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१. ब्रिटीश ईस्ट इण्डिया कम्पनी नामक व्यापारी संस्थान के रूप में सन १६०० अर्थात्‌ सत्रहवीं शताब्दी के प्रारूभ में भारत में आये । १९४७ तक रहे । भारत में व्यापार करना और विपुल धन कमाना उनका उद्देश्य था । येन केन प्रकारेण धन कमाना उनकी रीत थी । उसे ही वे नीति भी कहते थे । उनकी धन कमाने की नीतिरीति को लूट ही कहा जा सकता है ऐसे उनके कारनामे थे ।
 
१. ब्रिटीश ईस्ट इण्डिया कम्पनी नामक व्यापारी संस्थान के रूप में सन १६०० अर्थात्‌ सत्रहवीं शताब्दी के प्रारूभ में भारत में आये । १९४७ तक रहे । भारत में व्यापार करना और विपुल धन कमाना उनका उद्देश्य था । येन केन प्रकारेण धन कमाना उनकी रीत थी । उसे ही वे नीति भी कहते थे । उनकी धन कमाने की नीतिरीति को लूट ही कहा जा सकता है ऐसे उनके कारनामे थे ।
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२. दूसरा उद्देश्य था राज्यसत्ता प्राप्त करने का । इसे लूट का आनुषंगिक उद्देश्य भी कह सकते हैं क्योंकि सत्ता प्राप्त करने से लुट निर्विघ्न हो जाती है । वे शासक थे भारत में जहाँ जहाँ ब्रिटिश राज हुआ उसभाग को ब्रिटीश इण्डिया कहा जाता था । सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से उन्होंने राज्यों में दखल देना शुरू किया और १८५७ तक भारत के बडे हिस्से पर कब्जा तो कर लिया परन्तु १८५७ के स्वातन्त्रय संग्राम में उन्होंने जो मार खाई उसके परिणाम स्वरूप १८५८ से भारत सीधे रानी विक्टोरिया के अर्थात्‌ ब्रिटीश शासन के अन्तर्गत चला गया । १८५८ से १९४७ तक रानी का राज था ।
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२. दूसरा उद्देश्य था राज्यसत्ता प्राप्त करने का । इसे लूट का आनुषंगिक उद्देश्य भी कह सकते हैं क्योंकि सत्ता प्राप्त करने से लुट निर्विघ्न हो जाती है । वे शासक थे भारत में जहाँ जहाँ ब्रिटिश राज हुआ उसभाग को ब्रिटीश इण्डिया कहा जाता था । सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से उन्होंने राज्यों में दखल देना आरम्भ किया और १८५७ तक भारत के बडे हिस्से पर कब्जा तो कर लिया परन्तु १८५७ के स्वातन्त्रय संग्राम में उन्होंने जो मार खाई उसके परिणाम स्वरूप १८५८ से भारत सीधे रानी विक्टोरिया के अर्थात्‌ ब्रिटीश शासन के अन्तर्गत चला गया । १८५८ से १९४७ तक रानी का राज था ।
    
३. भारत का इसाईकरण करना उनका तीसरा उद्देश्य था । इस कार्य में उन्हें ईस्ट इण्डिया कम्पनी की और ब्रिटीश राज्य की प्रगट और प्रच्छन्न दोनों रूप से सहायता मिलती थी ।
 
३. भारत का इसाईकरण करना उनका तीसरा उद्देश्य था । इस कार्य में उन्हें ईस्ट इण्डिया कम्पनी की और ब्रिटीश राज्य की प्रगट और प्रच्छन्न दोनों रूप से सहायता मिलती थी ।
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५. ये चारों उद्देश्य एकदूसरे से जुडे हुए हैं परन्तु उनका केन्द्रवर्ती उद्देश्य धन की लूट ही है । लूट का मार्ग प्रशस्त करने हेतु शेष तीनों का अवलम्बन किया गया है। इन चारों के भारत पर जो परिणाम हुए उनमें सबसे विनाशक और दूरगामी परिणाम यूरोपीकरण का है । आज भी हम उससे मुक्त नहीं हुए हैं ।
 
५. ये चारों उद्देश्य एकदूसरे से जुडे हुए हैं परन्तु उनका केन्द्रवर्ती उद्देश्य धन की लूट ही है । लूट का मार्ग प्रशस्त करने हेतु शेष तीनों का अवलम्बन किया गया है। इन चारों के भारत पर जो परिणाम हुए उनमें सबसे विनाशक और दूरगामी परिणाम यूरोपीकरण का है । आज भी हम उससे मुक्त नहीं हुए हैं ।
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६. भारत की समृद्धि की लूट तो हुई परन्तु उसके बाद भी भारत की समृद्धि का सर्वनाश नहीं हुआ क्योंकि उसके स्रोत बने रहे । राज्यसत्ता ग्रहण की परन्तु १९४७ में उन्हें सत्ता छोडनी पडी और जाना पडा । उन्होंने इसाईकरण करना शुरू किया, अनेक लोगों को इसाई बनाया, आज भी इसाईकरण का काम अनेक मिशनों के माध्यम से चल रहा है परन्तु सारा भारत इसाई नहीं हुआ है यह तो हम देख ही रहे हैं ।
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६. भारत की समृद्धि की लूट तो हुई परन्तु उसके बाद भी भारत की समृद्धि का सर्वनाश नहीं हुआ क्योंकि उसके स्रोत बने रहे । राज्यसत्ता ग्रहण की परन्तु १९४७ में उन्हें सत्ता छोडनी पडी और जाना पडा । उन्होंने इसाईकरण करना आरम्भ किया, अनेक लोगों को इसाई बनाया, आज भी इसाईकरण का काम अनेक मिशनों के माध्यम से चल रहा है परन्तु सारा भारत इसाई नहीं हुआ है यह तो हम देख ही रहे हैं ।
    
७. परन्तु यूरोपीकरण का परिणाम बहुत विनाशकारी हुआ । सम्पूर्ण भारत उस दुष्चक्र के आज भी फँसा हुआ हैं और यातना भुगत रहा है । इस उद्देश्य में सौ प्रतिशत तो नहीं परन्तु लगभग सत्तर प्रतिशत तो सफलता उन्हें मिली है। उनकी सफलता से भी अधिक चिन्ता की बात हमारी रोगग्रस्तता की है । यूरोपीकरण के रोग से मुक्त होना १९४७ की राजकीय मुक्ति से भी कठिन चुनौती है ।
 
७. परन्तु यूरोपीकरण का परिणाम बहुत विनाशकारी हुआ । सम्पूर्ण भारत उस दुष्चक्र के आज भी फँसा हुआ हैं और यातना भुगत रहा है । इस उद्देश्य में सौ प्रतिशत तो नहीं परन्तु लगभग सत्तर प्रतिशत तो सफलता उन्हें मिली है। उनकी सफलता से भी अधिक चिन्ता की बात हमारी रोगग्रस्तता की है । यूरोपीकरण के रोग से मुक्त होना १९४७ की राजकीय मुक्ति से भी कठिन चुनौती है ।
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२७. व्यक्ति केन्ट्रितता के साथ ही दूसरा है भौतिकवाद । भौतिकवाद के कारण हम देहात्मवादी भी हैं । इसलिये समृद्धि की कल्पना भौतिक है । समृद्धि का मूल प्रेरक तत्त्व काम है । हम कामपूर्ति को मुख्य और केन्द्रवर्ती पुरुषार्थ मानने लगे । इससे उपभोग प्रधान जीवनशैली स्वाभाविक बन गई । अधिकाधिक उपभोग में सुख की अधिकता मानने लगे, भले ही प्रत्यक्ष कष्टों का अनुभव कर रहे हों । कामपूर्ति हेतु सामग्री जुटाना अर्थपुरुषार्थ का पर्याय बन गया । अधिकतम सामग्री जुटाने को सफलता मानने लगे और यह सफलता विकास का पर्याय बन गई । इसे हमने विकास का सिद्धान्त बना लिया । बुद्धि के भटकने का यह स्पष्ट लक्षण है ।
 
२७. व्यक्ति केन्ट्रितता के साथ ही दूसरा है भौतिकवाद । भौतिकवाद के कारण हम देहात्मवादी भी हैं । इसलिये समृद्धि की कल्पना भौतिक है । समृद्धि का मूल प्रेरक तत्त्व काम है । हम कामपूर्ति को मुख्य और केन्द्रवर्ती पुरुषार्थ मानने लगे । इससे उपभोग प्रधान जीवनशैली स्वाभाविक बन गई । अधिकाधिक उपभोग में सुख की अधिकता मानने लगे, भले ही प्रत्यक्ष कष्टों का अनुभव कर रहे हों । कामपूर्ति हेतु सामग्री जुटाना अर्थपुरुषार्थ का पर्याय बन गया । अधिकतम सामग्री जुटाने को सफलता मानने लगे और यह सफलता विकास का पर्याय बन गई । इसे हमने विकास का सिद्धान्त बना लिया । बुद्धि के भटकने का यह स्पष्ट लक्षण है ।
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२८. भौतिकता को आधार मानने से दिशा उल्टी हो गई । अब हमें यह समझ में नहीं आता कि आत्मतत्त्व ने सृष्टिरप बनकर जब अपने आपका विस्तार शुरू किया तब उसका अन्तिम छोर पंचमहाभूतात्मक स्थूल जगत था । आधार और मूल आत्मतत्त्व है, महाभूत नहीं । केवल बुद्धि से ही समझें तो भी आत्मतत्त्व को अधिष्ठान मानने से जीवन और जगत के सभी व्यवहारों का खुलासा होता है, भौतिकता को मानने से नहीं होता यह समझना सरल है । परन्तु हमारी बुद्धि आत्मतत्त्व तक पहुँचती ही नहीं है । आत्मतत्व के प्रकाश में सबकुछ देखने से सबकुछ सरल हो जाता है यही स्वीकार्य नहीं होता । “आत्मा' या “आत्मतत्त्व' का स्वीकार किया भी तो उसे बुद्धि से असम्बन्धित ऐसा कुछ मानने लगते है ।
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२८. भौतिकता को आधार मानने से दिशा उल्टी हो गई । अब हमें यह समझ में नहीं आता कि आत्मतत्त्व ने सृष्टिरप बनकर जब अपने आपका विस्तार आरम्भ किया तब उसका अन्तिम छोर पंचमहाभूतात्मक स्थूल जगत था । आधार और मूल आत्मतत्त्व है, महाभूत नहीं । केवल बुद्धि से ही समझें तो भी आत्मतत्त्व को अधिष्ठान मानने से जीवन और जगत के सभी व्यवहारों का खुलासा होता है, भौतिकता को मानने से नहीं होता यह समझना सरल है । परन्तु हमारी बुद्धि आत्मतत्त्व तक पहुँचती ही नहीं है । आत्मतत्व के प्रकाश में सबकुछ देखने से सबकुछ सरल हो जाता है यही स्वीकार्य नहीं होता । “आत्मा' या “आत्मतत्त्व' का स्वीकार किया भी तो उसे बुद्धि से असम्बन्धित ऐसा कुछ मानने लगते है ।
    
=== संकल्पनात्मक शब्द ===
 
=== संकल्पनात्मक शब्द ===

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