Changes

Jump to navigation Jump to search
Line 55: Line 55:     
== सुखी कुटुम्ब से सुखी समाज बनाने के कुछ सूत्र ==
 
== सुखी कुटुम्ब से सुखी समाज बनाने के कुछ सूत्र ==
# १, अपना काम स्वयं करना, किसी का काम करना
+
# अपना काम स्वयं करना, किसी का काम करना नहीं, किसी से अपना काम करवाना नहीं । यह एक बड़ी मूल्यवान व्यवस्था है । जब अनेक मनुष्य साथ साथ रहते हैं और प्रकृति की व्यवस्था से ही परस्परावलम्बी हैं तब एकदूसरे का काम नहीं करना और किसी से काम नहीं करवाना सम्भव नहीं है और व्यवहार्य भी नहीं है। परन्तु इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि किसी का काम स्वार्थ, भय, लालच, दबाव या अन्य विवशता से नहीं करना या किसी को इन्हीं कारणों से अपना काम करने हेतु बाध्य नहीं करना अपितु एकदूसरे का काम स्नेह, सख्य, आदर, श्रद्धा, कृतज्ञता, दया, करुणा से प्रेरित होकर करना चाहिये । आधार सेवा है, स्वार्थ नहीं ।  
नहीं, किसी से अपना काम करवाना नहीं । यह एक
+
# आय से व्यय हमेशा कम होना चाहिए । जरा सा विचार करने पर इस सूत्र की सार्थकता समझ में आती है । मनुष्य का मन इच्छाओं का पुंज है । वे कभी सन्तुष्ट नहीं होती और पूर्ण भी नहीं होती । इसलिये व्यावहारिक समझदारी इसमें है कि अर्थार्जन के अनुसार अपनी आवश्यकताओं को ढालकर संतोष को अपनाओ । इसी में से दान और बचत भी करो । इसीके चलते कम अर्थवान होना सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान के आडे नहीं आता |
 
+
# कोई भी काम हेय नहीं है । समाज के लिये किया गया कोई भी काम, कोई भी व्यवसाय हेय नहीं है । यह काम सबका अपना अपना स्वधर्म है और स्वधर्म छोड़ने की किसी को अनुमति नहीं है। काम नहीं अपितु काम करने की नीयत किसी को श्रेष्ठ या कनिष्ठ बनाती है। आज इस सूत्र को छोड़ने से सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में कितनी अनवस्था फैल गई है इसका हम अनुभव कर ही रहे हैं ।
बड़ी मूल्यवान व्यवस्था है । जब अनेक मनुष्य साथ
+
# मोक्ष के लिये कोई भी सांसारिक बात आडे नहीं आती । व्याघ, कुम्हार, बुनकर, चमार, व्यापारी, योद्धा आदि किसी को भी संतत्व, आत्मसाक्षात्कार, मोक्ष नहीं मिल सकता है ऐसा नहीं है । तो वेदपाठी ब्राह्मण भी अपने आप ही मोक्ष का अधिकारी नहीं बन जाता । इस कारण से भी समाज में ऊँचनीच का दूषण पैदा नहीं होता ।
 
+
“परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीडा सम नहीं अधमाई' के सूत्र पर कुटुम्ब जीवन से शुरू होकर सम्पूर्ण समाज का व्यवहार चलता है । इस सूत्र से ही दान, सेवा, त्याग, तप, अन्नदान, तीर्थयात्रा, दर्शन, प्रसाद आदि की परम्परायें बनी हैं । लेनदेन के व्यवहारों में जो मिला है, उससे अधिक वापस देने की व्यवस्था बनी है । माँगकर कुछ खाओ नहीं, किसी को दिये बिना कुछ खाओ नहीं, यह सूत्र भी सम्पूर्ण समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उपकारक सिद्ध होता है ।
साथ रहते हैं और प्रकृति की व्यवस्था से ही
  −
 
  −
परस्परावलम्बी हैं तब एकदूसरे का काम नहीं करना
  −
 
  −
और किसी से काम नहीं करवाना सम्भव नहीं है और
  −
 
  −
व्यवहार्य भी नहीं है । परन्तु इस सूत्र का तात्पर्य यह
  −
 
  −
है कि किसी का काम स्वार्थ, भय, लालच, दबाव
  −
 
  −
या अन्य विवशता से नहीं करना या किसी को इन्हीं
  −
 
  −
कारणों से अपना काम करने हेतु बाध्य नहीं करना
  −
 
  −
अपितु एकदूसरे का काम स्नेह, सख्य, आदर, श्रद्धा,
  −
 
  −
कृतज्ञता, दया, करुणा से प्रेरित होकर करना
  −
 
  −
चाहिये । आधार सेवा है, स्वार्थ नहीं ।
  −
 
  −
आय से व्यय हमेशा कम होना चाहिए । जरा सा
  −
 
  −
विचार करने पर इस सूत्र की सार्थकता समझ में
  −
 
  −
आती है । मनुष्य का मन इच्छाओं का पुंज है । वे
  −
 
  −
कभी सन्तुष्ट नहीं होती और पूर्ण भी नहीं होती ।
  −
 
  −
इसलिये व्यावहारिक समझदारी इसमें है कि अथर्जिन
  −
 
  −
के अनुसार अपनी आवश्यकताओं को ढालकर
  −
 
  −
Say को अपनाओ । इसी में से दान और बचत
  −
 
  −
भी करो । इसीके चलते कम अर्थवान होना
  −
 
  −
सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान के आडे नहीं आता |
  −
 
  −
कोई भी काम हेय नहीं है । समाज के लिये किया
  −
 
  −
गया कोई भी काम, कोई भी व्यवसाय हेय नहीं है ।
  −
 
  −
यह काम सबका अपना अपना स्वधर्म है और स्वधर्म
  −
 
  −
१९६
  −
 
  −
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
  −
 
  −
छोड़ने की किसी को अनुमति नहीं है। काम नहीं
  −
 
  −
अपितु काम करने की नीयत किसी को श्रेष्ठ या
  −
 
  −
कनिष्ठ बनाती है। आज इस सूत्र को छोड़ने से
  −
 
  −
सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में कितनी अनवस्था
  −
 
  −
फैल गई है इसका हम अनुभव कर ही रहे हैं ।
  −
 
  −
मोक्ष के लिये कोई भी सांसारिक बात आडे नहीं
  −
 
  −
आती । व्याघ, कुम्हार, बुनकर, चमार, व्यापारी,
  −
 
  −
योद्धा आदि किसी को भी संतत्व, आत्मसाक्षात्कार,
  −
 
  −
मोक्ष नहीं मिल सकता है ऐसा नहीं है । तो वेदपाठी
  −
 
  −
ब्राह्मण भी अपने आप ही मोक्ष का अधिकारी नहीं
  −
 
  −
बन जाता । इस कारण से भी समाज में ऊँचनीच का
  −
 
  −
दूषण पैदा नहीं होता ।
  −
 
  −
“परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीडा सम नहीं
  −
 
  −
अधमाई' के सूत्र पर कुटुम्ब जीवन से शुरू होकर
  −
 
  −
सम्पूर्ण समाज का व्यवहार चलता है । इस सूत्र से ही
  −
 
  −
दान, सेवा, त्याग, तप, अन्नदान, तीर्थयात्रा, दर्शन,
  −
 
  −
प्रसाद आदि की परम्परायें बनी हैं । लेनदेन के
  −
 
  −
व्यवहारों में जो मिला है, उससे अधिक वापस देने
  −
 
  −
की व्यवस्था बनी है ।
  −
 
  −
माँगकर कुछ खाओ नहीं, किसी को दिये बिना कुछ
  −
 
  −
खाओ नहीं, यह सूत्र भी सम्पूर्ण समाज की
  −
 
  −
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उपकारक सिद्ध
  −
 
  −
होता है ।
      
== परम्परा खण्डित नहीं होने देना प्रत्येक कुटुम्ब का महत्‌ कर्तव्य है ==
 
== परम्परा खण्डित नहीं होने देना प्रत्येक कुटुम्ब का महत्‌ कर्तव्य है ==
पितूकऋण और उससे उक्रण होने की संकल्पना को
+
पितूकऋण और उससे उक्रण होने की संकल्पना को साकार करना कुटुम्ब के लिये परम कर्तव्य है । वर्तमान पीढ़ी को ज्ञान, कौशल, संस्कार, समृद्धि, व्यवसाय अपने पूर्वजों से प्राप्त होते हैं । उनका करण मानने की भावना भारतीय मानस में गहरी बैठी है । इस ऋण से मुक्त होने के लिये हर कुटुम्ब को प्रयास करना है । जिससे मिला उसे वापस नहीं किया जाता । अतः जिसे दे सर्के ऐसी नई पीढ़ी को जन्म देना प्रथम कर्तव्य है । इसलिये वंशपरम्परा को खण्डित नहीं होने देना यह प्रथम आवश्यकता है। विवाह-
 
  −
साकार करना कुटुम्ब के लिये परम कर्तव्य है । वर्तमान
  −
 
  −
पीढ़ी को ज्ञान, कौशल, संस्कार, समृद्धि, व्यवसाय अपने
  −
 
  −
पूर्वजों से प्राप्त होते हैं । उनका करण मानने की भावना
  −
 
  −
भारतीय मानस में गहरी बैठी है । इस ऋण से मुक्त होने के
  −
 
  −
लिये हर कुटुम्ब को प्रयास करना है । जिससे मिला उसे
  −
 
  −
वापस नहीं किया जाता । अतः जिसे दे सर्के ऐसी नई पीढ़ी
  −
 
  −
को जन्म देना प्रथम कर्तव्य है । इसलिये बंशपरम्परा को
  −
 
  −
खण्डित नहीं होने देना यह प्रथम आवश्यकता है । विवाह-
      
............. page-213 .............
 
............. page-213 .............

Navigation menu