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खाद्य पदार्थ, कपड़ा, आवास एवं सार्वजनिक उपयोग के मकान बनाने के लिए उपयोगी सामग्री, जंगल उत्पादन एवं वनस्पति तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुएँ, जो कि भारत की संस्कृति एवं सभ्यता से स्वाभाविक एवं अटूट संबंध रखती हैं उन का अर्थव्यवहार स्थानीय ही हो यह अत्यंत आवश्यक है। उस कारण से कहीं कहीं यदि उत्पादन की मात्रा कम हो तो भी ऐसा ही करना चाहिए; क्योंकि उससे उत्पादन की गुणवत्ता में वृद्धि होगी, भारत के सदियों से संचित सौंदर्यबोध को नवजीवन मिलेगा और मात्रा कम होने पर भी उसका बहुत बड़ा एवं अच्छा मुआवजा मिलेगा।
 
खाद्य पदार्थ, कपड़ा, आवास एवं सार्वजनिक उपयोग के मकान बनाने के लिए उपयोगी सामग्री, जंगल उत्पादन एवं वनस्पति तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुएँ, जो कि भारत की संस्कृति एवं सभ्यता से स्वाभाविक एवं अटूट संबंध रखती हैं उन का अर्थव्यवहार स्थानीय ही हो यह अत्यंत आवश्यक है। उस कारण से कहीं कहीं यदि उत्पादन की मात्रा कम हो तो भी ऐसा ही करना चाहिए; क्योंकि उससे उत्पादन की गुणवत्ता में वृद्धि होगी, भारत के सदियों से संचित सौंदर्यबोध को नवजीवन मिलेगा और मात्रा कम होने पर भी उसका बहुत बड़ा एवं अच्छा मुआवजा मिलेगा।
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इसी प्रकार परिवर्तन करने पर भी पुरानी पद्धति को पकड़कर रखना जरूरी नहीं है। पुराने स्वरूप को प्रतिष्ठित करने का अर्थ है उसमें निहित संकल्पना को बनाए रखना, उस समय व्यक्ति एवं समाज का जो आंतरिक सहसंबंध था उसे बनाए रखना, ऐसे उत्पादकों के भिन्न-भिन्न समूहों का आंतरसंबंध बनाए रखना। भारतीय राज्यतन्त्र का मर्म ही यह आंतरसंबंध है। भारत की ढाँचागत एवं संस्थागत रचना का हार्द भी वही था। केवल उच्च वर्ग के लोगों को ही नहीं अपितु भारत के सर्वसामान्य समाज को जो रचना उपयोगी एवं मूल्यवान लगती है उसे यदि पुनः अपनाया जाय, युगानुकूल उसमें सामान्य लोगों की सूझबूझ से ही परिवर्तन किया जाय, एकबार वह रचना प्रस्थापित हो जाए उसके बाद ही अपनी आवश्यकता के अनुसार, अपने स्वयं के स्वतन्त्र निर्णय से हम बाहर से वस्तुएँ आयात करें अथवा यंत्रों का उपयोग करें तो नुकसान नहीं होगा। बाहर से आया हुआ होकायंत्र अथवा मुद्रणालय जिस प्रकार यूरोप के लिए लाभकारी सिद्ध हुआ था उसी प्रकार हमें भी आयात लाभकारी सिद्ध होगा।
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इसी प्रकार परिवर्तन करने पर भी पुरानी पद्धति को पकड़कर रखना आवश्यक नहीं है। पुराने स्वरूप को प्रतिष्ठित करने का अर्थ है उसमें निहित संकल्पना को बनाए रखना, उस समय व्यक्ति एवं समाज का जो आंतरिक सहसंबंध था उसे बनाए रखना, ऐसे उत्पादकों के भिन्न-भिन्न समूहों का आंतरसंबंध बनाए रखना। भारतीय राज्यतन्त्र का मर्म ही यह आंतरसंबंध है। भारत की ढाँचागत एवं संस्थागत रचना का हार्द भी वही था। केवल उच्च वर्ग के लोगों को ही नहीं अपितु भारत के सर्वसामान्य समाज को जो रचना उपयोगी एवं मूल्यवान लगती है उसे यदि पुनः अपनाया जाय, युगानुकूल उसमें सामान्य लोगों की सूझबूझ से ही परिवर्तन किया जाय, एकबार वह रचना प्रस्थापित हो जाए उसके बाद ही अपनी आवश्यकता के अनुसार, अपने स्वयं के स्वतन्त्र निर्णय से हम बाहर से वस्तुएँ आयात करें अथवा यंत्रों का उपयोग करें तो नुकसान नहीं होगा। बाहर से आया हुआ होकायंत्र अथवा मुद्रणालय जिस प्रकार यूरोप के लिए लाभकारी सिद्ध हुआ था उसी प्रकार हमें भी आयात लाभकारी सिद्ध होगा।
    
परन्तु अन्न, वस्त्र, आवास भले ही अनिवार्य हों मनुष्य के लिए इतनी ही बात पर्याप्त नहीं होती। उदाहरण के तौर पर अब तो भारत डेढ़ सौ वर्षों से विशाल रेल व्यवहार से जुड़ा हुआ है, डाक एवं तार की व्यवस्था भी उतनी ही पुरानी है, अब टेलिफोन भी आ गया है, समाचारपत्र, पत्रिकाएँ, पुस्तकें भी दैनिक आवश्यकताएँ हैं; रेडियो, दूरदर्शन एवं मोटरें भी सामान्य हो गए हैं, हवाई जहाज भी परिचित है। हवाई जहाज के कारण ही तो असंख्य आंतरराष्ट्रीय परिषद्, परिसंवाद, बैठक, यात्राएँ इत्यादि संभव बनते हैं, दुनिया को चलाने का दावा करनेवाले लोग सरलता से एकदूसरे से मिल सकते हैं एवं मुट्ठीभर लोग दुनिया को मुठ्ठी में बांधे रख सकते हैं एवं पूरा विश्व एक छोटा सा गाँव है ऐसा बोलने का साहस होता है। सैद्धांतिक रूप से कदाचित इस प्रकार का वाहनव्यवहार छोड़कर परंपरागत धीमी गति का वाहनव्यवहार अपनाया जा सकता है। उससे व्यक्ति एवं समाज दोनों का लाभ होगा। परन्तु भले ही भारत के दस से बीस प्रतिशत लोग ही इन सभी सुविधाओं का उपयोग करते हों तो भी वाहनव्यवहार एवं सूचना प्रसारण में इतना जलद परिवर्तन करना संभव नहीं है। यद्यपि इन दोनों व्यवस्थाओं का धार्मिक दृष्टिकोण एवं धार्मिक पार्श्वभूमि में मूल्यांकन होना बहुत ही आवश्यक है। ऐसे मूल्यांकन में व्यावहारिक विकल्प एवं उसके क्रियान्वयन की पद्धति का भी समावेश होना चाहिए।
 
परन्तु अन्न, वस्त्र, आवास भले ही अनिवार्य हों मनुष्य के लिए इतनी ही बात पर्याप्त नहीं होती। उदाहरण के तौर पर अब तो भारत डेढ़ सौ वर्षों से विशाल रेल व्यवहार से जुड़ा हुआ है, डाक एवं तार की व्यवस्था भी उतनी ही पुरानी है, अब टेलिफोन भी आ गया है, समाचारपत्र, पत्रिकाएँ, पुस्तकें भी दैनिक आवश्यकताएँ हैं; रेडियो, दूरदर्शन एवं मोटरें भी सामान्य हो गए हैं, हवाई जहाज भी परिचित है। हवाई जहाज के कारण ही तो असंख्य आंतरराष्ट्रीय परिषद्, परिसंवाद, बैठक, यात्राएँ इत्यादि संभव बनते हैं, दुनिया को चलाने का दावा करनेवाले लोग सरलता से एकदूसरे से मिल सकते हैं एवं मुट्ठीभर लोग दुनिया को मुठ्ठी में बांधे रख सकते हैं एवं पूरा विश्व एक छोटा सा गाँव है ऐसा बोलने का साहस होता है। सैद्धांतिक रूप से कदाचित इस प्रकार का वाहनव्यवहार छोड़कर परंपरागत धीमी गति का वाहनव्यवहार अपनाया जा सकता है। उससे व्यक्ति एवं समाज दोनों का लाभ होगा। परन्तु भले ही भारत के दस से बीस प्रतिशत लोग ही इन सभी सुविधाओं का उपयोग करते हों तो भी वाहनव्यवहार एवं सूचना प्रसारण में इतना जलद परिवर्तन करना संभव नहीं है। यद्यपि इन दोनों व्यवस्थाओं का धार्मिक दृष्टिकोण एवं धार्मिक पार्श्वभूमि में मूल्यांकन होना बहुत ही आवश्यक है। ऐसे मूल्यांकन में व्यावहारिक विकल्प एवं उसके क्रियान्वयन की पद्धति का भी समावेश होना चाहिए।

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