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गृहिणी की प्रमुख भूमिका होने के कारण घर की सारी व्यवस्थाओं का संचालन उसके ही अधीन होता है । इसी तत्त्व के अनुसार भारत में आर्थिक पक्ष की व्यवस्था भी ऐसी ही होती थी कि पुरुष अथर्जिन करता है और स्त्री अर्थ का विनियोग । पुरुष धान्य लाता है और स्त्री भोजन बनाकर सबको खिलाती है । घर के स्वामित्व के सन्दर्भ में तो दोनों बराबर हैं । पति गृहस्वामी है, पत्नी गृहस्वामिनी । पति पत्नी का भी स्वामी नहीं है यद्यपि पत्नी उसे स्वामी के रूप में स्वीकार करती है । पत्नी जिस प्रकार घर की स्वामिनी है उस प्रकार से पति की स्वामिनी नहीं है । उनका सम्बन्ध तो अर्धनारीश्वर का है परन्तु अन्यों के लिये गृहसंचालन की व्यवस्था में गृहिणी की प्रमुख भूमिका है ।
 
गृहिणी की प्रमुख भूमिका होने के कारण घर की सारी व्यवस्थाओं का संचालन उसके ही अधीन होता है । इसी तत्त्व के अनुसार भारत में आर्थिक पक्ष की व्यवस्था भी ऐसी ही होती थी कि पुरुष अथर्जिन करता है और स्त्री अर्थ का विनियोग । पुरुष धान्य लाता है और स्त्री भोजन बनाकर सबको खिलाती है । घर के स्वामित्व के सन्दर्भ में तो दोनों बराबर हैं । पति गृहस्वामी है, पत्नी गृहस्वामिनी । पति पत्नी का भी स्वामी नहीं है यद्यपि पत्नी उसे स्वामी के रूप में स्वीकार करती है । पत्नी जिस प्रकार घर की स्वामिनी है उस प्रकार से पति की स्वामिनी नहीं है । उनका सम्बन्ध तो अर्धनारीश्वर का है परन्तु अन्यों के लिये गृहसंचालन की व्यवस्था में गृहिणी की प्रमुख भूमिका है ।
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गृहिणी भावात्मक रूप से घर के सभी सदस्यों के चरित्र की रक्षा करती है । लालच के सामने घुटने नहीं टेकना, अनीति का आचरण नहीं करना, असंयमी नहीं बनना आदि सदाचार गृहिणी के कारण से सम्भव होते हैं । सेवा, त्याग और समर्पण के संस्कार वही देती है । समाज में कुटुंब की प्रतिष्ठा हो इसका बहुत बड़ा आधार स्त्री पर होता है । व्यक्ति जब घर में सन्तुष्ट रहता है तब घर से बाहर भी स्वस्थ व्यवहार कर सकता है| गृहिणी अपनी भूमिका यदि ठीक से निभाती है तो समाज में अनाचार कम होते हैं । जो समाज स्त्री का सम्मान करता है वह समाज सुखी और समृद्ध बनता है। इसी सन्दर्भ में मनुस्मृति में कहा है<ref>मनुस्मृति अध्याय ३, श्लोक ५६-६०</ref><blockquote>यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: ।</blockquote><blockquote>यत्रैतास्तुन पूज्यन्ते सर्वास्तब्राफला क्रिया: ।।</blockquote>अर्थात्‌ जहाँ नारी की पूजा अर्थात्‌ सम्मान होता है वहाँ देवता सुखपूर्वक वास करते हैं, जहाँ उनकी अवमानना होती है वहाँ कथाकथित सत्कर्म का भी कोई फल नहीं
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गृहिणी भावात्मक रूप से घर के सभी सदस्यों के चरित्र की रक्षा करती है । लालच के सामने घुटने नहीं टेकना, अनीति का आचरण नहीं करना, असंयमी नहीं बनना आदि सदाचार गृहिणी के कारण से सम्भव होते हैं । सेवा, त्याग और समर्पण के संस्कार वही देती है । समाज में कुटुंब की प्रतिष्ठा हो इसका बहुत बड़ा आधार स्त्री पर होता है । व्यक्ति जब घर में सन्तुष्ट रहता है तब घर से बाहर भी स्वस्थ व्यवहार कर सकता है| गृहिणी अपनी भूमिका यदि ठीक से निभाती है तो समाज में अनाचार कम होते हैं । जो समाज स्त्री का सम्मान करता है वह समाज सुखी और समृद्ध बनता है। इसी सन्दर्भ में मनुस्मृति में कहा है<ref>मनुस्मृति अध्याय ३, श्लोक ५६-६०</ref><blockquote>यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: ।</blockquote><blockquote>यत्रैतास्तुन पूज्यन्ते सर्वास्तब्राफला क्रिया: ।।</blockquote>अर्थात्‌ जहाँ नारी की पूजा अर्थात्‌ सम्मान होता है वहाँ देवता सुखपूर्वक वास करते हैं, जहाँ उनकी अवमानना होती है वहाँ कथाकथित सत्कर्म का भी कोई फल नहीं मिलता |
 
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मिलता |
      
स्त्री की अवमानना करने वाला व्यक्ति, कुटुम्ब या समाज असंस्कृत होता है । भारतीय मानस में इसके संस्कार गहरे हुए हैं ।
 
स्त्री की अवमानना करने वाला व्यक्ति, कुटुम्ब या समाज असंस्कृत होता है । भारतीय मानस में इसके संस्कार गहरे हुए हैं ।
    
== समाजव्यवस्था की मूल इकाई कुटुम्ब ==
 
== समाजव्यवस्था की मूल इकाई कुटुम्ब ==
समाज की एकात्म रचना के अन्तर्गत व्यक्ति को नहीं अपितु कुटुम्ब को इकाई मानना भी भारत के मनीषियों की विशाल बुद्धि का प्रमाण है । पति और पत्नी दो से एक बनते हैं उसीसे तात्पर्य है कि उनसे ही बना कुटुम्ब भी एक है। इस तत्त्व को केवल बौद्धिक या भावात्मक स्तर तक सीमित न रखकर व्यवस्था में लाना तत्त्व को व्यवहार का स्वरूप देना है । इसके आधार पर समाज व्यवस्था बनाना अत्यन्त प्रशंसनीय कार्य है । भारत के मनीषियों ने यह किया, और इसका प्रचार, प्रसार और उपदेश इस प्रकार किया कि सहस्राब्दियों से लोकमानस में यह स्वीकृत और प्रतिष्ठित हुआ ।
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समाज की एकात्म रचना के अन्तर्गत व्यक्ति को नहीं अपितु कुटुम्ब को इकाई मानना भी भारत के मनीषियों की विशाल बुद्धि का प्रमाण है । पति और पत्नी दो से एक बनते हैं उसी से तात्पर्य है कि उनसे ही बना कुटुम्ब भी एक है। इस तत्त्व को केवल बौद्धिक या भावात्मक स्तर तक सीमित न रखकर व्यवस्था में लाना तत्त्व को व्यवहार का स्वरूप देना है । इसके आधार पर समाज व्यवस्था बनाना अत्यन्त प्रशंसनीय कार्य है । भारत के मनीषियों ने यह किया, और इसका प्रचार, प्रसार और उपदेश इस प्रकार किया कि सहस्राब्दियों से लोकमानस में यह स्वीकृत और प्रतिष्ठित हुआ ।
    
कुटुम्ब आर्थिक इकाई है । अर्थपुरुषार्थ हर कुटुम्ब को अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये करना होता है । अनेक प्रकार के व्यवसाय विकसित हुए हैं । उन व्यवसायों के आधार पर व्यक्ति की नहीं अपितु कुटुम्ब की पहचान बनती है । कुटुम्ब व्यवसाय के माध्यम से अपने लिये तो अथर्जिन करता ही है, साथ में समाज की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । व्यवसाय पूरे कुटुम्ब का होता है और पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है। कुटुम्ब का स्थायी व्यवसाय होने के कारण इसकी शिक्षा के लिये भी कुटुम्ब के बाहर जाना नहीं पड़ता, पैसा खर्च नहीं करना पड़ता, अलग से समय देने की आवश्यकता नहीं पड़ती, शिशु अवस्था से ही व्यवसाय की शिक्षा शुरू हो जाती है और अथर्जिन में सहभागिता भी शुरू हो जाती है । हर कुटुम्ब का अर्थाजन सुरक्षित हो जाता है, हर कुटुम्ब को, कुटुम्ब के हर सदस्य को उत्कृष्टता प्राप्त करना सम्भव हो जाता है। व्यवसाय कुटुम्ब का होने से हर कुटुम्ब की आर्थिक स्वतन्त्रता और स्वायत्तता की भी रक्षा होती है । समृद्धि सहज होती है ।
 
कुटुम्ब आर्थिक इकाई है । अर्थपुरुषार्थ हर कुटुम्ब को अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये करना होता है । अनेक प्रकार के व्यवसाय विकसित हुए हैं । उन व्यवसायों के आधार पर व्यक्ति की नहीं अपितु कुटुम्ब की पहचान बनती है । कुटुम्ब व्यवसाय के माध्यम से अपने लिये तो अथर्जिन करता ही है, साथ में समाज की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । व्यवसाय पूरे कुटुम्ब का होता है और पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है। कुटुम्ब का स्थायी व्यवसाय होने के कारण इसकी शिक्षा के लिये भी कुटुम्ब के बाहर जाना नहीं पड़ता, पैसा खर्च नहीं करना पड़ता, अलग से समय देने की आवश्यकता नहीं पड़ती, शिशु अवस्था से ही व्यवसाय की शिक्षा शुरू हो जाती है और अथर्जिन में सहभागिता भी शुरू हो जाती है । हर कुटुम्ब का अर्थाजन सुरक्षित हो जाता है, हर कुटुम्ब को, कुटुम्ब के हर सदस्य को उत्कृष्टता प्राप्त करना सम्भव हो जाता है। व्यवसाय कुटुम्ब का होने से हर कुटुम्ब की आर्थिक स्वतन्त्रता और स्वायत्तता की भी रक्षा होती है । समृद्धि सहज होती है ।
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विवाह सम्बन्ध केक लिए भी ईकाई कुटुम्ब ही मानी जाती है । विवाह सम्पन्न तो एक स्त्री और एक पुरुष में होता है परन्तु कुटुम्ब के सदस्य के नाते ही वर और वधू का चयन होता है । कुल और गोत्र का महत्त्व माना जाता है। पारम्परिक रूप से व्यवसाय भी वर्ण और जाति के साथ सम्बन्धित हैं इसलिये वे भी ध्यान में लिये जाते हैं ।
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विवाह सम्बन्ध के लिए भी ईकाई कुटुम्ब ही मानी जाती है । विवाह सम्पन्न तो एक स्त्री और एक पुरुष में होता है परन्तु कुटुम्ब के सदस्य के नाते ही वर और वधू का चयन होता है । कुल और गोत्र का महत्त्व माना जाता है। पारम्परिक रूप से व्यवसाय भी वर्ण और जाति के साथ सम्बन्धित हैं इसलिये वे भी ध्यान में लिये जाते हैं ।
    
विवाह से केवल स्त्री और पुरुष नहीं अपितु एक कुटुम्ब दूसरे कुटुम्ब के साथ जुड़ता है । यह विज्ञान सम्मत भी है क्योंकि अधिजननशास्त्र के अनुसार बालक को पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों से संस्कार प्राप्त होते हैं, अर्थात्‌ इतने कुट्म्बों के साथ उसका सम्बन्ध बनता है ।
 
विवाह से केवल स्त्री और पुरुष नहीं अपितु एक कुटुम्ब दूसरे कुटुम्ब के साथ जुड़ता है । यह विज्ञान सम्मत भी है क्योंकि अधिजननशास्त्र के अनुसार बालक को पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों से संस्कार प्राप्त होते हैं, अर्थात्‌ इतने कुट्म्बों के साथ उसका सम्बन्ध बनता है ।
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# पिता का वंश पुत्र आगे चलाता है, माता का पुत्री नहीं ।
 
# पिता का वंश पुत्र आगे चलाता है, माता का पुत्री नहीं ।
 
# लड़की हमेशा दूसरे घर की होती है । जिस घर में विवाह के बाद जाती है वह उसका होता है ।  
 
# लड़की हमेशा दूसरे घर की होती है । जिस घर में विवाह के बाद जाती है वह उसका होता है ।  
यह व्यवस्था सहस्रों वर्षों से चली आई है । आज भी चल रही है । यदि इसके स्थान पर स्त्रीकेन्द्री व्यवस्था बनाना चाहें तो नहीं बन सकती, ऐसा तो नहीं है । पुरुष ससुराल जाय, पत्नी के कुल और गोत्र को स्वीकार करे, सन्तानों के साथ माता का नाम जुड़े ऐसा हो सकता है । परन्तु आज ऐसा आमूल परिवर्तन करने का विचार अभी किसी को नहीं आता है । हाँ, आधेअधूरे विचार कई लोगों को आते हैं । उदाहरण के लिये कई लोग अपने नाम के साथ माता और पिता दोनों के नाम लिखते हैं । कुछ लोग अपने नाम के साथ माता के कुल का नाम लगाते हैं । यह तो माता को मान्यता प्रदान करने का मुद्दा है परन्तु अब कुछ शिक्षित महिलायें ऐसा भी आग्रह करती दिखाई देती हैं कि विवाह के बाद वे जिस प्रकार माता-पिता का घर छोड़ती हैं उस प्रकार पति भी अपने माता-पिता का घर छोड़ दे और वे अपना नया घर बसायें । यह न्यूक्लियर फैमिली की संकल्पना है जो पश्चिम की व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था का उदाहरण है । ये सारी बातें भारत की समाजव्यवस्था, परम्परा, भावना आदि का ज्ञान नहीं होने का परिणाम है । वर्तमान शिक्षाव्यवस्था ही इसके लिये जिम्मेदार है ।
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यह व्यवस्था सहस्रों वर्षों से चली आई है। आज भी चल रही है । यदि इसके स्थान पर स्त्रीकेन्द्री व्यवस्था बनाना चाहें तो नहीं बन सकती, ऐसा तो नहीं है । पुरुष ससुराल जाय, पत्नी के कुल और गोत्र को स्वीकार करे, सन्तानों के साथ माता का नाम जुड़े ऐसा हो सकता है । परन्तु आज ऐसा आमूल परिवर्तन करने का विचार अभी किसी को नहीं आता है। हाँ, आधेअधूरे विचार कई लोगों को आते हैं । उदाहरण के लिये कई लोग अपने नाम के साथ माता और पिता दोनों के नाम लिखते हैं । कुछ लोग अपने नाम के साथ माता के कुल का नाम लगाते हैं । यह तो माता को मान्यता प्रदान करने का मुद्दा है परन्तु अब कुछ शिक्षित महिलायें ऐसा भी आग्रह करती दिखाई देती हैं कि विवाह के बाद वे जिस प्रकार माता-पिता का घर छोड़ती हैं उस प्रकार पति भी अपने माता-पिता का घर छोड़ दे और वे अपना नया घर बसायें । यह न्यूक्लियर फैमिली की संकल्पना है जो पश्चिम की व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था का उदाहरण है । ये सारी बातें भारत की समाजव्यवस्था, परम्परा, भावना आदि का ज्ञान नहीं होने का परिणाम है। वर्तमान शिक्षाव्यवस्था ही इसके लिये जिम्मेदार है ।
    
पुरुष केन्द्री व्यवस्था और स्त्री केंद्री संचालन में बहुत विरोध या असहमति नहीं दिखाई देती है क्योंकि दोनों बातें काल की कसौटी पर खरी उतरी हैं और समाज में प्रस्थापित हुई हैं । समाज व्यवस्था में व्यक्ति को नहीं अपितु कुटुम्ब को इकाई बनाने के कारण किसी भी व्यवस्था, घटना, रचना, व्यवहार पद्धति का समग्रता में विचार करना और एकात्मता की साधना करना सुकर होता है । सामाजिक सम्मान सुरक्षा, समृद्धि और स्वतन्त्रता भी सुलभ होते हैं; और समाज में सुख, शान्ति, संस्कार, प्रतिष्ठित होते हैं। अनाचार, हिंसा, शोषण, उत्तेजना कम होते हैं । भारतीय विचार के अनुसार तो यही विकास है । जीडीपी के पीछे पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
 
पुरुष केन्द्री व्यवस्था और स्त्री केंद्री संचालन में बहुत विरोध या असहमति नहीं दिखाई देती है क्योंकि दोनों बातें काल की कसौटी पर खरी उतरी हैं और समाज में प्रस्थापित हुई हैं । समाज व्यवस्था में व्यक्ति को नहीं अपितु कुटुम्ब को इकाई बनाने के कारण किसी भी व्यवस्था, घटना, रचना, व्यवहार पद्धति का समग्रता में विचार करना और एकात्मता की साधना करना सुकर होता है । सामाजिक सम्मान सुरक्षा, समृद्धि और स्वतन्त्रता भी सुलभ होते हैं; और समाज में सुख, शान्ति, संस्कार, प्रतिष्ठित होते हैं। अनाचार, हिंसा, शोषण, उत्तेजना कम होते हैं । भारतीय विचार के अनुसार तो यही विकास है । जीडीपी के पीछे पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
    
== स्वायत्त कुटुम्ब स्वायत्त समाज बनाता है ==
 
== स्वायत्त कुटुम्ब स्वायत्त समाज बनाता है ==
भारतीय कुटुम्ब स्वायत्त है। स्वायत्त Hers a
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भारतीय कुटुम्ब स्वायत्त है। स्वायत्त कुटुम्ब ही स्वतन्त्र भी होता है । इस कथन का क्‍या अर्थ है ?
 
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स्वतन्त्र भी होता है । इस कथन का क्‍या अर्थ है ?
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१, स्वायत्त कुटुम्ब अपनी जिम्मेदारी पर चलता है ।
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अपने लिये आवश्यक वस्तुयें स्वयं की जिम्मेदारी पर प्राप्त
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करता है और व्यवस्थायें स्वयं बना लेता है । अपना तन्त्र
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स्वयं बिठाता & | Hers से बाहर का कोई व्यक्ति कुटुम्ब के
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मामले तय नहीं करता । उदाहरण के लिये घर में क्या खाना
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करते हैं । घर की सन्तानों का संगोपन और शिक्षा कैसे
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करना यह घर के लोग ही निश्चित करते हैं। घर की
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साजसज्जा, उत्सव पर्व की रचना, अतिथिसत्कार आदि के
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विषय में घर के लोगों का निर्णय ही आखिरी होता है ।
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अपनी कन्या के लिये कैसा वर ढूँढना और कैसी पुत्रवधू घर
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में लाना इसका निर्णय sft Herat स्वयं करता है । संक्षेप में
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अपने जीवन से सम्बन्धित सारे निर्णय कुटुम्ब ही करता है ।
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व्यावहारिक जीवन के सभी आयामों में स्वायत्तता
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और स्वतन्त्रता की एक वरीयता क्रम में रचना बनी है ।
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उसके आधार पर रीतियाँ भी बनी हुई हैं । उदाहरण के लिये
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कुटुम्ब कितना भी स्वतन्त्र और स्वायत्त हो तो भी व्यवसाय
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निश्चिति के क्षेत्र में वह स्वायत्त नहीं है । वह सरलता से
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अपना व्यवसाय न छोड़ सकता है न बदल सकता है।
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से सम्प्रदाय परिवर्तन भी सरल नहीं है। इन बातों में
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परिवर्तन सर्वथा असम्भव है ऐसा तो नहीं है परन्तु ऐसा करने
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के लिये अनेक जटिल प्रक्रियाओं से गुजरना पडता है । यह
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इससे अनेक कुटुम्ब प्रभावित होते हैं । उनके लिये कठिनाई
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भी निर्माण हो सकती है । इन सबका निवारण करने की
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सावधानी रखने के कारण ही. सम्प्रदाय, व्यवसाय,
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विवाहव्यवस्था में परिवर्तन हेतु जटिल प्रक्रियाओं से गुजरना
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होता है । स्थापित व्यवस्था सब के हित
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की रक्षा करनेवाली होती है इसलिये इन जटिल प्रक्रियाओं
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अतः सामान्य स्थिति में लोग ऐसे करते नहीं ।
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भारतीय समाज भी स्वायत्त समाज होता है । इसका
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अर्थ वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु स्वयं व्यवस्था
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बनाता है। स्वायत्तता हेतु वह स्वायत्तता की विभिन्न
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१. सभी पारमार्थिक बातों के लिये व्यक्ति स्वायत्त
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है। वही इकाई है । कोई साधु, बैरागी, संन्यासी बनना
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चाहता है तो उसे किसी का बन्धन नहीं । केवल पत्नी या
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पति की अनुमति से वह ऐसा कर सकता है । वह अपना
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नाम, सम्बन्ध, कुल, गोत्र, वर्ण, जाति, धन, पद आदि
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स्वायत्त कुटुम्ब अपनी जिम्मेदारी पर चलता है। अपने लिये आवश्यक वस्तुयें स्वयं की जिम्मेदारी पर प्राप्त करता है और व्यवस्थायें स्वयं बना लेता है । अपना तन्त्र स्वयं बिठाता है। कुटुम्ब से बाहर का कोई व्यक्ति कुटुम्ब के मामले तय नहीं करता । उदाहरण के लिये घर में क्या खाना बनेगा यह खाना बनानेवाली और खाने वाले मिलकर तय करते हैं। घर की सन्तानों का संगोपन और शिक्षा कैसे करना यह घर के लोग ही निश्चित करते हैं। घर की साजसज्जा, उत्सव पर्व की रचना, अतिथिसत्कार आदि के विषय में घर के लोगों का निर्णय ही आखिरी होता है। अपनी कन्या के लिये कैसा वर ढूँढना और कैसी पुत्रवधू घर में लाना इसका निर्णय भी कुटुम्ब स्वयं करता है । संक्षेप में अपने जीवन से सम्बन्धित सारे निर्णय कुटुम्ब ही करता है।
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सब कुछ छोड़ता है जिसके लिये उसे किसी की अनुमति
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व्यावहारिक जीवन के सभी आयामों में स्वायत्तता और स्वतन्त्रता की एक वरीयता क्रम में रचना बनी है । उसके आधार पर रीतियाँ भी बनी हुई हैं । उदाहरण के लिये कुटुम्ब कितना भी स्वतन्त्र और स्वायत्त हो तो भी व्यवसाय निश्चिति के क्षेत्र में वह स्वायत्त नहीं है। वह सरलता से अपना व्यवसाय न छोड़ सकता है न बदल सकता है। विवाह हेतु अपना वर्ण छोड़ना भी सरल नहीं है। इसी प्रकार से सम्प्रदाय परिवर्तन भी सरल नहीं है। इन बातों में परिवर्तन सर्वथा असम्भव है ऐसा तो नहीं है परन्तु ऐसा करने के लिये अनेक जटिल प्रक्रियाओं से गुजरना पडता है। यह दुष्कर है, असम्भव नहीं । यह दुष्कर इसलिये हैं क्योंकि इससे अनेक कुटुम्ब प्रभावित होते हैं । उनके लिये कठिनाई भी निर्माण हो सकती है। इन सबका निवारण करने की सावधानी रखने के कारण ही. सम्प्रदाय, व्यवसाय, विवाहव्यवस्था में परिवर्तन हेतु जटिल प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। स्थापित व्यवस्था सब के हित की रक्षा करनेवाली होती है इसलिये इन जटिल प्रक्रियाओं के सिद्ध होने के लिये ऐसा ही कोई प्रभावी कारण चाहिये । अतः सामान्य स्थिति में लोग ऐसे करते नहीं । भारतीय समाज भी स्वायत्त समाज होता है । इसका अर्थ है कि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु स्वयं व्यवस्था बनाता है। स्वायत्तता हेतु वह स्वायत्तता की विभिन्न श्रेणियाँ बनाता है । उदाहरण के लिये
 
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# सभी पारमार्थिक बातों के लिये व्यक्ति स्वायत्त है। वही इकाई है । कोई साधु, बैरागी, संन्यासी बनना चाहता है तो उसे किसी का बन्धन नहीं । केवल पत्नी या पति की अनुमति से वह ऐसा कर सकता है । वह अपना नाम, सम्बन्ध, कुल, गोत्र, वर्ण, जाति, धन, पद आदि सब कुछ छोड़ता है जिसके लिये उसे किसी की अनुमति या व्यवस्था की आवश्यकता नहीं है। केवल भिक्षा ही उसका मानवीय अधिकार है, कानूनी नहीं । भिक्षा नहीं भी मिली तो वह चिन्ता नहीं करता |
या व्यवस्था की आवश्यकता नहीं है। केवल भिक्षा ही
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# अथर्जिन, पूजन-अर्चन, ब्रत-पर्व-उत्सव, सोलह संस्कार, खानपान, वस्त्रालंकार, गृहसज्ञा आदि विषयों में कुटुम्ब स्वायत्त है । वह इकाई है ।
 
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# सभी आर्थिक, स्थानिक न्याय, शिक्षा आदि बातों में समुदाय अथवा गाँव इकाई है ।
उसका मानवीय अधिकार है, कानूनी नहीं । भिक्षा नहीं भी
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# सम्प्रदाय, पूजन-अर्चन-इष्टदेवता के सम्बन्ध में इकाई है ।
 
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# सबकी सुरक्षा और व्यवस्था, सार्वजनिक बातों के लिये राज्य इकाई है ।
मिली तो वह चिन्ता नहीं करता |
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# जबकि राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई है ।
 
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स्वायत्तता के सभी स्तरों पर कुटुंब भावना ओतप्रोत है । व्यवस्थाओं के इस भावात्मक स्वरूप के कारण स्वायत्तता की रक्षा सहज सुलभ होती है । इसीलिये हम कह सकते हैं कि स्वायत्त कुटुम्ब स्वायत्त समाज बनाता है । इस सन्दर्भ में यह सुभाषित देखें {{Citation needed}}<blockquote>त्यजेदेक॑ कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थ कुल त्यजेत्‌ ।</blockquote><blockquote>ग्रामं जनपदस्यार्थ आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्‌ ।।</blockquote>अर्थात्‌ कुल के लिये एक (व्यक्ति) का, ग्राम के लिये कुल का, जनपद हेतु ग्राम का परन्तु आत्मा के लिये समस्त पृथिवीं का त्याग करना चाहिये । त्याग का अर्थ है स्वायत्तता का त्याग । यह त्याग व्यक्ति को विवशतापूर्वक नहीं अपितु समझदारीपूर्वक एवं स्वेच्छा से करना चाहिये । यह सर्वेषामविरोधेन अर्थात्‌ सब के अविरोधी बनकर जीना है ।
२. अथर्जिन, पूजन-अर्चन, ब्रत-पर्व-उत्सव, सोलह
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संस्कार, खानपान, वस्त्रालंकार, गृहसज्ञा आदि विषयों में
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कुटुम्ब स्वायत्त है । वह इकाई है ।
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३. सभी आर्थिक, स्थानिक न्याय, शिक्षा आदि बातों
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में समुदाय अथवा गाँव इकाई है ।
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४. सम्प्रदाय, पूजन-अर्चन-इष्टदेवता के सम्बन्ध में
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इकाई है ।
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५. सबकी सुरक्षा और व्यवस्था, सार्वजनिक बातों
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के लिये राज्य इकाई है ।
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६. जबकि राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई है ।
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स्वायत्तता के सभी स्तरों er भावना
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आन्तरँबद्धि ओतप्रोत है । व्यवस्थाओं के इस भावात्मक
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स्वरूप के कारण स्वायत्तता की रक्षा सहज सुलभ होती है ।
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इसीलिये हम कह सकते हैं कि स्वायत्त कुटुम्ब
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स्वायत्त समाज बनाता है ।
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इस सन्दर्भ में यह सुभाषित देखें...
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त्यजेदेक॑ कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थ कुल त्यजेत्‌ ।
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ग्रामं जनपदस्यार्थ आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्‌ ।।
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अर्थात्‌
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कुल के लिये एक (व्यक्ति) का, ग्राम के लिये कुल
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का, जनपद हेतु ग्राम का परन्तु आत्मा के लिये समस्त
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पृथिवीं का त्याग करना चाहिये ।
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त्याग का अर्थ है स्वायत्तता का त्याग । यह त्याग
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व्यक्ति को विवशतापूर्वक नहीं अपितु समझदारीपूर्वक एवं
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स्वेच्छा से करना चाहिये । यह सर्वेषामविरोधेन अर्थात्‌ सब
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के अविरोधी बनकर जीना है ।
      
== सुखी कुटुम्ब से सुखी समाज बनाने के कुछ सूत्र ==
 
== सुखी कुटुम्ब से सुखी समाज बनाने के कुछ सूत्र ==
१, अपना काम स्वयं करना, किसी का काम करना
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# १, अपना काम स्वयं करना, किसी का काम करना
 
   
नहीं, किसी से अपना काम करवाना नहीं । यह एक
 
नहीं, किसी से अपना काम करवाना नहीं । यह एक
  

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