आयाम कौन से हैं यह जानना आवश्यक है । इस संदर्भ में भारतीय शास्त्रों में विभिन्न प्रकार से मनुष्य का जो वर्णन किया गया है उसके सार रूप में कहें तो मनुष्य का व्यक्तित्व पाँचआयामी है । ये पाँच आयाम इस प्रकार हैं:
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अपने आपको आत्मतत्व के रूप में जानने की यह यात्रा जन्मजन्मांतर में चलती है। मनुष्य हर जन्म में इस यात्रा में आगे बढ़ता जाता है । मनुष्य इस जन्म में उस पूर्णता के अंश स्वरूप कुछ क्षमतायें लेकर आता है । शिक्षा इन क्षमताओं का प्रकटीकरण करती है । यही अंतर्निहित क्षमताओं का विकास है। मनुष्य की इस जन्म की अंतर्निहित क्षमताओं को उसकी विकास की संभावना कहा जाता है । अर्थात्‌ इस जन्म में कितना विकास होगा इसका आधार उसकी अंतर्निहित क्षमतायें कितनी हैं उसके ऊपर निर्भर होता है। मनुष्य की क्षमतायें कितनी हैं यह जानने से पूर्व मनुष्य का स्वरूप क्या है यह जानना आवश्यक है । मनुष्य की क्षमताओं के आयाम कौन से हैं यह जानना आवश्यक है । इस संदर्भ में धार्मिक शास्त्रों में विभिन्न प्रकार से मनुष्य का जो वर्णन किया गया है उसके सार रूप में कहें तो मनुष्य का व्यक्तित्व पाँचआयामी है । ये पाँच आयाम इस प्रकार हैं:
 
* शरीर
 
* शरीर
 
* प्राण
 
* प्राण
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# यह अव्यक्त स्वरूप ही उसका सत्य स्वरूप है, मूल स्वरूप है ।
 
# यह अव्यक्त स्वरूप ही उसका सत्य स्वरूप है, मूल स्वरूप है ।
 
# शास्त्र कहते हैं कि अव्यक्त स्वरूप ही व्यक्त हुआ है। इसलिए व्यक्त और अव्यक्त ऐसे दो भेद नहीं हैं। अव्यक्त आत्मा ही शरीर, प्राण आदि में व्यक्त हुआ है । व्यक्त स्वरूप के मूल अव्यक्त स्वरूप की अनुभूति करना और उस अनुभूति के आधार पर इस जगत में व्यवहार करना यह ज्ञान है । सर्व शिक्षा का लक्ष्य इस ज्ञान को प्राप्त करना है । इस ज्ञान को ब्रह्मज्ञान कहते हैं । ज्ञान का अर्थ ही ब्रह्मज्ञान है। ब्रह्मज्ञान आत्मस्वरूप है। जिस प्रकार आत्मा शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त आदि के रूप में व्यक्त हुई है, उस प्रकार ब्रह्मज्ञान विभिन्न स्तरों पर जानकारी, विचार, भावना, विवेक आदि के रूप में प्रकट होता है । ज्ञान प्रकट होता है इसका अर्थ है ज्ञान प्राप्त होता है । अर्थात्‌ जगत का सर्व ज्ञान भी आत्मज्ञान अथवा ब्रह्मज्ञान का ही स्वरूप है ।
 
# शास्त्र कहते हैं कि अव्यक्त स्वरूप ही व्यक्त हुआ है। इसलिए व्यक्त और अव्यक्त ऐसे दो भेद नहीं हैं। अव्यक्त आत्मा ही शरीर, प्राण आदि में व्यक्त हुआ है । व्यक्त स्वरूप के मूल अव्यक्त स्वरूप की अनुभूति करना और उस अनुभूति के आधार पर इस जगत में व्यवहार करना यह ज्ञान है । सर्व शिक्षा का लक्ष्य इस ज्ञान को प्राप्त करना है । इस ज्ञान को ब्रह्मज्ञान कहते हैं । ज्ञान का अर्थ ही ब्रह्मज्ञान है। ब्रह्मज्ञान आत्मस्वरूप है। जिस प्रकार आत्मा शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त आदि के रूप में व्यक्त हुई है, उस प्रकार ब्रह्मज्ञान विभिन्न स्तरों पर जानकारी, विचार, भावना, विवेक आदि के रूप में प्रकट होता है । ज्ञान प्रकट होता है इसका अर्थ है ज्ञान प्राप्त होता है । अर्थात्‌ जगत का सर्व ज्ञान भी आत्मज्ञान अथवा ब्रह्मज्ञान का ही स्वरूप है ।
# भारतीय जीवनदृष्टि का और भारतीय शिक्षा का यह मूल सिद्धांत है । इसे ठीक से जानना भारतीय शिक्षा के स्वरूप को जानने के लिये समुचित प्रस्थान है । अब हम मनुष्य के अव्यक्त और व्यक्त रूप को जानने का प्रयास करेंगे ।
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# धार्मिक जीवनदृष्टि का और धार्मिक शिक्षा का यह मूल सिद्धांत है । इसे ठीक से जानना धार्मिक शिक्षा के स्वरूप को जानने के लिये समुचित प्रस्थान है । अब हम मनुष्य के अव्यक्त और व्यक्त रूप को जानने का प्रयास करेंगे ।
    
== आत्मतत्व ==
 
== आत्मतत्व ==
आत्मा की संकल्पना भारतीय विचारविश्व की खास संकल्पना है। यह मूल आधार है। इसके आधार पर जो रचना, व्यवस्था या व्यवहार किया जाता है वही रचना, व्यवस्था या व्यवहार आध्यात्मिक कहा जाता है। भारत में ऐसा ही किया जाता है इसलिये भारत की विश्व में पहचान आध्यात्मिक देश की है। यह आत्मतत्व न केवल मनुष्य का अपितु सृष्टि में जो जो भी इन्द्रियगम्य, मनोगम्य, बुद्धिगम्य या चित्तगम्य है उसका मूल रूप है। आँख, कान, नाक, त्वचा और जीभ हमारी ज्ञानेंद्रियाँ हैं । हाथ, पैर, वाक, पायु और उपस्थ हमारी कर्मेन्द्रियाँ हैं। ज्ञानेन्द्रियों से हम बाहरी जगत को संवेदनाओं के रूप में ग्रहण करते हैं अर्थात बाहरी जगत का अनुभव करते हैं। कर्मेन्द्रियों से हम क्रिया करते हैं। क्रिया करके हम बहुत सारी बातें जानते हैं और जानना प्रकट भी करते हैं । इंद्रियों से जो जो जाना जाता है वह इन्द्रियगम्य है। उदाहरण के लिये सृष्टि में विविध प्रकार के रंग हैं, विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट पदार्थ हैं, विविध प्रकार की ध्वनियाँ हैं । उनका ज्ञान हमें क्रमश: आँख, जीभ और कान से ही हो सकता है । बोलना और गाना वाक से ही हो सकता है। यह सब इन्द्रियगम्य ज्ञान है। पदार्थों, व्यक्तियों घटनाओं आदि के प्रति हमारा जो रुचि अरुचि, हर्ष शोक आदि का भाव बनता है वह मनोगम्य है। पदार्थों में साम्य और भेद, कार्यकारण संबंध आदि का ज्ञान बुद्धिगम्य है । यह मैं करता हूँ, इसका फल मैं भुगत रहा हूँ इस बात का ज्ञान अहंकार को होता है। यह अहंकारगम्य ज्ञान है। इंद्रियों, मन, अहंकार , बुद्धि आदि के द्वारा हम विविध स्तरों पर जो ज्ञान प्राप्त करते हैं वह सब आत्मज्ञान का ही स्वरूप है क्योंकि आत्मा स्वयं इनके रूप में व्यक्त हुआ है।
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आत्मा की संकल्पना धार्मिक विचारविश्व की खास संकल्पना है। यह मूल आधार है। इसके आधार पर जो रचना, व्यवस्था या व्यवहार किया जाता है वही रचना, व्यवस्था या व्यवहार आध्यात्मिक कहा जाता है। भारत में ऐसा ही किया जाता है इसलिये भारत की विश्व में पहचान आध्यात्मिक देश की है। यह आत्मतत्व न केवल मनुष्य का अपितु सृष्टि में जो जो भी इन्द्रियगम्य, मनोगम्य, बुद्धिगम्य या चित्तगम्य है उसका मूल रूप है। आँख, कान, नाक, त्वचा और जीभ हमारी ज्ञानेंद्रियाँ हैं । हाथ, पैर, वाक, पायु और उपस्थ हमारी कर्मेन्द्रियाँ हैं। ज्ञानेन्द्रियों से हम बाहरी जगत को संवेदनाओं के रूप में ग्रहण करते हैं अर्थात बाहरी जगत का अनुभव करते हैं। कर्मेन्द्रियों से हम क्रिया करते हैं। क्रिया करके हम बहुत सारी बातें जानते हैं और जानना प्रकट भी करते हैं । इंद्रियों से जो जो जाना जाता है वह इन्द्रियगम्य है। उदाहरण के लिये सृष्टि में विविध प्रकार के रंग हैं, विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट पदार्थ हैं, विविध प्रकार की ध्वनियाँ हैं । उनका ज्ञान हमें क्रमश: आँख, जीभ और कान से ही हो सकता है । बोलना और गाना वाक से ही हो सकता है। यह सब इन्द्रियगम्य ज्ञान है। पदार्थों, व्यक्तियों घटनाओं आदि के प्रति हमारा जो रुचि अरुचि, हर्ष शोक आदि का भाव बनता है वह मनोगम्य है। पदार्थों में साम्य और भेद, कार्यकारण संबंध आदि का ज्ञान बुद्धिगम्य है । यह मैं करता हूँ, इसका फल मैं भुगत रहा हूँ इस बात का ज्ञान अहंकार को होता है। यह अहंकारगम्य ज्ञान है। इंद्रियों, मन, अहंकार , बुद्धि आदि के द्वारा हम विविध स्तरों पर जो ज्ञान प्राप्त करते हैं वह सब आत्मज्ञान का ही स्वरूप है क्योंकि आत्मा स्वयं इनके रूप में व्यक्त हुआ है।
    
शास्त्र कहता है कि इंद्रिय, मन, बुद्धि आदि ज्ञान प्राप्त करने वाले करण, जिनका ज्ञान प्राप्त करते हैं वे सारे पदार्थ, जो प्राप्त होता है वह अनुभव, सब मूल रूप में आत्मा ही है । इस त्रिपुटी को अर्थात्‌ ज्ञाता, जय और ज्ञान तीनों को आत्मतत्व ही कहा गया है । आत्मतत्व अपने अव्यक्त रूप में अजर अर्थात्‌ जो कभी वृद्ध नहीं होता, अक्षर अर्थात्‌ जिसका कभी क्षरण नहीं होता, अचिंत्य अर्थात्‌ जिसका चिंतन नहीं किया जा सकता, अविनाशी अर्थात्‌ जिसका कभी विनाश नहीं होता, अनादि अर्थात्‌ जिसका कोई प्रारम्भ नहीं है, अनंत अर्थात्‌ जिसका कोई अन्त नहीं है ऐसा एकमेवाद्धितीय है। वह अदृश्य, अस्पर्श्य, अश्राव्य है। वह अपरिवर्तनशील है। वह निर्गुण है। वह निराकार है। परन्तु सारे गुण,सारे आकार, सारे इंद्रिय, मन, बुद्धि आदि तथा वृक्ष वनस्पति प्राणी आदि सब उसमें समाये हुए हैं । इसलिये उसका वर्णन वह है भी और नहीं भी इस प्रकार किया जाता है।
 
शास्त्र कहता है कि इंद्रिय, मन, बुद्धि आदि ज्ञान प्राप्त करने वाले करण, जिनका ज्ञान प्राप्त करते हैं वे सारे पदार्थ, जो प्राप्त होता है वह अनुभव, सब मूल रूप में आत्मा ही है । इस त्रिपुटी को अर्थात्‌ ज्ञाता, जय और ज्ञान तीनों को आत्मतत्व ही कहा गया है । आत्मतत्व अपने अव्यक्त रूप में अजर अर्थात्‌ जो कभी वृद्ध नहीं होता, अक्षर अर्थात्‌ जिसका कभी क्षरण नहीं होता, अचिंत्य अर्थात्‌ जिसका चिंतन नहीं किया जा सकता, अविनाशी अर्थात्‌ जिसका कभी विनाश नहीं होता, अनादि अर्थात्‌ जिसका कोई प्रारम्भ नहीं है, अनंत अर्थात्‌ जिसका कोई अन्त नहीं है ऐसा एकमेवाद्धितीय है। वह अदृश्य, अस्पर्श्य, अश्राव्य है। वह अपरिवर्तनशील है। वह निर्गुण है। वह निराकार है। परन्तु सारे गुण,सारे आकार, सारे इंद्रिय, मन, बुद्धि आदि तथा वृक्ष वनस्पति प्राणी आदि सब उसमें समाये हुए हैं । इसलिये उसका वर्णन वह है भी और नहीं भी इस प्रकार किया जाता है।

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