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== विद्यार्थी शिक्षक का मानस पुत्र ==
 
== विद्यार्थी शिक्षक का मानस पुत्र ==
शिक्षक और विद्यार्थी को आचार्य और अंतेवासी
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* शिक्षक और विद्यार्थी को आचार्य और अंतेवासी कहा गया है । उपनिषद्‌ कहता है कि आचार्य पूर्वरूप है, अंतेवासी उत्तररूप है, प्रवचन अर्थात्‌ अध्यापन और अध्ययन की क्रिया संधान है और विद्या सन्धि है। तैत्तिरीय उपनिषद्‌ में बताया है<ref>तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक :3  श्लोक संख्या :4</ref>
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<blockquote>आचार्यः पूर्वरूपम्। अन्तेवास्युत्तररूपम्।</blockquote><blockquote>विद्या सन्धिः। प्रवचन्ँसन्धानम्। इत्यधिविद्यम्।।1.3.4।।</blockquote>
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* दो शब्दों की सन्धि होने पर जिस प्रकार एक ही शब्द बन जाता है ( उदाहरण के लिए गण - ईश - गणेश ) उसी प्रकार अध्ययन और अध्यापन करते हुए शिक्षक और विद्यार्थों दो नहीं रहते, एक ही व्यक्तित्व बन जाते हैं । इतना घनिष्ठ सम्बन्ध शिक्षक और विद्यार्थी का होना अपेक्षित है । शिक्षक का विद्यार्थी के लिए वात्सल्यभाव और विद्यार्थी का शिक्षक के लिए आदर तथा दोनों की विद्याप्रीति के कारण से ऐसा सम्बन्ध बनता है । ऐसा सम्बन्ध बनता है तभी विद्या निष्पन्न होती है अर्थात्‌ ज्ञान का उदय होता है अर्थात्‌ विद्यार्थी ज्ञानार्जन करता है । विद्यार्थी को शिक्षक का मानसपुत्र कहा गया है जो देहज पुत्र से भी अधिक प्रिय होता है ।
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कहा गया है । उपनिषद्‌ कहता है कि आचार्य पूर्वरूप
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* शिक्षक को विद्यार्थी इसलिए प्रिय नहीं होता क्योंकि वह उसकी सेवा करता है, विनय दर्शाता है या अच्छी दक्षिणा देने वाला है । विद्यार्थी शिक्षक को इसलिए प्रिय होता है क्योंकि विद्यार्थी को विद्या प्रिय है । विद्यार्थी के लिए शिक्षक इसलिए आदरणीय नहीं है क्योंकि वह उसका पालनपोषण और रक्षण करता है और प्रेमपूर्ण व्यवहार करता है । शिक्षक इसलिए आदरणीय है क्योंकि वह विद्या के प्रति प्रेम रखता है । दोनों एकदूसरे को विद्याप्रीति के कारण ही प्रिय हैं । उनका सम्बन्ध जोड़ने वाली विद्या ही है । दोनों मिलकर ज्ञानसाधना करते हैं ।
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है, अंतेवासी उत्तररूप है, प्रवचन अर्थात्‌ अध्यापन
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* शिक्षक और विद्यार्थी में अध्ययन होता कैसे है ? दोनों साथ रहते हैं । साथ रहना अध्ययन का उत्तम प्रकार है। साथ रहते रहते विद्यार्थी शिक्षक का व्यवहार देखता है। साथ रहते रहते ही शिक्षक के व्यवहार के स्थूल और सूक्ष्म स्वरूप को समझता है। शिक्षक के विचार और भावनाओं को ग्रहण करता है और उसके रहस्यों को समझता है। शिक्षक की सेवा करते करते, उसका व्यवहार देखते देखते, उससे जानकारी प्राप्त करते करते वह शिक्षक की दृष्टि और दृष्टिकोण भी ग्रहण करता है । उसके हृदय को ग्रहण करता है । अध्ययन केवल शब्द सुनकर नहीं होता, शब्द तो केवल जानकारी है। अध्ययन जानकारी नहीं है। अध्ययन समझ है, अध्ययन अनुभव है, अध्ययन दृष्टि है जो शिक्षक के साथ रहकर, उससे संबन्धित होकर ही प्राप्त होने वाले तत्त्व हैं ।
 
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* शिक्षक और विद्यार्थी को आचार्य और छात्र भी कहा जाता है। आचार्य संज्ञा बहुत अर्थपूर्ण है। जो शास्त्रार्थों को चुनता है, उन्हें आचार में स्थापित करता है, स्वयं भी आचरण में लाता है वह आचार्य है। शास्त्रार्थ को चुनता है का अर्थ है शास्त्र को व्यवहारक्षम बनाता है । अर्थात शिक्षक का व्यवहार शास्त्र के अनुसार होता है । शास्त्रीयता ही वैज्ञानिकता है। वर्तमान की बौद्धिकों में प्रिय संज्ञा वैज्ञानिकता है । उसके अनुसार शिक्षक का व्यवहार विज्ञाननिष्ठ होना चाहिए । जिसका व्यवहार विज्ञाननिष्ठ अर्थात शास्त्रनिष्ठ है वही शिक्षक बन सकता है। ऐसे आचरण को वह विद्यार्थी के आचरण में स्थापित करता है । अपने स्वयं के उदाहरण से विद्यार्थी को शास्त्रनिष्ठ आचरण सिखाना शिक्षक का काम है । आचार्य और सन्त में यही अन्तर है । सन्त अच्छे आचरण का उपदेश देता है परन्तु उपदेश के अनुसार आचरण करना कि नहीं यह नहीं देखता । उपदेश सुनने वाले की मति के ऊपर उसका आचरण निर्भर करता है । परन्तु आचार्य केवल उपदेश नहीं करता । वह विद्यार्थी से उसका आचरण भी करवाता है । अपने आचरण से जो छात्र का जीवन गढ़ता है वही आचार्य है । विद्यार्थी को छात्र कहा गया है । इसका अर्थ यह है कि उसके ऊपर आचार्य का छत्र है । अर्थात्‌ आचार्य पूर्ण रूप से विद्यार्थी का रक्षण करता है। ऐसा आत्मीय सम्बन्ध होने से ही अध्ययन हो सकता है ।
और अध्ययन की क्रिया संधान है और विद्या सन्धि
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* इसका अर्थ यह है कि शिक्षक को केवल विषय नहीं पढ़ाना चाहिये । उसे जीवन की शिक्षा देनी चाहिये । विषय को व्यवहार के साथ जोड़कर तथा विद्यार्थी के व्यवहार की चिंता कर, उसे व्यवहार सिखाकर ही अध्ययन सार्थक होता है । इस सन्दर्भ में आज की स्थिति इतनी भयानक है कि अच्छे विद्यार्थी दुर्लभ हो गये हैं और अच्छे शिक्षक दुःखी हैं । आज विद्यार्थी को आचरण सीखाना या उससे अच्छे आचरण की अपेक्षा करना असम्भव हो गया है । शिक्षक को विद्यार्थियों से डरना पड़ता है । आजकल जिनकी नवाचार के नाम पर बोलबाला है और उपकरणों के उपयोग का आग्रह है उन पाठन पद्धतियों का और उपकरणों का सार्थक और समग्र अध्ययन में बहुत ही कम महत्त्व है। जो शिक्षक अपने विद्यार्थी को जानता है, उसकी वृत्ति प्रवृत्ति और क्षमता को पहचानता है वह विषय के अनुरूप, विद्यार्थी के अनुकूल पाठन पद्धति स्वयं ही निर्माण कर लेता है । तैयार उपकरण और किसी और के द्वारा बताई हुई या जिसका सामान्यीकरण किया गया है ऐसी पाठन पद्धति काम में नहीं आती । वह यान्त्रिक होती है और जीवमान शिक्षक, जीवमान विद्यार्थी और जीवमान अध्ययन के लिए सर्वथा निरर्थक होती है ।
 
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है। ... आचार्य: पूर्वरूपमू । अंतेवासी उत्तररूपम ।
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विद्या सन्धि: । प्रवचनम संधानाम । ( तैत्तिरीय
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उपनिषद्‌ .... ) दो शब्दों की सन्धि होने पर जिस
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प्रकार एक ही शब्द बन जाता है ( उदाहरण के लिए
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गण - ईश - गणेश ) उसी प्रकार अध्ययन और
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अध्यापन करते हुए शिक्षक और विद्यार्थों दो नहीं
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रहते, एक ही व्यक्तित्व बन जाते हैं । इतना घनिष्ठ
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सम्बन्ध शिक्षक और विद्यार्थी का होना अपेक्षित है ।
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शिक्षक का विद्यार्थी के लिए वात्सल्यभाव और
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विद्यार्थी का शिक्षक के लिए आदर तथा दोनों की
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विद्याप्रीति के कारण से ऐसा सम्बन्ध बनता है । ऐसा
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सम्बन्ध बनता है तभी विद्या निष्पन्न होती है अर्थात्‌
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ज्ञान का उदय होता है अर्थात्‌ विद्यार्थी ज्ञानार्जन
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करता है । विद्यार्थी को शिक्षक का मानसपुत्र कहा
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गया है जो देहज पुत्र से भी अधिक प्रिय होता है ।
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शिक्षक को विद्यार्थी इसलिए प्रिय नहीं होता क्योंकि
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वह उसकी सेवा करता है, विनय दर्शाता है या
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अच्छी दक्षिणा देने वाला है । विद्यार्थी शिक्षक को
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इसलिए प्रिय होता है क्योंकि विद्यार्थी को विद्या प्रिय
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है । विद्यार्थी के लिए शिक्षक इसलिए आदरणीय नहीं
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है क्योंकि वह उसका पालनपोषण और रक्षण करता
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है और प्रेमपूर्ण व्यवहार करता है । शिक्षक इसलिए
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आदरणीय है क्योंकि वह विद्या के प्रति प्रेम रखता
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है । दोनों एकदूसरे को विद्याप्रीति के कारण ही प्रिय
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हैं । उनका सम्बन्ध जोड़ने वाली विद्या ही है । दोनों
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मिलकर ज्ञानसाधना करते हैं ।
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BGR
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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शिक्षक और विद्यार्थी में अध्ययन होता कैसे है ?
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दोनों साथ रहते हैं । साथ रहना अध्ययन का उत्तम
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प्रकार है। साथ रहते रहते विद्यार्थी शिक्षक का
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व्यवहार देखता है । साथ रहते रहते ही शिक्षक के
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व्यवहार के स्थूल और सूक्ष्म स्वरूप को समझता
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है। शिक्षक के विचार और भावनाओं को ग्रहण
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करता है और उसके रहस्यों को समझता है । शिक्षक
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की सेवा करते करते, उसका व्यवहार देखते देखते,
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उससे जानकारी प्राप्त करते करते वह शिक्षक की दृष्टि
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और दृष्टिकोण भी ग्रहण करता है । उसके हृदय को
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ग्रहण करता है । अध्ययन केवल शब्द सुनकर नहीं
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होता, शब्द तो केवल जानकारी है। अध्ययन
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जानकारी नहीं है। अध्ययन समझ है, अध्ययन
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अनुभव है, अध्ययन दृष्टि है जो शिक्षक के साथ
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रहकर, उससे संबन्धित होकर ही प्राप्त होने वाले
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तत्त्व हैं ।
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शिक्षक और विद्यार्थी को आचार्य और छात्र भी कहा
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जाता है। आचार्य संज्ञा बहुत अर्थपूर्ण है। जो
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शाख््रार्थों को चुनता है, उन्हें आचार में स्थापित
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करता है, स्वयं भी आचरण में लाता है वह आचार्य
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है। शास्त्रार्थ को चुनता है का अर्थ है शाख्र को
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व्यवहारक्षम बनाता है । अर्थात शिक्षक का व्यवहार
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शाख्त्र के अनुसार होता है । शास्त्रीयता ही वैज्ञानिकता
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है। वर्तमान की बौद्धिकों में प्रिय संज्ञा वैज्ञानिकता
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है । उसके अनुसार शिक्षक का व्यवहार विज्ञाननिष्ठ
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होना चाहिए । जिसका व्यवहार विज्ञाननिष्ठ अर्थात
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शाख्रनिष्ठ है वही शिक्षक बन सकता है। ऐसे
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आचरण को वह विद्यार्थी के आचरण में स्थापित
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करता है । अपने स्वयं के उदाहरण से विद्यार्थी को
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शाख्रनिष्ठ आचरण सिखाना शिक्षक का काम है ।
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आचार्य और सन्त में यही अन्तर है । सन्त अच्छे
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आचरण का उपदेश देता है परन्तु उपदेश के अनुसार
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आचरण करना कि नहीं यह नहीं देखता । उपदेश
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सुनने वाले की मति के ऊपर उसका आचरण निर्भर
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पर्व ४ : शिक्षक, विद्यार्थी एवं अध्ययन
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करता है । परन्तु आचार्य केवल उपदेश नहीं करता ।
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वह विद्यार्थी से उसका आचरण भी करवाता है ।
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अपने आचरण से जो छात्र का जीवन गढ़ता है वही
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आचार्य है । विद्यार्थी को छात्र कहा गया है । इसका
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अर्थ यह है कि उसके ऊपर आचार्य का छत्र है ।
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अर्थात्‌ आचार्य पूर्ण रूप से विद्यार्थी का रक्षण करता
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है। ऐसा आत्मीय सम्बन्ध होने से ही अध्ययन हो
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सकता है ।
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इसका अर्थ यह है कि शिक्षक को केवल विषय नहीं
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पढ़ाना चाहिये । उसे जीवन की शिक्षा देनी चाहिये ।
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विषय को व्यवहार के साथ जोड़कर तथा विद्यार्थी के
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व्यवहार की चिंता कर, उसे व्यवहार सीखाकर ही
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अध्ययन सार्थक होता है । इस सन्दर्भ में आज की
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स्थिति इतनी भयानक है कि अच्छे विद्यार्थी दुर्लभ हो
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गये हैं और अच्छे शिक्षक दुःखी हैं । आज विद्यार्थी
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को आचरण सीखाना या उससे अच्छे आचरण की
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अपेक्षा करना असम्भव हो गया है । शिक्षक को
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विद्यार्थियों से डरना पड़ता है ।
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आजकल जिनकी नवाचार के नाम पर बोलबाला है
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और उपकरणों के उपयोग का आग्रह है उन पाठन
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पद्धतियों का और उपकरणों का सार्थक और समग्र
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अध्ययन में बहुत ही कम महत्त्व है। जो शिक्षक
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अपने विद्यार्थी को जानता है, उसकी वृत्ति प्रवृत्ति
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और क्षमता को पहचानता है वह विषय के अनुरूप,
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विद्यार्थी के अनुकूल पाठन पद्धति स्वयं ही निर्माण
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कर लेता है । तैयार उपकरण और किसी और के
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द्वारा बताई हुई या जिसका सामान्यीकरण किया गया
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है ऐसी पाठन पद्धति काम में नहीं आती । वह
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यान्त्रिक होती है और जीवमान शिक्षक, जीवमान
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विद्यार्थी और जीवमान अध्ययन के लिए सर्वथा
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निर्स्थक होती है ।
      
== समग्रता में सिखाना ==
 
== समग्रता में सिखाना ==

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