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− | आज की शिक्षा का दुर्दैव से कोई प्रमुख पक्ष है तो वह आधारभूत संकल्पनाओं का पाश्चात्य होना है<ref name=":0">धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। | + | == मनोविज्ञान का मूल वेद है == |
| + | आज की शिक्षा का दुर्दैव से कोई प्रमुख पक्ष है तो वह आधारभूत संकल्पनाओं का पाश्चात्य होना है<ref name=":0">धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। शिक्षा के सिद्धान्तों में से एक है, मनोविज्ञान । आज हम पाश्चात्य विचारों में मनोविज्ञान का मूल खोजते हैं । उसे ही पढ़ाते भी हैं, परन्तु वास्तव में इसका मूल तो वेदों और उपनिषदों में है। |
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− | मनोविज्ञान का मूल वेद है व्यवधान उत्पन्न न हो। दूसरा यह कि गुरु शिष्य के
| + | उपर्युक्त शीर्षक 'मा विद्विषावहैं' कठोपनिषद के शान्ति पाठ अथवा शान्तिमंत्र का एक वाक्य है। |
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− | त्रिविधताप की शान्ति हो । सबको यह जानकारी हो जाय
| + | वैसे तो उपनिषदों में कुल छः शान्ति पाठ है । प्रत्येक शान्तिपाठ का अपना अपना महत्त्व है, परन्तु हम यहाँ ॐ सहनाववतु शान्तिपाठ पर ही विचार करेंगे । क्योंकि यह सीधा सीधा भारतीय शिक्षा प्रक्रिया से जुड़ा हुआ मंत्र है । इस शान्तिमंत्र में गुरु एवं शिष्य दोनों मिलकर प्रार्थना करते हैं । |
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− | । इसलिए शान्तिपाठ के अन्त में 3» शान्तिः शात्तिः | + | हमारे यहाँ समाजजीवन में जिस प्रकार प्रत्येक मांगलिक कार्य के प्रारम्भ और अन्त में इष्ट देवता को नमस्कार एवं प्रार्थना करके प्रारंभ में मंगलाचरण होता है, ठीक उसी प्रकार जिन गुरुकुलों में उपनिषदों का अध्ययनअध्यापन होता था, वहाँ अध्ययन के प्रारम्भ व अन्त में यह शांति पाठ किया जाता था । अध्ययन पूर्व शान्तिपाठ करने के दो उद्देश्य हो सकते हैं । पहला यह कि इस पाठ के करने से गुरु शिष्य के मन शान्त हों, एकाग्र हों एवं ईश कृपा से अध्ययन में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो। दूसरा यह कि गुरु शिष्य के त्रिविधताप की शान्ति हो । सबको यह जानकारी हो जाय इसलिए शान्तिपाठ के अन्त में 'ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः' ऐसे तीन बार शान्तिः शब्द का उच्चारण किया जाता है। |
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− | शिक्षा के सिद्धान्तों में से एक है, मनोविज्ञान । आज शान्तिः' ऐसे तीन बार शान्ति: शब्द का उच्चारण किया
| + | ॐ सहनाववतु इस शान्तिमंत्र का विशेष महत्त्व इसलिए भी है कि यह गुरु और शिष्य की जोड़ी से सम्बन्धित है। यह मंत्र गुरु शिष्य की जोड़ी एक साथ मिलकर बोलती है । गुरु और शिष्य का सम्बन्ध कैसा होना चाहिए यह इस मंत्र के अन्तिम चरण ‘मा विद्विषावहै' में बताया गया है जो हम सबके लिए अत्यन्त विचारणीय है। |
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− | हम पाश्चात्य विचारों में मनोविज्ञान का मूल खोजते हैं । उसे... पी है। _—
| + | इस मंत्र की एक और विशेषता यह है कि कुछ शब्दों में तनिक परिवर्तन कर देने से यह मंत्र समूह अथवा समाज के कल्याण हेतु उपयोगी एक सामूहिक एवं सामाजिक प्रार्थना बन सकती है। |
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− | ही पढ़ाते भी हैं, परन्तु वास्तव में इसका मूल तो वेदों और 3 सहनाववतु इस शान्तिमंत्र का विशेष महत्त्व
| + | ऐसे वैशिष्टयपूर्ण शान्तिमंत्र - 'ॐ सहनाववतु' का विस्तारपूर्वक विचार हम यहाँ कर रहे हैं। |
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− | उपनिषदों में है । इसलिए भी है कि यह गुरु और शिष्य की जोड़ी से
| + | यह पूर्णमंत्र इस प्रकार है<ref>Krishna Yajurveda Taittiriya Upanishad (2.2.2)</ref>:<blockquote>'ॐ सहनाववतु ॥१॥ </blockquote><blockquote>सहनौ भुनक्तु ॥२॥</blockquote><blockquote>सह वीर्यं करवावहै ॥३॥ </blockquote><blockquote>तेजस्विना वधीतमस्तु ।।४ ॥ </blockquote><blockquote>मा विद्विषावहै ॥५॥</blockquote>मंत्र का शब्दशः अर्थ यह है - ॐ रूपी ब्रह्म या ईश्वर हम दोनों (गुरु और शिष्य) पर एक साथ कृपा करे, हमारा रक्षण अथवा पालन करे, हम दोनों साथ मिलकर प्रयत्न करें, हमारा अध्ययन तेजस्वी बनें, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें । अब, इस मंत्र का विस्तार से विचार करते हैं । ॐ यह अक्षर ब्रह्म का परिचायक है । ॐ एकाक्षर ब्रह्म है । ब्रह्म ही परमोच्च ईश्वर है यह कहना सर्वथा उचित है । ब्रह्म अथवा ईश्वर ही जगत् का अन्तिम एवं श्रेष्ठ तत्त्व है । उसने ही इस विश्व का सृजन किया है । ईश्वर ही इस जगत् का सृजक, पालक एवं संहारक है । हम सब यह कहते ही हैं कि “यह सब ईश्वर की लीला है।' सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है । मनुष्य की इच्छानुसार सब कुछ होता है ऐसा नहीं है । ईश्वर के मन में जो होता है वही बनता है । ईश्वर की इच्छा अनुकूल होने पर ही मनुष्य का भला होता है । इसलिए सर्वसमर्थ ईश्वर की कृपा हम दोनों को प्राप्त हो ऐसी अपेक्षा गुरु एवं शिष्य प्रथम वाक्य में व्यक्त करते हैं । ईश्वर की कृपा गुरु और शिष्य दोनों पर होनी आवश्यक है । अकेले गुरु अथवा अकेले शिष्य पर होगी तो नहीं चलेगा । ईश्वर की कृपा होने के पश्चात् ही गुरु और शिष्य प्रसन्न मन से अध्ययन अध्यापन कार्य प्रारम्भ कर सकते हैं । |
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− | उपर्युक्त शीर्षक मा विद्विषावहै' कठोपनिषद के सम्बन्धित है। यह मंत्र गुरु शिष्य की जोड़ी एक साथ
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− | शान्ति पाठ अथवा शान्तिमंत्र का एक वाक्य है । मिलकर बोलती है । गुरु और शिष्य का सम्बन्ध कैसा होना
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− | वैसे तो उपनिषदों में कुल छः शान्ति पाठ है । प्रत्येक... चाहिए यह इस मंत्र के अन्तिम चरण मा विद्विषावहै में
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− | शान्तिपाठ का अपना अपना महत्त्व है, परन्तु हम यहाँ 3»... या गया है जो हम सबके लिए अत्यन्त विचारणीय है wai
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− | सहनाववतु... शान्तिपाठ पर ही विचार करेंगे । क्योंकि यह न इस मंत्र की एक और विशेषता यह है कि कुछ शब
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− | सीधा सीधा भारतीय शिक्षा प्रक्रिया से जुड़ा हुआ मंत्र है । में तनिक परिवर्तन कर देने से यह मंत्र समूह अथवा समाज
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− | इस शान्तिमंत्र में गुरु एवं शिष्य दोनों मिलकर प्रार्थना करते के कल्याण हेतु उपयोगी एक सामूहिक एवं सामाजिक
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− | हैं। प्रार्थथा बन सकती है ।
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− | हमारे यहाँ समाजजीवन में जिस प्रकार प्रत्येक ऐसे वैशिष्टयपूर्ण शान्तिमंत्र - “3 सहनाववतु' का
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− | मांगलिक कार्य के प्रारम्भ और अन्त में इष्ट देवता को विस्तारपूर्वक विचार हम यहाँ कर रहे हैं ।
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− | नमस्कार एवं प्रार्थना करके प्रारंभ में मंगलाचरण होता है, यह पूर्णमंत्र इस प्रकार है :
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− | ठीक उसी प्रकार जिन गुरुकुलों में उपनिषदों का अध्ययन- “35% सहनाववतु 11१ ।। सहनौ भुनक्कु ।।२ ।। सह
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− | अध्यापन होता था, वहाँ अध्ययन के प्रारम्भ व अन्त में... वीर्य करवावहै ।।३ ।। तेजस्विना वधीतमस्तु ।।४ ।। मा
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− | प्रयत्न करें, हमारा अध्ययन तेजस्वी बनें, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें । अब, इस मंत्र का विस्तार से विचार करते हैं । ॐ यह अक्षर ब्रह्म का परिचायक है । ॐ एकाक्षर ब्रह्म है । ब्रह्म ही परमोच्च ईश्वर है यह कहना सर्वथा उचित है । ब्रह्म अथवा ईश्वर ही जगत् का अन्तिम एवं श्रेष्ठ तत्त्व है । उसने ही इस विश्व का सृजन किया है । ईश्वर ही इस जगत् का सृजक, पालक एवं संहारक है । हम सब यह कहते ही हैं कि “यह सब ईश्वर की लीला है।' सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है । मनुष्य की इच्छानुसार सब कुछ होता है ऐसा नहीं है । ईश्वर के मन में जो होता है वही बनता है । ईश्वर की इच्छा अनुकूल होने पर ही मनुष्य का भला होता है । इसलिए सर्वसमर्थ ईश्वर की कृपा हम दोनों को प्राप्त हो ऐसी अपेक्षा गुरु एवं शिष्य प्रथम वाक्य में व्यक्त करते हैं । ईश्वर की कृपा गुरु और शिष्य दोनों पर होनी आवश्यक है । अकेले गुरु अथवा अकेले शिष्य पर होगी तो नहीं चलेगा । ईश्वर की कृपा होने के पश्चात् ही गुरु और शिष्य प्रसन्न मन से अध्ययन अध्यापन कार्य प्रारम्भ कर सकते हैं । | |
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| == गुरुशिष्य दोनों की रक्षा हो == | | == गुरुशिष्य दोनों की रक्षा हो == |