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भारत में वैश्विकता का आकर्षण कुछ अधिक हीं दिखाई देता है। भाषा से लेकर सम्पूर्ण जीवनशैली में अधार्मिकता की छाप दिखाई देती है। इसलिए इस विषय में जरा स्पष्टता करने की आवश्यकता है। इस वैश्विकता का मूल कहाँ है यह जानना बहुत उपयोगी रहेगा।   
 
भारत में वैश्विकता का आकर्षण कुछ अधिक हीं दिखाई देता है। भाषा से लेकर सम्पूर्ण जीवनशैली में अधार्मिकता की छाप दिखाई देती है। इसलिए इस विषय में जरा स्पष्टता करने की आवश्यकता है। इस वैश्विकता का मूल कहाँ है यह जानना बहुत उपयोगी रहेगा।   
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पांच सौ वर्ष पूर्व यूरोप के देशों ने विश्वयात्रा शुरू की। विश्व के पूर्वी देशों की समृद्धि का उन्हें आकर्षण था। उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में तथाकथित औद्योगिक क्रान्ति हुई। यन्त्रों का आविष्कार हुआ, बड़े बड़े कारखानों में विपुल मात्रा में उत्पादन होने लगा। इन उत्पादनों के लिये उन देशों को बाजार चाहिये था। उससे भी पूर्व यूरोप के देशों ने अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये। अठारहवीं शताब्दी में अमेरीका स्वतन्त्र देश हो गया। इसके बाद अफ्रीका और एशिया के देशों में बाजार स्थापित करने का कार्य और तेज गति से शुरू हुआ। सत्रहवीं शताब्दी में भारत में ब्रिटिश राज स्थापित होने लगा। ब्रिटीशों का मुख्य उद्देश्य भारत की समृद्धि को लूटना ही था। इस कारण से भारत में लूट और अत्याचार का दौर चला। पश्चिम का चिन्तन अर्थनिष्ठ था। आज भी है। इसलिए पश्चिम को अब विश्वभर में आर्थिक साम्राज्य स्थापित करना है इस उद्देश्य से यह वैश्वीकरण की योजना हो रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्वबैंक आदि उसके साधन हैं। विज्ञापन, करार, विश्वव्यापार संगठन आदि उसके माध्यम हैं। भारत को वैश्विकता का बहुत आकर्षण है। परन्तु आज जिस वैश्विकता का प्रचार चल रहा है वह आर्थिक है। जबकि भारत की वैश्विकता सांस्कृतिक है। यह अन्तर हमें समझ लेना चाहिये।   
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पांच सौ वर्ष पूर्व यूरोप के देशों ने विश्वयात्रा आरम्भ की। विश्व के पूर्वी देशों की समृद्धि का उन्हें आकर्षण था। उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में तथाकथित औद्योगिक क्रान्ति हुई। यन्त्रों का आविष्कार हुआ, बड़े बड़े कारखानों में विपुल मात्रा में उत्पादन होने लगा। इन उत्पादनों के लिये उन देशों को बाजार चाहिये था। उससे भी पूर्व यूरोप के देशों ने अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये। अठारहवीं शताब्दी में अमेरीका स्वतन्त्र देश हो गया। इसके बाद अफ्रीका और एशिया के देशों में बाजार स्थापित करने का कार्य और तेज गति से आरम्भ हुआ। सत्रहवीं शताब्दी में भारत में ब्रिटिश राज स्थापित होने लगा। ब्रिटीशों का मुख्य उद्देश्य भारत की समृद्धि को लूटना ही था। इस कारण से भारत में लूट और अत्याचार का दौर चला। पश्चिम का चिन्तन अर्थनिष्ठ था। आज भी है। इसलिए पश्चिम को अब विश्वभर में आर्थिक साम्राज्य स्थापित करना है इस उद्देश्य से यह वैश्वीकरण की योजना हो रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्वबैंक आदि उसके साधन हैं। विज्ञापन, करार, विश्वव्यापार संगठन आदि उसके माध्यम हैं। भारत को वैश्विकता का बहुत आकर्षण है। परन्तु आज जिस वैश्विकता का प्रचार चल रहा है वह आर्थिक है। जबकि भारत की वैश्विकता सांस्कृतिक है। यह अन्तर हमें समझ लेना चाहिये।   
    
भारत ने भी प्राचीन समय से निरन्तर विश्वयात्रा की। भारत के लोग अपने साथ ज्ञान, कारीगरी, कौशल लेकर गये हैं। विश्व के देशों को उन्होंने कलाकारी की विद्यार्ये सिखाई हैं। विश्व के हर देश में आज भी भारत की संस्कृति के अवशेष मिलते हैं। पश्चिम जहां भी गया अपने साथ उसने गुलामी, अत्याचार, पंथपरिवर्तन, लूट का कहर ढाया। भारत जहां भी गया अपने साथ ज्ञान, संस्कार और विद्या लेकर गया।   
 
भारत ने भी प्राचीन समय से निरन्तर विश्वयात्रा की। भारत के लोग अपने साथ ज्ञान, कारीगरी, कौशल लेकर गये हैं। विश्व के देशों को उन्होंने कलाकारी की विद्यार्ये सिखाई हैं। विश्व के हर देश में आज भी भारत की संस्कृति के अवशेष मिलते हैं। पश्चिम जहां भी गया अपने साथ उसने गुलामी, अत्याचार, पंथपरिवर्तन, लूट का कहर ढाया। भारत जहां भी गया अपने साथ ज्ञान, संस्कार और विद्या लेकर गया।   
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संस्कृति, जो निराकार रूपी है, को प्रकट करने के लिए कोई माध्यम चाहिए; जैसे बिजली को प्रकट करने के लिए किसी धातु की तार। उसी प्रकार जीवन में संस्कृति को प्रगट और प्रयोजक बनाने के लिए अन्यान्य माध्यमों की आवश्यकता पड़ती है। वे माध्यम दो प्रकार के हैं - गुणात्मक और रूपात्मक। आचार, अनुष्ठान, धरोहर, परम्परा, रीति रिवाज, शिक्षा आदि गुणात्मक माध्यम हैं। उनका कोई स्थूल रूप नहीं है फिर भी वे प्रभावकारी माध्यम हैं। उनको प्रयोग में लाने के लिए प्राणवानू साधन हैं आचार्य, दार्शनिक, महापुरुष, नेतागण, चरित्रवान्‌ सज्जनगण आदि तथा वस्तु निर्माण, वस्तु संग्रह आदि दूसरे प्रकार के माध्यम हैं। उनके कर्मेन्द्रिय हैं विज्ञान, शिल्पशास्त्र, वास्तुकला, हस्तकौशल, सृष्टिशीलता आदि।
 
संस्कृति, जो निराकार रूपी है, को प्रकट करने के लिए कोई माध्यम चाहिए; जैसे बिजली को प्रकट करने के लिए किसी धातु की तार। उसी प्रकार जीवन में संस्कृति को प्रगट और प्रयोजक बनाने के लिए अन्यान्य माध्यमों की आवश्यकता पड़ती है। वे माध्यम दो प्रकार के हैं - गुणात्मक और रूपात्मक। आचार, अनुष्ठान, धरोहर, परम्परा, रीति रिवाज, शिक्षा आदि गुणात्मक माध्यम हैं। उनका कोई स्थूल रूप नहीं है फिर भी वे प्रभावकारी माध्यम हैं। उनको प्रयोग में लाने के लिए प्राणवानू साधन हैं आचार्य, दार्शनिक, महापुरुष, नेतागण, चरित्रवान्‌ सज्जनगण आदि तथा वस्तु निर्माण, वस्तु संग्रह आदि दूसरे प्रकार के माध्यम हैं। उनके कर्मेन्द्रिय हैं विज्ञान, शिल्पशास्त्र, वास्तुकला, हस्तकौशल, सृष्टिशीलता आदि।
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उपर्युक्त माध्यमों द्वारा उनके कर्मशील सहायकों के सहयोग से जब संस्कृति अधिकाधिक प्रगट हो जाती है, तब उस विशेष स्थिति को सभ्यता कहते हैं। शुचिता सांस्कृतिक मूल्यों में एक है। वह मानव का अनिवार्य गुण है। उसके लिए अपना निवास स्थान स्वच्छ रहना आवश्यक है। उसके लिए मानव ने आद्य दिनों में घोड़े जैसे जानवरों की पूँछ से जमीन झाड़ दी होगी। अथवा जंगल के पेड़ों की छालों से या पुराने फटे कपड़ों से जमीन पोंछ दी होगी। शनैः शनै: उसने केवल उस काम के लिए एक साधन का आविष्कार किया और जमीन झाड़कर साफ करने के लिए झाड़ू नाम का साधन प्रकट हुआ। जंगल में या अपने गाँव में उपलब्ध योग्य चीज से मानव ने झाड़ू बनाना शुरू किया। शुचिता को बनाए रखने के लिए एक विशेष साधन मानव के लौकिक जीवन में प्रविष्ट हुआ।
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उपर्युक्त माध्यमों द्वारा उनके कर्मशील सहायकों के सहयोग से जब संस्कृति अधिकाधिक प्रगट हो जाती है, तब उस विशेष स्थिति को सभ्यता कहते हैं। शुचिता सांस्कृतिक मूल्यों में एक है। वह मानव का अनिवार्य गुण है। उसके लिए अपना निवास स्थान स्वच्छ रहना आवश्यक है। उसके लिए मानव ने आद्य दिनों में घोड़े जैसे जानवरों की पूँछ से जमीन झाड़ दी होगी। अथवा जंगल के पेड़ों की छालों से या पुराने फटे कपड़ों से जमीन पोंछ दी होगी। शनैः शनै: उसने केवल उस काम के लिए एक साधन का आविष्कार किया और जमीन झाड़कर साफ करने के लिए झाड़ू नाम का साधन प्रकट हुआ। जंगल में या अपने गाँव में उपलब्ध योग्य चीज से मानव ने झाड़ू बनाना आरम्भ किया। शुचिता को बनाए रखने के लिए एक विशेष साधन मानव के लौकिक जीवन में प्रविष्ट हुआ।
    
बिजली आयी, विज्ञान आगे बढ़ा, और झाड़ू के बदले आया “डस्टर'। घोड़े की पूँढ से "डस्टर" तक की यात्रा सभ्यता की है। इस सभ्यता का प्राणरूपी सांस्कृतिक मूल्य शुचिता है जो कभी नहीं बदला, स्थिर रहा।
 
बिजली आयी, विज्ञान आगे बढ़ा, और झाड़ू के बदले आया “डस्टर'। घोड़े की पूँढ से "डस्टर" तक की यात्रा सभ्यता की है। इस सभ्यता का प्राणरूपी सांस्कृतिक मूल्य शुचिता है जो कभी नहीं बदला, स्थिर रहा।
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== शिक्षा ==
 
== शिक्षा ==
शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ श्वास के समान ही जुड़ी हुई है। अच्छी या बुरी, शिक्षा के बिना मनुष्य का अस्तित्व ही नहीं है। वह चाहे या न चाहे शिक्षा ग्रहण किये बिना वह रह ही नहीं सकता। इस जन्म के जीवन के लिये वह माता की कोख में पदार्पण करता है और उसका सीखना शुरू हो जाता है। संस्कारों के रूप में वह सीखता है। जन्म होता है और उसका शरीर क्रियाशील हो जाता है। वह प्रयोजन के या बिना प्रयोजन के कुछ न कुछ करता ही रहता है। उसकी ज्ञानेन्द्रियों पर बाहरी वातावरण से असंख्य अनुभव पड़ते ही रहते हैं। उनसे वह सीखे बिना रह नहीं सकता। आसपास की दुनिया का हर तरह का व्यवहार उसे सीखाता ही रहता है। विकास करने की, बड़ा बनने की अंतरतम इच्छा उसे अन्दर से ही कुछ न कुछ करने के लिए प्रेरित करती रहती है। अंदर की प्रेरणा और बाहर के सम्पर्क ऐसे उसका मानसिक पिण्ड बनाते ही रहते हैं। वह न केवल अनुभव करता है, वह प्रतिसाद भी देता है क्योंकि वह विचार करता है। यह उसके विकास का सहज क्रम है। मनुष्य की यह सहज प्रवृत्ति है।
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शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ श्वास के समान ही जुड़ी हुई है। अच्छी या बुरी, शिक्षा के बिना मनुष्य का अस्तित्व ही नहीं है। वह चाहे या न चाहे शिक्षा ग्रहण किये बिना वह रह ही नहीं सकता। इस जन्म के जीवन के लिये वह माता की कोख में पदार्पण करता है और उसका सीखना आरम्भ हो जाता है। संस्कारों के रूप में वह सीखता है। जन्म होता है और उसका शरीर क्रियाशील हो जाता है। वह प्रयोजन के या बिना प्रयोजन के कुछ न कुछ करता ही रहता है। उसकी ज्ञानेन्द्रियों पर बाहरी वातावरण से असंख्य अनुभव पड़ते ही रहते हैं। उनसे वह सीखे बिना रह नहीं सकता। आसपास की दुनिया का हर तरह का व्यवहार उसे सीखाता ही रहता है। विकास करने की, बड़ा बनने की अंतरतम इच्छा उसे अन्दर से ही कुछ न कुछ करने के लिए प्रेरित करती रहती है। अंदर की प्रेरणा और बाहर के सम्पर्क ऐसे उसका मानसिक पिण्ड बनाते ही रहते हैं। वह न केवल अनुभव करता है, वह प्रतिसाद भी देता है क्योंकि वह विचार करता है। यह उसके विकास का सहज क्रम है। मनुष्य की यह सहज प्रवृत्ति है।
    
परमात्मा ने मनुष्य को केवल शरीर ही नहीं दिया है, परमात्मा ने उसे सक्रिय अन्त:करण भी दिया है। जिज्ञासा उसके स्वभाव का लक्षण है। संस्कार ग्रहण करना उसका सहज कार्य है। विचार करते ही रहना उसकी सहज प्रवृत्ति | है। "यह सब मैं कर रहा है, यह मुझे चाहिये, यह मेरे लिए है", ऐसा अहंभाव उसमें अभिमान जागृत करता है। ये सब उसके सीखने के ही तो साधन हैं। ये सब हैं इसका अर्थ ही यह है कि सीखना उसके लिए स्वाभाविक है, अनिवार्य है।
 
परमात्मा ने मनुष्य को केवल शरीर ही नहीं दिया है, परमात्मा ने उसे सक्रिय अन्त:करण भी दिया है। जिज्ञासा उसके स्वभाव का लक्षण है। संस्कार ग्रहण करना उसका सहज कार्य है। विचार करते ही रहना उसकी सहज प्रवृत्ति | है। "यह सब मैं कर रहा है, यह मुझे चाहिये, यह मेरे लिए है", ऐसा अहंभाव उसमें अभिमान जागृत करता है। ये सब उसके सीखने के ही तो साधन हैं। ये सब हैं इसका अर्थ ही यह है कि सीखना उसके लिए स्वाभाविक है, अनिवार्य है।
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# शिक्षा सभी प्रश्नों का हल ज्ञानात्मक मार्ग से निकालने के लिए है।
 
# शिक्षा सभी प्रश्नों का हल ज्ञानात्मक मार्ग से निकालने के लिए है।
 
# शिक्षा मुक्ति के मार्ग पर ले जाती है।
 
# शिक्षा मुक्ति के मार्ग पर ले जाती है।
यह शिक्षा का धार्मिक दर्शन है। भारत में इसी के अनुसार शिक्षा चलती रही है। हर युग में, हर पीढ़ी में शिक्षकों तथा विचारों को अपनी पद्धति से इसे समझना होता है और अपनी वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार उसे ढालना होता है। प्रकृति परिवर्तनशील है इसलिए तंत्र में परिवर्तन होता रहता है। तत्व को अपरिवर्तनीय रखते हुए यह परिवर्तन करना होता है। परन्तु वर्तमान समय में भारत में जो परिवर्तन हुआ है वह स्वाभाविक नहीं है। यह परिवर्तन ऐसा है कि शिक्षा को अधार्मिक कहने की नौबत आ गई है। शिक्षा का अधार्मिककरण दो शतकों से चल रहा है। शुरू हुआ तबसे उसे रोकने का प्रयास नहीं हुआ ऐसा तो नहीं है परन्तु दैवदुर्विलास से उसे रोकना बहुत संभव नहीं हुआ है। आज अधार्मिककरण भारत की मुख्य धारा की शिक्षा में अंतरबाह्य घुल गया है। यह घुलना ऐसा है कि शिक्षा अधार्मिक है ऐसा सामान्यजन और अभिजातजन को लगता भी नहीं है। देश उसके अनुसार चलता है। इसे युगानुकूल परिवर्तन नहीं कहा जा सकता क्योंकि राष्ट्रीय जीवन के सारे संकट उसमें से जन्म लेते हैं। इसलिए शिक्षा के धार्मिककरण का मुद्दा बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है।
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यह शिक्षा का धार्मिक दर्शन है। भारत में इसी के अनुसार शिक्षा चलती रही है। हर युग में, हर पीढ़ी में शिक्षकों तथा विचारों को अपनी पद्धति से इसे समझना होता है और अपनी वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार उसे ढालना होता है। प्रकृति परिवर्तनशील है इसलिए तंत्र में परिवर्तन होता रहता है। तत्व को अपरिवर्तनीय रखते हुए यह परिवर्तन करना होता है। परन्तु वर्तमान समय में भारत में जो परिवर्तन हुआ है वह स्वाभाविक नहीं है। यह परिवर्तन ऐसा है कि शिक्षा को अधार्मिक कहने की नौबत आ गई है। शिक्षा का अधार्मिककरण दो शतकों से चल रहा है। आरम्भ हुआ तबसे उसे रोकने का प्रयास नहीं हुआ ऐसा तो नहीं है परन्तु दैवदुर्विलास से उसे रोकना बहुत संभव नहीं हुआ है। आज अधार्मिककरण भारत की मुख्य धारा की शिक्षा में अंतरबाह्य घुल गया है। यह घुलना ऐसा है कि शिक्षा अधार्मिक है ऐसा सामान्यजन और अभिजातजन को लगता भी नहीं है। देश उसके अनुसार चलता है। इसे युगानुकूल परिवर्तन नहीं कहा जा सकता क्योंकि राष्ट्रीय जीवन के सारे संकट उसमें से जन्म लेते हैं। इसलिए शिक्षा के धार्मिककरण का मुद्दा बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है।
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मुख्य प्रवाह की शिक्षा अधार्मिक होने पर भी देश के विभिन्न तबकों में यह कुछ ठीक नहीं हो रहा है ऐसी भावना धीरे धीरे बलवती हो रही है। इसमें से ही मूल्यशिक्षा का मुद्दा प्रभावी बन रहा है। अब शिक्षाक्षेत्र में भी धार्मिक और अधार्मिक की चर्चा शुरू हुई है। यद्यपि यह कार्य कठिन है ऐसा सबको लग रहा है तथापि इसकी आवश्यकता भी अनुभव में आ रही है। शासन से लेकर छोटी बड़ी संस्थाओं में धार्मिककरण के विषय में मन्थन चल रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में धार्मिक शिक्षा की सांगोपांग चर्चा होना आवश्यक है। कहीं वर्तमान सन्दर्भ छोड़कर, कहीं उसे लेकर, तत्व में परिवर्तन नहीं करते हुए नई रचना कैसे करना यह नीति रखकर यहाँ चिंतन प्रस्तुत करने का उपक्रम है। इस प्रथम ग्रन्थ में शिक्षाविषयक चिंतन प्रस्तुत करने का ही प्रयास किया गया है।
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मुख्य प्रवाह की शिक्षा अधार्मिक होने पर भी देश के विभिन्न तबकों में यह कुछ ठीक नहीं हो रहा है ऐसी भावना धीरे धीरे बलवती हो रही है। इसमें से ही मूल्यशिक्षा का मुद्दा प्रभावी बन रहा है। अब शिक्षाक्षेत्र में भी धार्मिक और अधार्मिक की चर्चा आरम्भ हुई है। यद्यपि यह कार्य कठिन है ऐसा सबको लग रहा है तथापि इसकी आवश्यकता भी अनुभव में आ रही है। शासन से लेकर छोटी बड़ी संस्थाओं में धार्मिककरण के विषय में मन्थन चल रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में धार्मिक शिक्षा की सांगोपांग चर्चा होना आवश्यक है। कहीं वर्तमान सन्दर्भ छोड़कर, कहीं उसे लेकर, तत्व में परिवर्तन नहीं करते हुए नई रचना कैसे करना यह नीति रखकर यहाँ चिंतन प्रस्तुत करने का उपक्रम है। इस प्रथम ग्रन्थ में शिक्षाविषयक चिंतन प्रस्तुत करने का ही प्रयास किया गया है।
    
== References ==
 
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