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| कई लोग प्रश्न करते हैं कि परमात्मा ज्ञानस्वरूप है और विश्व में सब कुछ परमात्मा ही है तो फिर अज्ञान कहाँ से आया <ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>? विश्व में जो कुछ भी है वह भी सब ज्ञानस्वरूप ही होना चाहिये। हम देखते हैं कि अज्ञानजनित समस्याओं से ही सारा विश्व ग्रस्त हो गया है । हम यदि कहें कि विश्व कि सारी समस्याओं का मूल ही अज्ञान है तो अनुचित नहीं है। इसे ठीक से समझना चाहिये। जब परमात्मा ने विश्वरूप बनने का प्रारंभ किया तो सर्व प्रथम द्वंद्व निर्माण हुआ। यह द्वंद्व क्या है? यह युग्म है। एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। एकदूसरे से विपरीत स्वभाववाला है। एकदूसरे को पूरक है। द्वंद्व के दोनों पक्ष एकदूसरे के बिना अधूरे हैं। दोनों मिलकर ही पूर्ण होते हैं । दोनों एक पूर्ण के ही दो पक्ष हैं। एक है तो दूसरा है ही। इसलिये विश्वरूप में ज्ञान है तो अज्ञान भी है । परमात्मा जब विश्वरूप बना तो प्रथम एक से दो बना । मनीषी उसके भिन्न भिन्न नाम बताते हैं। | | कई लोग प्रश्न करते हैं कि परमात्मा ज्ञानस्वरूप है और विश्व में सब कुछ परमात्मा ही है तो फिर अज्ञान कहाँ से आया <ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>? विश्व में जो कुछ भी है वह भी सब ज्ञानस्वरूप ही होना चाहिये। हम देखते हैं कि अज्ञानजनित समस्याओं से ही सारा विश्व ग्रस्त हो गया है । हम यदि कहें कि विश्व कि सारी समस्याओं का मूल ही अज्ञान है तो अनुचित नहीं है। इसे ठीक से समझना चाहिये। जब परमात्मा ने विश्वरूप बनने का प्रारंभ किया तो सर्व प्रथम द्वंद्व निर्माण हुआ। यह द्वंद्व क्या है? यह युग्म है। एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। एकदूसरे से विपरीत स्वभाववाला है। एकदूसरे को पूरक है। द्वंद्व के दोनों पक्ष एकदूसरे के बिना अधूरे हैं। दोनों मिलकर ही पूर्ण होते हैं । दोनों एक पूर्ण के ही दो पक्ष हैं। एक है तो दूसरा है ही। इसलिये विश्वरूप में ज्ञान है तो अज्ञान भी है । परमात्मा जब विश्वरूप बना तो प्रथम एक से दो बना । मनीषी उसके भिन्न भिन्न नाम बताते हैं। |
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− | कहीं वह ब्रह्म और माया बना, कहीं वह पुरुष और प्रकृति बना, कहीं वह जड और चेतन बना । उसी प्रकार ज्ञान और | + | कहीं वह ब्रह्म और माया बना, कहीं वह पुरुष और प्रकृति बना, कहीं वह जड और चेतन बना। उसी प्रकार ज्ञान और अज्ञान को देखना चाहिये। लगभग सभी इन्हें अनादि मानते हैं। जब तक विश्व है ये दोनों ही रहेंगे। परंतु मनीषी दो में से एक को सत्य और दूसरे को असत्य, आभासी या मिथ्या मानते हैं। जैसे कि भगवान शंकराचार्य ब्रह्म को सत्य और माया को मिथ्या मानते हैं। अत: अज्ञान आभासी है, ज्ञान सत्य है। हमें अज्ञान से ज्ञान की ओर जाना है। असत्य से सत्य की ओर जाना है। आभास से वास्तव की ओर जाना है। द्वंद्व से निर्द्वन्द्व की ओर जाना है। यही जीवन की यात्रा है। इस यात्रा को सुगम बनाना शिक्षा का कार्य है और शिक्षक इसका कारक तत्त्व है। शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि शिक्षक शिक्षा का मूर्त रूप है। जिस प्रकार ज्ञान को मनुष्य का रूप देने पर सरस्वती की प्रतिमा तैयार होती है उसी प्रकार शिक्षा को मनुष्य रूप देने पर शिक्षक की प्रतिमा बनती है। शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक की प्रतिष्ठा इस रूप में होती है। |
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− | Sa को देखना चाहिये । लगभग सभी इन्हें अनादि मानते
| + | ज्ञान को ज्ञानी से अज्ञानी को हस्तान्तरित कर अज्ञानी को ज्ञानी बनाने की जो व्यवस्था है वही शिक्षा है और इस शिक्षा क्षेत्र का अधिष्ठाता शिक्षक है । हम देखेंगे कि शिक्षक का शिक्षकत्व किसमें है और व्यक्ति शिक्षकत्व किस प्रकार प्राप्त कर सकता है । |
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− | हैं । जब तक विश्व है ये दोनों ही रहेंगे । परंतु मनीषी दो में
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− | से एक को सत्य और दूसरे को असत्य, आभासी या मिथ्या
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− | मानते हैं । जैसे कि भगवान शंकराचार्य ब्रह्म को सत्य और
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− | माया को मिथ्या मानते हैं । अत: अज्ञान आभासी है, ज्ञान
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− | है । द्वंद्व से निट्ठंद्ठ की ओर जाना है । यही जीवन की यात्रा
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− | शिक्षक इसका कारक तत्त्व है । शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक
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− | की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि शिक्षक शिक्षा
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− | का मूर्त रूप है । जिस प्रकार ज्ञान को मनुष्य का रूप देने
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− | पर सरस्वती की प्रतिमा तैयार होती है उसी प्रकार शिक्षा
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− | ज्ञान को ज्ञानी से आज्ञानी को हस्तान्तरित कर | |
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− | और इस शिक्षा क्षेत्र का अधिष्ठाता शिक्षक है । हम देखेंगे | |
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− | कि शिक्षक का शिक्षकत्व किसमें है और व्यक्ति शिक्षकत्व | |
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− | किस प्रकार प्राप्त कर सकता है । | |
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| == शिक्षक के गुण == | | == शिक्षक के गुण == |
− | एक व्यक्ति को शिक्षक बनने के लिये उसे स्वयं में | + | एक व्यक्ति को शिक्षक बनने के लिये उसे स्वयं में अनेक गुणों का आधान करना होता है। ये गुण कौन कौनसे होते हैं ? |
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− | अनेक गुणों का आधान करना होता है। ये गुण कौन | |
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| === विद्यार्थी परायणता === | | === विद्यार्थी परायणता === |
− | शिक्षक ज्ञानवान तो होता ही है क्योंकि वह ज्ञान के | + | शिक्षक ज्ञानवान तो होता ही है क्योंकि वह ज्ञान के क्षेत्र में कार्य करता है । परन्तु जब तक वह विद्यार्थी के सन्दर्भ में अपने आपको प्रस्तुत नहीं करता वह शिक्षक नहीं बनता । तब तक वह विद्यार्थी ही है। विद्यार्थी स्वांत:सुखाय ज्ञानसाधना करता है, शिक्षक छात्र को ज्ञानवान बनाने हेतु ज्ञानसाधना करता है । जब ज्ञानवान व्यक्ति अपने लिए नहीं अपितु ज्ञान ग्रहण करने हेतु तत्पर विद्यार्थी के विषय में मुख्य रूप से विचार करने लगता है तब वह विद्यार्थी से शिक्षक बनने लगता है । विद्यार्थी से शिक्षक बनने हेतु और विद्यार्थी परायण होने हेतु क्या क्या करना होता है ? सर्व प्रथम उसे विद्यार्थी से प्रेम होना चाहिये, विद्यार्थी के प्रति अपनत्व की भावना होनी चाहिये, विद्यार्थी का कल्याण करने की इच्छा होनी चाहिये । |
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− | क्षेत्र में कार्य करता है । परन्तु जब तक वह विद्यार्थी के | |
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− | स्वांत:सुखाय ज्ञानसाधना करता है, शिक्षक छात्र को | |
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− | शिक्षक बनने हेतु और विद्यार्थी परायण होने हेतु क्या क्या | |
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− | करना होता है ? सर्व प्रथम उसे विद्यार्थी से प्रेम होना | |
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− | चाहिये, विद्यार्थी के प्रति अपनत्व की | |
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− | भावना होनी चाहिये, विद्यार्थी का कल्याण करने की इच्छा | |
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− | होनी चाहिये । आत्मीय सम्बन्ध का आदर्श रूप तैत्तिरीय | |
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− | उपनिषद् में बताया है । उपनिषद् के मन्त्र ट्रटा ऋषि कहते | + | आत्मीय सम्बन्ध का आदर्श रूप तैत्तिरीय उपनिषद् में बताया है । उपनिषद् के मन्त्र दृष्टा ऋषि कहते हैं |
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− | हैं ... आचार्य: पूर्व रूप॑ । अंतेवासी उत्तररूपमू । विद्या
| + | ... आचार्य: पूर्व रूप॑ । अंतेवासी उत्तररूपमू । विद्या |
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| संधि: । प्रवचनमू संधानम्ू । इसका अर्थ है एक ही | | संधि: । प्रवचनमू संधानम्ू । इसका अर्थ है एक ही |