Line 3: |
Line 3: |
| परमात्मा ने विश्वरूप धारण किया<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। विश्व में मनुष्य को उसने अपने प्रतिरूप में निर्माण किया । उस मनुष्य को अपने परमात्मा स्वरूप का साक्षात्कार होने की सम्भावना बनाई, साथ ही इस स्वरूप की प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील होने की प्रेरणा भी उसके अन्तःकरण में स्थापित की । अपनी सृजनशीलता, निर्माणक्षमता, व्यवस्थाशक्ति को भी मनुष्य के अन्तःकरण में संक्रान्त किया । | | परमात्मा ने विश्वरूप धारण किया<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। विश्व में मनुष्य को उसने अपने प्रतिरूप में निर्माण किया । उस मनुष्य को अपने परमात्मा स्वरूप का साक्षात्कार होने की सम्भावना बनाई, साथ ही इस स्वरूप की प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील होने की प्रेरणा भी उसके अन्तःकरण में स्थापित की । अपनी सृजनशीलता, निर्माणक्षमता, व्यवस्थाशक्ति को भी मनुष्य के अन्तःकरण में संक्रान्त किया । |
| | | |
− | भारत के मनीषियों ने कुट्म्ब की संकल्पना को साकार कर परमात्मा की इस कृति का प्रमाण दिया है । कुटुम्ब के विषय में ज्ञानात्मक रूप में आकलन करने का प्रयास करते हैं तब यह बात हमारे ध्यान में आती है । भारतीय कुटुम्बव्यवस्था के मूल तत्त्वों को इस दृष्टि से ही समझने का प्रयास करेंगे । | + | भारत के मनीषियों ने कुटुम्ब की संकल्पना को साकार कर परमात्मा की इस कृति का प्रमाण दिया है । कुटुम्ब के विषय में ज्ञानात्मक रूप में आकलन करने का प्रयास करते हैं तब यह बात हमारे ध्यान में आती है । भारतीय कुटुम्बव्यवस्था के मूल तत्त्वों को इस दृष्टि से ही समझने का प्रयास करेंगे । |
| | | |
| == कुटुम्ब एकात्मता का प्रारम्भ बिन्दु == | | == कुटुम्ब एकात्मता का प्रारम्भ बिन्दु == |
| परमात्मा ने जब विश्वरूप धारण किया तब सर्वप्रथम वह स्त्रीधारा और पुरुषधारा में विभाजित हुआ । इस स्त्रीधारा और पुरुषधारा का युग्म बना । दोनों साथ मिलकर पूर्ण हुए और सृष्टि के सृजन का प्रारम्भ हुआ । इस युग्म की द्वंद्वात्मकता सृष्टि के हर अस्तित्व का प्रमुख लक्षण है । दो में से किसी एक से सृजन नहीं होता है । दोनों अकेले अधूरे हैं, दो मिलकर पूर्ण होते हैं, एक होते हैं । दो में से कोई एक मुख्य और दूसरा गौण नहीं होता है, दोनों बराबर होते हैं । दोनों एक सिक्के के दो पक्ष के समान सम्पृक्त हैं, अलग नहीं हो सकते हैं । दो जब एक बनकर सृजन करते हैं तब सृष्ट पदार्थ भी दोनों तत्त्वों से युक्त होता है । द्वंद्व का एकात्म स्वरूप ही सृजन करता है । | | परमात्मा ने जब विश्वरूप धारण किया तब सर्वप्रथम वह स्त्रीधारा और पुरुषधारा में विभाजित हुआ । इस स्त्रीधारा और पुरुषधारा का युग्म बना । दोनों साथ मिलकर पूर्ण हुए और सृष्टि के सृजन का प्रारम्भ हुआ । इस युग्म की द्वंद्वात्मकता सृष्टि के हर अस्तित्व का प्रमुख लक्षण है । दो में से किसी एक से सृजन नहीं होता है । दोनों अकेले अधूरे हैं, दो मिलकर पूर्ण होते हैं, एक होते हैं । दो में से कोई एक मुख्य और दूसरा गौण नहीं होता है, दोनों बराबर होते हैं । दोनों एक सिक्के के दो पक्ष के समान सम्पृक्त हैं, अलग नहीं हो सकते हैं । दो जब एक बनकर सृजन करते हैं तब सृष्ट पदार्थ भी दोनों तत्त्वों से युक्त होता है । द्वंद्व का एकात्म स्वरूप ही सृजन करता है । |
| | | |
− | संसार में एकदूसरे से सर्वथा अपरिचित स्त्री और पुरुष विवाहसंस्कार से बद्ध होकर पतिपत्नी बनते हैं तब यही द्वंद्वात्मकता और एकात्मकता साकार होती है । सृष्टि की स्त्रीधारा पत्नी में और पुरुषधारा पति में होती है । दोनों एकात्म सम्बन्ध से जुड़ते हैं और सन्तान को जन्म देते हैं । सन्तान में माता और पिता दोनों एकात्म रूप में ही होते हैं। सृष्टि परमात्मा से निःसृत हुई, अब उसे परमात्मा में विलीन होना है । यह यात्रा एकात्मता की यात्रा है जिसका प्रारम्भ पति-पत्नी की एकात्मता से होता है । यह एकात्म सम्बन्ध का प्रारम्भ दो से एक बनने का है । शारीरिक से आत्मिक स्तर तक की एकात्मता पतिपत्नी के सम्बन्ध में कल्पित और अपेक्षित की गई है । इसलिये पतिपत्नी दो नहीं, एक ही माने जाते हैं । पतिपत्नी कुट्म्ब का केन्द्रबिन्दु हैं । ये दो केन्द्र नहीं, एक ही हैं । संकल्पना का यह एक केन्द्र व्यवस्था में भी साकार होता है । जगत के किसी भी कार्य में पतिपत्नी साथ साथ ही होते हैं । सन्तान को दोनों मिलकर जन्म देते हैं, यज्ञ या पूजा जैसा अनुष्ठान दोनों मिलकर ही कर सकते हैं, रानी के बिना राजा का राज्याभिषेक नहीं हो सकता, कन्यादान अकेला पिता या अकेली माता नहीं कर सकती । पतिपत्नी एकदूसरे के पापपुण्य में समान रूप से हिस्सेदार होते हैं । एक का पाप दूसरे को लगता है और पुण्य भी दूसरे को मिलता है । पतिपत्नी के सम्बन्ध का विस्तार जन्मजन्मान्तर में भी होने की कल्पना की गई है । भारतीय मानस को यह कल्पना बहुत प्रिय है । दो में से किसी एक को संन्यासी होना है तो दूसरे की अनुमति और सहमति के बिना नहीं हो सकता । इस एकात्म सम्बन्ध की संकल्पना के कारण ही विवाहविच्छेद् को भारतीय मानस में स्वीकृति नहीं है । पति-पत्नी के सम्बन्ध का वर्तमान कानूनी स्वरूप इस गहराई की तुलना में बहुत छिछला है । यह छिछलापन कुट्म्ब में, विद्यालय में और समाज में जब उचित शिक्षा नहीं मिलती इस कारण से है । साथ ही विपरीत शिक्षा मिलती है और संकट निर्माण होते हैं यह भी वास्तविकता है । परन्तु सर्व प्रकार से रक्षा करने लायक यह तत्त्व है । | + | संसार में एकदूसरे से सर्वथा अपरिचित स्त्री और पुरुष विवाहसंस्कार से बद्ध होकर पतिपत्नी बनते हैं तब यही द्वंद्वात्मकता और एकात्मकता साकार होती है । सृष्टि की स्त्रीधारा पत्नी में और पुरुषधारा पति में होती है । दोनों एकात्म सम्बन्ध से जुड़ते हैं और सन्तान को जन्म देते हैं । सन्तान में माता और पिता दोनों एकात्म रूप में ही होते हैं। सृष्टि परमात्मा से निःसृत हुई, अब उसे परमात्मा में विलीन होना है । यह यात्रा एकात्मता की यात्रा है जिसका प्रारम्भ पति-पत्नी की एकात्मता से होता है । यह एकात्म सम्बन्ध का प्रारम्भ दो से एक बनने का है । शारीरिक से आत्मिक स्तर तक की एकात्मता पतिपत्नी के सम्बन्ध में कल्पित और अपेक्षित की गई है । इसलिये पतिपत्नी दो नहीं, एक ही माने जाते हैं । पतिपत्नी कुटुम्ब का केन्द्रबिन्दु हैं । ये दो केन्द्र नहीं, एक ही हैं । संकल्पना का यह एक केन्द्र व्यवस्था में भी साकार होता है । जगत के किसी भी कार्य में पतिपत्नी साथ साथ ही होते हैं । सन्तान को दोनों मिलकर जन्म देते हैं, यज्ञ या पूजा जैसा अनुष्ठान दोनों मिलकर ही कर सकते हैं, रानी के बिना राजा का राज्याभिषेक नहीं हो सकता, कन्यादान अकेला पिता या अकेली माता नहीं कर सकती । पतिपत्नी एकदूसरे के पापपुण्य में समान रूप से हिस्सेदार होते हैं । एक का पाप दूसरे को लगता है और पुण्य भी दूसरे को मिलता है । पतिपत्नी के सम्बन्ध का विस्तार जन्मजन्मान्तर में भी होने की कल्पना की गई है । भारतीय मानस को यह कल्पना बहुत प्रिय है । दो में से किसी एक को संन्यासी होना है तो दूसरे की अनुमति और सहमति के बिना नहीं हो सकता । इस एकात्म सम्बन्ध की संकल्पना के कारण ही विवाहविच्छेद् को भारतीय मानस में स्वीकृति नहीं है । पति-पत्नी के सम्बन्ध का वर्तमान कानूनी स्वरूप इस गहराई की तुलना में बहुत छिछला है । यह छिछलापन कुटुम्ब में, विद्यालय में और समाज में जब उचित शिक्षा नहीं मिलती इस कारण से है । साथ ही विपरीत शिक्षा मिलती है और संकट निर्माण होते हैं यह भी वास्तविकता है । परन्तु सर्व प्रकार से रक्षा करने लायक यह तत्त्व है । |
| | | |
| == कुटुम्ब की धुरी स्त्री है == | | == कुटुम्ब की धुरी स्त्री है == |
| "न गृहं गृहमित्याहु गृहिणी गृहमुच्यते"{{Citation needed}} | | "न गृहं गृहमित्याहु गृहिणी गृहमुच्यते"{{Citation needed}} |
| | | |
− | यह कथन सर्वपरिचित है । गृहिणी का अर्थ है गृह का मूर्त स्त्रीरूप । | + | यह कथन सर्वपरिचित है । गृहिणी का अर्थ है गृह का मूर्त स्त्रीरूप । इस स्त्रीलिंगी संज्ञा का पुल्लिंग रूप है गृही । परन्तु पुरुष को गृही नहीं गृहस्थ कहा जाता है । गृहस्थ का अर्थ है घर में रहनें वाला । स्त्री साक्षात् गृह है, पुरुष उस गृह में रहने वाला है । मकान को घर बनाने में, रक्त सम्बन्ध से जुड़े लोगों का कुटुम्ब बनाने में, स्त्री की कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका है यह दर्शाने के लिये ही यह वाक्यप्रयोग किया गया है । स्त्री को यह भूमिका उसके स्वभाव, गुण, शक्ति, कौशल आदि के कारण मिली है, कानून से नहीं । जो लोग भारत में स्रियों को दबाया जाता है, या उनका शोषण किया जाता है ऐसा कहकर शोर मचाते हैं, भारत की निन्दा करते हैं, और जो स्त्रियाँ भी अब मुक्ति, सशक्तिकरण, समानता, स्वतन्त्रता आदि को लेकर आन्दोलन चलाती हैं उन्हें उत्तर देने के लिये भारतीय कुटुम्ब व्यवस्था में स्त्री के स्थान को लेकर की गई यह एक बात ही पर्याप्त है । आवश्यकता तो यह है कि इस तत्त्व को पुनः प्रस्थापित करने में हमारी शक्ति लगे । |
| | | |
− | इस स्त्रीलिंगी संज्ञा का पुट्लिंग रूप है गृही । परन्तु पुरुष को
| + | गृहिणी की प्रमुख भूमिका होने के कारण घर की सारी व्यवस्थाओं का संचालन उसके ही अधीन होता है । इसी तत्त्व के अनुसार भारत में आर्थिक पक्ष की व्यवस्था भी ऐसी ही होती थी कि पुरुष अथर्जिन करता है और स्त्री अर्थ का विनियोग । पुरुष धान्य लाता है और स्त्री भोजन बनाकर सबको खिलाती है । घर के स्वामित्व के सन्दर्भ में तो दोनों बराबर हैं । पति गृहस्वामी है, पत्नी गृहस्वामिनी । पति पत्नी का भी स्वामी नहीं है यद्यपि पत्नी उसे स्वामी के रूप में स्वीकार करती है । पत्नी जिस प्रकार घर की स्वामिनी है उस प्रकार से पति की स्वामिनी नहीं है । उनका सम्बन्ध तो अर्धनारीश्वर का है परन्तु अन्यों के लिये गृहसंचालन की व्यवस्था में गृहिणी की प्रमुख भूमिका है । |
| | | |
− | गृही नहीं गृहस्थ कहा जाता है । गृहस्थ का अर्थ है घर में
| + | गृहिणी भावात्मक रूप से घर के सभी सदस्यों के चरित्र की रक्षा करती है । लालच के सामने घुटने नहीं टेकना, अनीति का आचरण नहीं करना, असंयमी नहीं बनना आदि सदाचार गृहिणी के कारण से सम्भव होते हैं । सेवा, त्याग और समर्पण के संस्कार वही देती है । समाज में कुटुंब की प्रतिष्ठा हो इसका बहुत बड़ा आधार स्त्री पर होता है । व्यक्ति जब घर में सन्तुष्ट रहता है तब घर से बाहर भी स्वस्थ व्यवहार कर सकता है| गृहिणी अपनी भूमिका यदि ठीक से निभाती है तो समाज में अनाचार कम होते हैं । जो समाज स्त्री का सम्मान करता है वह समाज सुखी और समृद्ध बनता है। इसी सन्दर्भ में मनुस्मृति में कहा है<ref>मनुस्मृति अध्याय ३, श्लोक ५६-६०</ref><blockquote>यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: ।</blockquote><blockquote>यत्रैतास्तुन पूज्यन्ते सर्वास्तब्राफला क्रिया: ।।</blockquote>अर्थात् जहाँ नारी की पूजा अर्थात् सम्मान होता है वहाँ देवता सुखपूर्वक वास करते हैं, जहाँ उनकी अवमानना होती है वहाँ कथाकथित सत्कर्म का भी कोई फल नहीं |
− | | |
− | रहनें वाला । स्त्री साक्षात् गृह है, पुरुष उस गृह में रहने वाला
| |
− | | |
− | है । मकान को घर बनाने में रक्त सम्बन्ध से जुड़े लोगों का
| |
− | | |
− | कुट्म्ब बनाने में खत्री की कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका है यह
| |
− | | |
− | दूशनि के लिये ही यह वाक्यप्रयोग किया गया है । स्त्री को
| |
− | | |
− | यह भूमिका उसके स्वभाव, गुण, शक्ति, कौशल आदि के
| |
− | | |
− | कारण मिली है, कानून से नहीं । जो लोग भारत में स्रियों
| |
− | | |
− | को दबाया जाता है, या उनका शोषण किया जाता है ऐसा
| |
− | | |
− | कहकर शोर मचाते हैं, भारत की निन््दा करते हैं, और जो
| |
− | | |
− | खियाँ भी अब मुक्ति, सशक्तिकरण, समानता, स्वतन्त्रता
| |
− | | |
− | आदि को लेकर आन्दोलन चलाती हैं उन्हें उत्तर देने के लिये
| |
− | | |
− | भारतीय कुट्म्बव्यवस्था में खत्री के स्थान को लेकर की गई
| |
− | | |
− | यह एक बात ही पर्याप्त है । आवश्यकता तो यह है कि इस
| |
− | | |
− | तत्त्व को पुनः प्रस्थापित करने में हमारी शक्ति लगे ।
| |
− | | |
− | गृहिणी की प्रमुख भूमिका होने के कारण घर की
| |
− | | |
− | सारी व्यवस्थाओं का संचालन उसके ही अधीन होता है ।
| |
− | | |
− | इसी तत्त्व के अनुसार भारत में आर्थिक पक्ष की व्यवस्था
| |
− | | |
− | भी ऐसी ही होती थी कि पुरुष अथर्जिन करता है और स्त्री
| |
− | | |
− | अर्थ का विनियोग । पुरुष धान्य लाता है और स्त्री भोजन
| |
− | | |
− | बनाकर सबको खिलाती है । घर के स्वामित्व के सन्दर्भ में
| |
− | | |
− | तो दोनों बराबर हैं । पति गृहस्वामी है, पत्नी गृहस्वामिनी ।
| |
− | | |
− | पति पत्नी का भी स्वामी नहीं है यद्यपि पत्नी उसे स्वामी के
| |
− | | |
− | रूप में स्वीकार करती है । पत्नी जिस प्रकार घर की
| |
− | | |
− | स्वामिनी है उस प्रकार से पति की स्वामिनी नहीं है । उनका
| |
− | | |
− | सम्बन्ध तो अर्धनारीश्वर का है परन्तु ae के लिये
| |
− | | |
− | गृहसंचालन की व्यवस्था में गृहिणी की प्रमुख भूमिका है ।
| |
− | | |
− | गृहिणी भावात्मक रूप से घर के सभी सदस्यों के | |
− | | |
− | aia की रक्षा करती है । लालच के सामने घुटने नहीं
| |
− | | |
− | १९३
| |
− | | |
− | टेकना, अनीति का आचरण नहीं | |
− | | |
− | करना, असंयमी नहीं बनना आदि सदाचार गृहिणी के कारण | |
− | | |
− | से सम्भव होते हैं । सेवा, त्याग और समर्पण के संस्कार | |
− | | |
− | वही देती है । समाज में कुटुंब की प्रतिष्ठा हो इसका बहुत | |
− | | |
− | बड़ा आधार स्त्री पर होता है । व्यक्ति जब घर में सन्तुष्ट | |
− | | |
− | रहता है तब घर से बाहर भी स्वस्थ व्यवहार कर सकता | |
− | | |
− | @ | गृहिणी अपनी भूमिका यदि ठीक से निभाती है तो
| |
− | | |
− | समाज में अनाचार कम होते हैं । जो समाज स्त्री का सम्मान | |
− | | |
− | करता है वह समाज सुखी और समृद्ध बनता है। इसी | |
− | | |
− | सन्दर्भ में मनुस्मृति में कहा है | |
− | | |
− | यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: । | |
− | | |
− | यत्रैतास्तुन पूज्यन्ते सर्वास्तब्राफला क्रिया: ।। | |
− | | |
− | अर्थात् जहाँ नारी की पूजा अर्थात् सम्मान होता है | |
− | | |
− | वहाँ देवता सुखपूर्वक वास करते हैं, जहाँ उनकी अवमानना | |
− | | |
− | होती है वहाँ कथाकथित सत्कर्म का भी कोई फल नहीं | |
| | | |
| मिलता | | | मिलता | |
| | | |
− | स्त्री की अवमानना करने वाला व्यक्ति, कुट्म्ब या | + | स्त्री की अवमानना करने वाला व्यक्ति, कुटुम्ब या समाज असंस्कृत होता है । भारतीय मानस में इसके संस्कार गहरे हुए हैं । |
− | | |
− | समाज असंस्कृत होता है । भारतीय मानस में इसके संस्कार | |
− | | |
− | गहरे हुए हैं । | |
| | | |
| == समाजव्यवस्था की मूल इकाई कुटुम्ब == | | == समाजव्यवस्था की मूल इकाई कुटुम्ब == |
− | समाज की एकात्म रचना के अन्तर्गत व्यक्ति को नहीं | + | समाज की एकात्म रचना के अन्तर्गत व्यक्ति को नहीं अपितु कुटुम्ब को इकाई मानना भी भारत के मनीषियों की विशाल बुद्धि का प्रमाण है । पति और पत्नी दो से एक बनते हैं उसीसे तात्पर्य है कि उनसे ही बना कुटुम्ब भी एक है। इस तत्त्व को केवल बौद्धिक या भावात्मक स्तर तक सीमित न रखकर व्यवस्था में लाना तत्त्व को व्यवहार का स्वरूप देना है । इसके आधार पर समाज व्यवस्था बनाना अत्यन्त प्रशंसनीय कार्य है । भारत के मनीषियों ने यह किया, और इसका प्रचार, प्रसार और उपदेश इस प्रकार किया कि सहस्राब्दियों से लोकमानस में यह स्वीकृत और प्रतिष्ठित हुआ । |
− | | |
− | अपितु कुट्म्ब को इकाई मानना भी भारत के मनीषियों की | |
− | | |
− | विशाल बुद्धि का प्रमाण है । पति और पत्नी दो से एक | |
− | | |
− | बनते हैं उसीसे तात्पर्य है कि उनसे ही बना कुट्म्ब भी एक | |
− | | |
− | है। इस तत्त्व को केवल बौद्धिक या भावात्मक स्तर तक | |
− | | |
− | सीमित न रखकर व्यवस्था में लाना तत्त्व को व्यवहार का | |
− | | |
− | स्वरूप देना है । इसके आधार पर समाज व्यवस्था बनाना | |
− | | |
− | अत्यन्त प्रशंसनीय कार्य है । भारत के मनीषियों ने यह | |
− | | |
− | किया, और इसका प्रचार, प्रसार और उपदेश इस प्रकार | |
− | | |
− | किया कि सहस्राब्दियों से लोकमानस में यह स्वीकृत और | |
− | | |
− | प्रतिष्ठित हुआ । | |
− | | |
− | कुट्म्ब आर्थिक इकाई है । अर्थपुरुषार्थ हर कुट्म्ब
| |
− | | |
− | को अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये करना
| |
− | | |
− | होता है । अनेक प्रकार के व्यवसाय विकसित हुए हैं । उन
| |
− | | |
− | ............. page-210 .............
| |
− | | |
− | व्यवसायों के आधार पर व्यक्ति की
| |
− | | |
− | नहीं अपितु कुट्म्ब की पहचान बनती है । कुटुम्ब व्यवसाय
| |
− | | |
− | के माध्यम से अपने लिये तो अथर्जिन करता ही है, साथ में
| |
− | | |
− | समाज की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है ।
| |
− | | |
− | व्यवसाय पूरे कुट्म्ब का होता है और पीढ़ी दर पीढ़ी चलता
| |
− | | |
− | है। कुट्म्ब का स्थायी व्यवसाय होने के कारण इसकी
| |
− | | |
− | शिक्षा के लिये भी कुट्म्ब के बाहर जाना नहीं पड़ता, पैसा
| |
− | | |
− | खर्च नहीं करना पड़ता, अलग से समय देने की
| |
− | | |
− | आवश्यकता नहीं पड़ती, शिशु अवस्था से ही व्यवसाय की
| |
− | | |
− | शिक्षा शुरू हो जाती है और अथर्जिन में सहभागिता भी
| |
− | | |
− | शुरू हो जाती है । हर कुट्म्ब का अधथर्जिन सुरक्षित हो
| |
− | | |
− | जाता है, हर Hers al, HT के हर सदस्य को
| |
− | | |
− | उत्कृष्टता प्राप्त करना सम्भव हो जाता है। व्यवसाय
| |
− | | |
− | कुट्म्बका होने से हर Hera At anil स्वतन्त्रता और
| |
− | | |
− | स्वायत्तता की भी रक्षा होती है । समृद्धि सहज होती है ।
| |
− | | |
− | विवाह सम्बन्ध ch fed oft garg aera ही मानी
| |
− | | |
− | जाती है । विवाह सम्पन्न तो एक स्त्री और एक पुरुष में
| |
− | | |
− | होता है परन्तु कुटुम्ब के सदस्य के नाते ही वर और वधू
| |
− | | |
− | का चयन होता है । कुल और गोत्र का महत्त्व माना जाता
| |
− | | |
− | है। पारम्परिक रूप से व्यवसाय भी वर्ण और जाति के
| |
− | | |
− | साथ सम्बन्धित हैं इसलिये वे भी ध्यान में लिये जाते हैं ।
| |
− | | |
− | विवाह से केवल स्त्री और पुरुष नहीं अपितु एक कुट्म्ब
| |
− | | |
− | दूसरे कुट्म्ब के साथ जुड़ता है । यह विज्ञान सम्मत भी है
| |
− | | |
− | क्योंकि अधिजननशास्त्र के अनुसार बालक को पिता की
| |
− | | |
− | चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों से संस्कार प्राप्त होते हैं,
| |
− | | |
− | अर्थात् इतने कुट्म्बों के साथ उसका सम्बन्ध बनता है ।
| |
− | | |
− | भावात्मक दृष्टि से कुट्म्ब ख्त्री केन्द्री है। परन्तु
| |
− | | |
− | व्यवस्था की दृष्टि से यह पुरुषकेन्द्री है । इसके संकेत क्या
| |
− | | |
− | हैं ?
| |
− | | |
− | १, विवाह के समय पत्नी अपने पिता का घर छोड़
| |
− | | |
− | कर पति के घर जाती है ।
| |
− | | |
− | २. घर के साथ अपना कुल, गोत्र, सम्पत्ति आदि भी
| |
− | | |
− | छोड़कर जाती है और पति का कुल, गोत्र आदि को
| |
− | | |
− | अपनाती है ।
| |
− | | |
− | ३. जन्म लेनेवाली सन्तति के साथ पिता का कुल,
| |
− | | |
− | 99x
| |
− | | |
− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
| |
− | | |
− | गोत्र आदि जुड़ता है, माता का नहीं ।
| |
− | | |
− | ४. पिता का वंश पुत्र आगे चलाता है, माता का
| |
− | | |
− | पुत्री नहीं ।
| |
− | | |
− | ५. लड़की हमेशा दूसरे घर की होती है । जिस घर में
| |
− | | |
− | विवाह के बाद जाती है वह उसका होता है ।
| |
− | | |
− | यह व्यवस्था Teal वर्षों से चली आई है । आज भी
| |
− | | |
− | चल रही है । यदि इसके स्थान पर स्त्रीकेन्द्री व्यवस्था
| |
− | | |
− | बनाना चाहें तो नहीं बन सकती, ऐसा तो नहीं है । पुरुष
| |
− | | |
− | ससुराल जाय, पत्नी के कुल और गोत्र को स्वीकार करे,
| |
− | | |
− | सन्तानों के साथ माता का नाम जुड़े ऐसा हो सकता है ।
| |
− | | |
− | परन्तु आज ऐसा आमूल परिवर्तन करने का विचार अभी
| |
− | | |
− | किसी को नहीं आता है । हाँ, आधेअधूरे विचार कई लोगों
| |
− | | |
− | को आते हैं । उदाहरण के लिये कई लोग अपने नाम के
| |
− | | |
− | साथ माता और पिता दोनों के नाम लिखते हैं । कुछलोग
| |
− | | |
− | अपने नाम के साथ माता के कुल का नाम लगाते हैं । यह
| |
− | | |
− | तो माता को मान्यता प्रदान करने का मुद्दा है परन्तु अब
| |
− | | |
− | कुछ शिक्षित महिलायें ऐसा भी आग्रह करती दिखाई देती हैं
| |
− | | |
− | कि विवाह के बाद वे जिस प्रकार माता-पिता का घर
| |
− | | |
− | छोड़ती हैं उस प्रकार पति भी अपने माता-पिता का घर
| |
− | | |
− | छोड़ दे और वे अपना नया घर बसायें । यह न्यूक्लियर
| |
− | | |
− | फैमिली की संकल्पना है जो पश्चिम की व्यक्तिकेन्द्री
| |
− | | |
− | समाजव्यवस्था का उदाहरण है । ये सारी बातें भारत की
| |
− | | |
− | समाजव्यवस्था, परम्परा, भावना आदि का ज्ञान नहीं होने
| |
− | | |
− | का परिणाम है । वर्तमान शिक्षाव्यवस्था ही इसके लिये
| |
− | | |
− | जिम्मेदार है ।
| |
− | | |
− | पुरुष केन्द्री व्यवस्था और ol tel संचालन में
| |
− | | |
− | बहुत विरोध या असहमति नहीं दिखाई देती है क्योंकि दोनों
| |
− | | |
− | बातें काल की कसौटी पर खरी उतरी हैं और समाज में
| |
− | | |
− | प्रस्थापित हुई हैं ।
| |
− | | |
− | समाज व्यवस्था में व्यक्ति को नहीं अपितु कुट्म्ब को
| |
− | | |
− | इकाई बनाने के कारण किसी भी व्यवस्था, घटना, रचना,
| |
− | | |
− | व्यवहार पद्धति का समग्रता में विचार करना और एकात्मता
| |
− | | |
− | की साधना करना सुकर होता है । सामाजिक सम्मान
| |
− | | |
− | सुरक्षा, समृद्धि और स्वतन्त्रता भी सुलभ होते हैं; और
| |
− | | |
− | समाज में सुख, शान्ति, संस्कार, प्रतिष्ठित होते हैं।
| |
| | | |
− | ............. page-211 .............
| + | कुटुम्ब आर्थिक इकाई है । अर्थपुरुषार्थ हर कुटुम्ब को अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये करना होता है । अनेक प्रकार के व्यवसाय विकसित हुए हैं । उन व्यवसायों के आधार पर व्यक्ति की नहीं अपितु कुटुम्ब की पहचान बनती है । कुटुम्ब व्यवसाय के माध्यम से अपने लिये तो अथर्जिन करता ही है, साथ में समाज की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । व्यवसाय पूरे कुटुम्ब का होता है और पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है। कुटुम्ब का स्थायी व्यवसाय होने के कारण इसकी शिक्षा के लिये भी कुटुम्ब के बाहर जाना नहीं पड़ता, पैसा खर्च नहीं करना पड़ता, अलग से समय देने की आवश्यकता नहीं पड़ती, शिशु अवस्था से ही व्यवसाय की शिक्षा शुरू हो जाती है और अथर्जिन में सहभागिता भी शुरू हो जाती है । हर कुटुम्ब का अर्थाजन सुरक्षित हो जाता है, हर कुटुम्ब को, कुटुम्ब के हर सदस्य को उत्कृष्टता प्राप्त करना सम्भव हो जाता है। व्यवसाय कुटुम्ब का होने से हर कुटुम्ब की आर्थिक स्वतन्त्रता और स्वायत्तता की भी रक्षा होती है । समृद्धि सहज होती है । |
| | | |
− | पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
| + | विवाह सम्बन्ध केक लिए भी ईकाई कुटुम्ब ही मानी जाती है । विवाह सम्पन्न तो एक स्त्री और एक पुरुष में होता है परन्तु कुटुम्ब के सदस्य के नाते ही वर और वधू का चयन होता है । कुल और गोत्र का महत्त्व माना जाता है। पारम्परिक रूप से व्यवसाय भी वर्ण और जाति के साथ सम्बन्धित हैं इसलिये वे भी ध्यान में लिये जाते हैं । |
| | | |
− | अनाचार, हिंसा, शोषण, उत्तेजना कम होते हैं । भारतीय
| + | विवाह से केवल स्त्री और पुरुष नहीं अपितु एक कुटुम्ब दूसरे कुटुम्ब के साथ जुड़ता है । यह विज्ञान सम्मत भी है क्योंकि अधिजननशास्त्र के अनुसार बालक को पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों से संस्कार प्राप्त होते हैं, अर्थात् इतने कुट्म्बों के साथ उसका सम्बन्ध बनता है । |
| | | |
− | विचार के अनुसार तो यही विकास है । जीडीपी के पीछे | + | भावात्मक दृष्टि से कुटुम्ब स्त्री केन्द्री है। परन्तु व्यवस्था की दृष्टि से यह पुरुषकेन्द्री है । इसके संकेत क्या हैं ? |
| + | # विवाह के समय पत्नी अपने पिता का घर छोड़ कर पति के घर जाती है । |
| + | # घर के साथ अपना कुल, गोत्र, सम्पत्ति आदि भी छोड़कर जाती है और पति का कुल, गोत्र आदि को अपनाती है । |
| + | # जन्म लेनेवाली सन्तति के साथ पिता का कुल, गोत्र आदि जुड़ता है, माता का नहीं । |
| + | # पिता का वंश पुत्र आगे चलाता है, माता का पुत्री नहीं । |
| + | # लड़की हमेशा दूसरे घर की होती है । जिस घर में विवाह के बाद जाती है वह उसका होता है । |
| + | यह व्यवस्था सहस्रों वर्षों से चली आई है । आज भी चल रही है । यदि इसके स्थान पर स्त्रीकेन्द्री व्यवस्था बनाना चाहें तो नहीं बन सकती, ऐसा तो नहीं है । पुरुष ससुराल जाय, पत्नी के कुल और गोत्र को स्वीकार करे, सन्तानों के साथ माता का नाम जुड़े ऐसा हो सकता है । परन्तु आज ऐसा आमूल परिवर्तन करने का विचार अभी किसी को नहीं आता है । हाँ, आधेअधूरे विचार कई लोगों को आते हैं । उदाहरण के लिये कई लोग अपने नाम के साथ माता और पिता दोनों के नाम लिखते हैं । कुछ लोग अपने नाम के साथ माता के कुल का नाम लगाते हैं । यह तो माता को मान्यता प्रदान करने का मुद्दा है परन्तु अब कुछ शिक्षित महिलायें ऐसा भी आग्रह करती दिखाई देती हैं कि विवाह के बाद वे जिस प्रकार माता-पिता का घर छोड़ती हैं उस प्रकार पति भी अपने माता-पिता का घर छोड़ दे और वे अपना नया घर बसायें । यह न्यूक्लियर फैमिली की संकल्पना है जो पश्चिम की व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था का उदाहरण है । ये सारी बातें भारत की समाजव्यवस्था, परम्परा, भावना आदि का ज्ञान नहीं होने का परिणाम है । वर्तमान शिक्षाव्यवस्था ही इसके लिये जिम्मेदार है । |
| | | |
− | पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है । | + | पुरुष केन्द्री व्यवस्था और स्त्री केंद्री संचालन में बहुत विरोध या असहमति नहीं दिखाई देती है क्योंकि दोनों बातें काल की कसौटी पर खरी उतरी हैं और समाज में प्रस्थापित हुई हैं । समाज व्यवस्था में व्यक्ति को नहीं अपितु कुटुम्ब को इकाई बनाने के कारण किसी भी व्यवस्था, घटना, रचना, व्यवहार पद्धति का समग्रता में विचार करना और एकात्मता की साधना करना सुकर होता है । सामाजिक सम्मान सुरक्षा, समृद्धि और स्वतन्त्रता भी सुलभ होते हैं; और समाज में सुख, शान्ति, संस्कार, प्रतिष्ठित होते हैं। अनाचार, हिंसा, शोषण, उत्तेजना कम होते हैं । भारतीय विचार के अनुसार तो यही विकास है । जीडीपी के पीछे पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है । |
| | | |
| == स्वायत्त कुटुम्ब स्वायत्त समाज बनाता है == | | == स्वायत्त कुटुम्ब स्वायत्त समाज बनाता है == |
− | भारतीय कुट्म्ब स्वायत्त है। स्वायत्त Hers a | + | भारतीय कुटुम्ब स्वायत्त है। स्वायत्त Hers a |
| | | |
| स्वतन्त्र भी होता है । इस कथन का क्या अर्थ है ? | | स्वतन्त्र भी होता है । इस कथन का क्या अर्थ है ? |
| | | |
− | १, स्वायत्त कुट्म्ब अपनी जिम्मेदारी पर चलता है । | + | १, स्वायत्त कुटुम्ब अपनी जिम्मेदारी पर चलता है । |
| | | |
| अपने लिये आवश्यक वस्तुयें स्वयं की जिम्मेदारी पर प्राप्त | | अपने लिये आवश्यक वस्तुयें स्वयं की जिम्मेदारी पर प्राप्त |
Line 309: |
Line 53: |
| करता है और व्यवस्थायें स्वयं बना लेता है । अपना तन्त्र | | करता है और व्यवस्थायें स्वयं बना लेता है । अपना तन्त्र |
| | | |
− | स्वयं बिठाता & | Hers से बाहर का कोई व्यक्ति कुट्म्ब के | + | स्वयं बिठाता & | Hers से बाहर का कोई व्यक्ति कुटुम्ब के |
| | | |
| मामले तय नहीं करता । उदाहरण के लिये घर में क्या खाना | | मामले तय नहीं करता । उदाहरण के लिये घर में क्या खाना |
Line 327: |
Line 71: |
| में लाना इसका निर्णय sft Herat स्वयं करता है । संक्षेप में | | में लाना इसका निर्णय sft Herat स्वयं करता है । संक्षेप में |
| | | |
− | अपने जीवन से सम्बन्धित सारे निर्णय कुट्म्ब ही करता है । | + | अपने जीवन से सम्बन्धित सारे निर्णय कुटुम्ब ही करता है । |
| | | |
| व्यावहारिक जीवन के सभी आयामों में स्वायत्तता | | व्यावहारिक जीवन के सभी आयामों में स्वायत्तता |
Line 335: |
Line 79: |
| उसके आधार पर रीतियाँ भी बनी हुई हैं । उदाहरण के लिये | | उसके आधार पर रीतियाँ भी बनी हुई हैं । उदाहरण के लिये |
| | | |
− | कुट्म्ब कितना भी स्वतन्त्र और स्वायत्त हो तो भी व्यवसाय
| + | कुटुम्ब कितना भी स्वतन्त्र और स्वायत्त हो तो भी व्यवसाय |
| | | |
| निश्चिति के क्षेत्र में वह स्वायत्त नहीं है । वह सरलता से | | निश्चिति के क्षेत्र में वह स्वायत्त नहीं है । वह सरलता से |
Line 351: |
Line 95: |
| Gat है, असम्भव नहीं । यह दुष्कर इसलिये हैं क्योंकि | | Gat है, असम्भव नहीं । यह दुष्कर इसलिये हैं क्योंकि |
| | | |
− | इससे अनेक कुट्म्ब प्रभावित होते हैं । उनके लिये कठिनाई | + | इससे अनेक कुटुम्ब प्रभावित होते हैं । उनके लिये कठिनाई |
| | | |
| भी निर्माण हो सकती है । इन सबका निवारण करने की | | भी निर्माण हो सकती है । इन सबका निवारण करने की |
Line 399: |
Line 143: |
| संस्कार, खानपान, वस्त्रालंकार, गृहसज्ञा आदि विषयों में | | संस्कार, खानपान, वस्त्रालंकार, गृहसज्ञा आदि विषयों में |
| | | |
− | कुट्म्ब स्वायत्त है । वह इकाई है ।
| + | कुटुम्ब स्वायत्त है । वह इकाई है । |
| | | |
| ३. सभी आर्थिक, स्थानिक न्याय, शिक्षा आदि बातों | | ३. सभी आर्थिक, स्थानिक न्याय, शिक्षा आदि बातों |
Line 421: |
Line 165: |
| स्वरूप के कारण स्वायत्तता की रक्षा सहज सुलभ होती है । | | स्वरूप के कारण स्वायत्तता की रक्षा सहज सुलभ होती है । |
| | | |
− | इसीलिये हम कह सकते हैं कि स्वायत्त कुट्म्ब | + | इसीलिये हम कह सकते हैं कि स्वायत्त कुटुम्ब |
| | | |
| स्वायत्त समाज बनाता है । | | स्वायत्त समाज बनाता है । |
Line 530: |
Line 274: |
| “परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीडा सम नहीं | | “परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीडा सम नहीं |
| | | |
− | अधमाई' के सूत्र पर कुट्म्ब जीवन से शुरू होकर | + | अधमाई' के सूत्र पर कुटुम्ब जीवन से शुरू होकर |
| | | |
| सम्पूर्ण समाज का व्यवहार चलता है । इस सूत्र से ही | | सम्पूर्ण समाज का व्यवहार चलता है । इस सूत्र से ही |
Line 553: |
Line 297: |
| पितूकऋण और उससे उक्रण होने की संकल्पना को | | पितूकऋण और उससे उक्रण होने की संकल्पना को |
| | | |
− | साकार करना कुट्म्ब के लिये परम कर्तव्य है । वर्तमान | + | साकार करना कुटुम्ब के लिये परम कर्तव्य है । वर्तमान |
| | | |
| पीढ़ी को ज्ञान, कौशल, संस्कार, समृद्धि, व्यवसाय अपने | | पीढ़ी को ज्ञान, कौशल, संस्कार, समृद्धि, व्यवसाय अपने |
Line 561: |
Line 305: |
| भारतीय मानस में गहरी बैठी है । इस ऋण से मुक्त होने के | | भारतीय मानस में गहरी बैठी है । इस ऋण से मुक्त होने के |
| | | |
− | लिये हर कुट्म्ब को प्रयास करना है । जिससे मिला उसे | + | लिये हर कुटुम्ब को प्रयास करना है । जिससे मिला उसे |
| | | |
| वापस नहीं किया जाता । अतः जिसे दे सर्के ऐसी नई पीढ़ी | | वापस नहीं किया जाता । अतः जिसे दे सर्के ऐसी नई पीढ़ी |
Line 589: |
Line 333: |
| ''स्मरणार्थ चलने वाले सभी प्रकल्पों का आयोजन होता है।.... किये गये हैं । एक और अज्ञान और दूसरी ओर विरोध की'' | | ''स्मरणार्थ चलने वाले सभी प्रकल्पों का आयोजन होता है।.... किये गये हैं । एक और अज्ञान और दूसरी ओर विरोध की'' |
| | | |
− | ''चपेट में आकर आज कुट्म्ब और समाज संकटग्रस्त हो गये'' | + | ''चपेट में आकर आज कुटुम्ब और समाज संकटग्रस्त हो गये'' |
| | | |
− | ''७. कुट्म्ब की इस रचना ने भारतीय समाज को हैं । व्यवस्थायें बिखर गई हैं और समाज तूफान में बिना'' | + | ''७. कुटुम्ब की इस रचना ने भारतीय समाज को हैं । व्यवस्थायें बिखर गई हैं और समाज तूफान में बिना'' |
| | | |
| ''चिरजीविता प्रदान की है । पतवार की नौका के समान भटक रहा है । इस संकट से'' | | ''चिरजीविता प्रदान की है । पतवार की नौका के समान भटक रहा है । इस संकट से'' |