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| | शिक्षक ज्ञानवान तो होता ही है क्योंकि वह ज्ञान के क्षेत्र में कार्य करता है । परन्तु जब तक वह विद्यार्थी के सन्दर्भ में अपने आपको प्रस्तुत नहीं करता वह शिक्षक नहीं बनता । तब तक वह विद्यार्थी ही है। विद्यार्थी स्वांत:सुखाय ज्ञानसाधना करता है, शिक्षक छात्र को ज्ञानवान बनाने हेतु ज्ञानसाधना करता है । जब ज्ञानवान व्यक्ति अपने लिए नहीं अपितु ज्ञान ग्रहण करने हेतु तत्पर विद्यार्थी के विषय में मुख्य रूप से विचार करने लगता है तब वह विद्यार्थी से शिक्षक बनने लगता है । विद्यार्थी से शिक्षक बनने हेतु और विद्यार्थी परायण होने हेतु क्या क्या करना होता है ? सर्व प्रथम उसे विद्यार्थी से प्रेम होना चाहिये, विद्यार्थी के प्रति अपनत्व की भावना होनी चाहिये, विद्यार्थी का कल्याण करने की इच्छा होनी चाहिये । | | शिक्षक ज्ञानवान तो होता ही है क्योंकि वह ज्ञान के क्षेत्र में कार्य करता है । परन्तु जब तक वह विद्यार्थी के सन्दर्भ में अपने आपको प्रस्तुत नहीं करता वह शिक्षक नहीं बनता । तब तक वह विद्यार्थी ही है। विद्यार्थी स्वांत:सुखाय ज्ञानसाधना करता है, शिक्षक छात्र को ज्ञानवान बनाने हेतु ज्ञानसाधना करता है । जब ज्ञानवान व्यक्ति अपने लिए नहीं अपितु ज्ञान ग्रहण करने हेतु तत्पर विद्यार्थी के विषय में मुख्य रूप से विचार करने लगता है तब वह विद्यार्थी से शिक्षक बनने लगता है । विद्यार्थी से शिक्षक बनने हेतु और विद्यार्थी परायण होने हेतु क्या क्या करना होता है ? सर्व प्रथम उसे विद्यार्थी से प्रेम होना चाहिये, विद्यार्थी के प्रति अपनत्व की भावना होनी चाहिये, विद्यार्थी का कल्याण करने की इच्छा होनी चाहिये । |
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| − | आत्मीय सम्बन्ध का आदर्श रूप तैत्तिरीय उपनिषद् में बताया है । उपनिषद् के मन्त्र दृष्टा ऋषि कहते हैं | + | आत्मीय सम्बन्ध का आदर्श रूप तैत्तिरीय उपनिषद्<ref>तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक :3 श्लोक संख्या :4</ref> में बताया है । उपनिषद् के मन्त्र दृष्टा ऋषि कहते हैं:<blockquote>आचार्यः पूर्वरूपम्। अन्तेवास्युत्तररूपम्।</blockquote><blockquote>विद्या सन्धिः। प्रवचन्ँसन्धानम्। इत्यधिविद्यम्।।1.3.4।।</blockquote>इसका अर्थ है एक ही सामासिक शब्द के दो पदों के समान, एक ही पूर्ण रूप के दो हिस्सों के समान, एक ही सिक्के के दो पक्षों के समान शिक्षक और विद्यार्थी एकदूसरे से सम्बन्धित होते हैं तब विद्या का जन्म होता है । यह एकात्मता का सम्बन्ध होता है। ऐसे सम्बन्ध से विद्यार्थी के साथ जुड़ा हुआ शिक्षक विद्या के सम्बन्ध में विद्यार्थी के सन्दर्भ में ही विचार करता है । इसीसे जन्मा विद्यार्थी परायणता का दूसरा लक्षण यह है कि वह विद्यार्थी को जानता है । विद्यार्थी के गुण दोष, विद्यार्थी की ज्ञानग्रहण करने की क्षमता, विद्यार्थी की आवश्यकता, विद्यार्थी के विकास की सम्भावना, उसकी ज्ञान ग्रहण करने की पद्धति आदि को जानने की क्षमता और कौशल शिक्षक को प्राप्त करने होते हैं । ऐसी क्षमता और कौशलप्राप्त करने हेतु उसे पर्याप्त अभ्यास की आवश्यकता होती है । |
| − | | |
| − | ... आचार्य: पूर्व रूप॑ । अंतेवासी उत्तररूपमू । विद्या | |
| − | | |
| − | संधि: । प्रवचनमू संधानम्ू । इसका अर्थ है एक ही
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| − | | |
| − | सामासिक शब्द के दो पदों के समान, एक ही पूर्ण रूप के | |
| − | | |
| − | दो हिस्सों के समान, एक ही सिक्के के दो पक्षों के समान | |
| − | | |
| − | शिक्षक और विद्यार्थी एकदूसरे से सम्बन्धित होते हैं तब | |
| − | | |
| − | विद्या का जन्म होता है । यह एकात्मता का सम्बन्ध होता | |
| − | | |
| − | है। ऐसे सम्बन्ध से विद्यार्थी के साथ जुड़ा हुआ शिक्षक | |
| − | | |
| − | विद्या के सम्बन्ध में विद्यार्थी के सन्दर्भ में ही विचार करता | |
| − | | |
| − | है । इसीसे जन्मा विद्यार्थी परायणता का दूसरा लक्षण यह है | |
| − | | |
| − | कि वह विद्यार्थी को जानता है । विद्यार्थी के गुण दोष, | |
| − | | |
| − | विद्यार्थी की ज्ञानग्रहण करने की क्षमता, विद्यार्थी की | |
| − | | |
| − | आवश्यकता, विद्यार्थी के विकास की सम्भावना, उसकी | |
| − | | |
| − | ज्ञान ग्रहण करने की पद्धति आदि को जानने की क्षमता | |
| − | | |
| − | और कौशल शिक्षक को प्राप्त करने होते हैं । ऐसी क्षमता | |
| − | | |
| − | और कौशलप्राप्त करने हेतु उसे पर्याप्त अभ्यास की | |
| − | | |
| − | आवश्यकता होती है । | |
| | | | |
| | === ज्ञान परायणता === | | === ज्ञान परायणता === |
| − | जीवन में ज्ञान को सर्वोपरि स्थान देने वाला, ज्ञान को | + | जीवन में ज्ञान को सर्वोपरि स्थान देने वाला, ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ मानने वाला, ज्ञान के प्रति निष्ठा रखने वाला व्यक्ति ज्ञान परायण कहा जाता है। जो धन, मान, प्रतिष्ठा, सुविधा, वैभव आदि से भी ज्ञान का अधिक आदर करता है वह ज्ञान परायण होता है । वह कभी ज्ञान का अपमान होने नहीं देता । वह धन, मान, प्रतिष्ठा आदि के लिये ज्ञान का सौदा नहीं करता । वह अपने विद्यार्थी को भी वैसा ही ज्ञान परायण बनाता है । वह ज्ञान को पवित्र मानता है । वह ज्ञानसाधना करता है । वह ज्ञान को मोक्ष का मार्ग मानता है । ज्ञान प्राप्त करना उसके जीवन का लक्ष्य होता है । |
| − | | |
| − | सर्वश्रेष्ठ मानने वाला, ज्ञान के प्रति निष्ठा रखने वाला व्यक्ति | |
| − | | |
| − | ज्ञान परायण कहा जाता है। जो धन, मान, प्रतिष्ठा, | |
| − | | |
| − | सुविधा, वैभव आदि से भी ज्ञान का अधिक आदर करता | |
| − | | |
| − | है वह ज्ञान परायण होता है । वह कभी ज्ञान का अपमान | |
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| − | होने नहीं देता । वह धन, मान, प्रतिष्ठा आदि के लिये ज्ञान | |
| − | | |
| − | का सौदा नहीं करता । वह अपने विद्यार्थी को भी वैसा ही | |
| − | | |
| − | ज्ञान परायण बनाता है । वह ज्ञान को पवित्र मानता है । वह | |
| − | | |
| − | ज्ञानसाधना करता है । वह ज्ञान को मोक्ष का मार्ग मानता | |
| − | | |
| − | है । ज्ञान प्राप्त करना उसके जीवन का लक्ष्य होता है । | |
| | | | |
| | === आचार परायणता === | | === आचार परायणता === |
| − | विद्यार्थी को ज्ञान हस्तांतरित करने के लिये शिक्षक | + | विद्यार्थी को ज्ञान हस्तांतरित करने के लिये शिक्षक को आचार्य बनना होता है। जो शास्त्र के अर्थ को भलीभाँति जानता है, उसे अपने जीवन में उतारता है और विद्यार्थी के आचरण में भी स्थापित करता है वह आचार्य होता है । शिक्षक यदि आचार्य नहीं है तो वह विद्यार्थी को शिक्षित नहीं कर सकता । शिक्षक का आचरण ज्ञाननिष्ठ होता है। शिक्षित व्यक्ति का आचरण सत्य और धर्म पर आधारित होता है । अर्थात् आचार्य को सत्यनिष्ठ और धर्मनिष्ठ बनना ही होता है । सत्य और धर्मनिष्ठ होने के लिये उसे संयमी और इंद्रियजयी होना ही होता है । ये सारे पवित्रता के ही आयाम हैं । अर्थात् आचार्य को पवित्र आचरण वाला होना आवश्यक है । आचार्य को निर्भय होना भी अनिवार्य है । वह सत्ता और धन के प्रति झुकने वाला नहीं चाहिये । सत्ता के प्रति चाटुकारिता करने वाला नहीं होना चाहिये । विद्यार्थी को आचरण सिखाने हेतु एकमात्र मार्ग आचार्य का आचारवान होना ही है । उस दृष्टि से भी आचार्य को आचारवान होना चाहिये । आचार के बिना वास्तविक जीवन में उपदेश निर्स्थक है । किसी मनीषी ने कहा भी है कि<ref>हितोपदेशः १०२</ref><blockquote>मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम्। </blockquote><blockquote>मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्॥ </blockquote>अर्थात मन में, विचार में, वाणी में और कृति में भिन्नता होती है वह दुर्जन और इन तीनों में एकवाक्यता होती है वह महात्मा अर्थात सज्जन होता है । ऐसे सज्जन को ही आचारवान कहा जाता है । आचार्य को ऐसा आचारवान होना चाहिये । |
| − | | |
| − | R4R
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| − | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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| − | | |
| − | को आचार्य बनना होता है। जो शास्त्र के अर्थ को | |
| − | | |
| − | भलीभाँति जानता है, उसे अपने जीवन में उतारता है और | |
| − | | |
| − | विद्यार्थी के आचरण में भी स्थापित करता है वह आचार्य | |
| − | | |
| − | होता है । शिक्षक यदि आचार्य नहीं है तो वह विद्यार्थी को | |
| − | | |
| − | शिक्षित नहीं कर सकता । शिक्षक का आचरण ज्ञाननिष्ठ | |
| − | | |
| − | होता है । शिक्षित व्यक्ति का आचरण सत्य और धर्म पर | |
| − | | |
| − | आधारित होता है । अर्थात् आचार्य को सत्यनिष्ठ और | |
| − | | |
| − | धर्मनिष्ठ बनना ही होता है । सत्य और धर्मनिष्ठ होने के | |
| − | | |
| − | लिये उसे संयमी और इंद्रियजयी होना ही होता है । ये सारे | |
| − | | |
| − | पवित्रता के ही आयाम हैं । अर्थात् आचार्य को पवित्र | |
| − | | |
| − | आचरण वाला होना आवश्यक है । आचार्य को निर्भय | |
| − | | |
| − | होना भी अनिवार्य है । वह सत्ता और धन के प्रति झुकने | |
| − | | |
| − | वाला नहीं चाहिये । सत्ता के प्रति चाटुकारिता करने वाला | |
| − | | |
| − | नहीं होना चाहिये । विद्यार्थी को आचरण सिखाने हेतु | |
| − | | |
| − | एकमात्र मार्ग आचार्य का आचारवान होना ही है । उस दृष्टि | |
| − | | |
| − | से भी आचार्य को आचारवान होना चाहिये । आचार के | |
| − | | |
| − | बिना वास्तविक जीवन में उपदेश निर्स्थक है । किसी मनीषी | |
| − | | |
| − | ने कहा भी है कि | |
| − | | |
| − | “मनस्येकम्ू वचस्येकमू कर्मस्येकम् महात्मनाम् ।
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| − | | |
| − | मनस्यन्यद् वचस्यन्यद् कर्मस्यन्यद दुरात्मनाम् ।।
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| − | | |
| − | अर्थात मन में, विचार में, वाणी में और कृति में | |
| − | | |
| − | भिन्नता होती है वह दुर्जन और इन तीनों में एकवाक्यता | |
| − | | |
| − | होती है वह महात्मा अर्थात सज्जन होता है । ऐसे सज्जन को | |
| − | | |
| − | ही आचारवान कहा जाता है । आचार्य को ऐसा आचारवान | |
| − | | |
| − | होना चाहिये । | |
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| | === धर्म परायणता === | | === धर्म परायणता === |
| − | एक वाक्य में कहें तो शिक्षा धर्म सिखाती है । हम | + | एक वाक्य में कहें तो शिक्षा धर्म सिखाती है । हम धर्म की व्याख्या बार बार कर चुके हैं । आज धर्म को राजनीति के लिये शस्त्र बनाकर उसे विपरीत अर्थ प्रदान करने वाले लोगों के कारण धर्म को अनुचित ढंग से समझा जाता है । वास्तव में धर्म ही जीवन की रक्षा करता है। धर्म को छोड़ दिया तो विनाश ही है । धर्माचरण के साथ साथ धर्म के बारे में व्याप्त विपरीत धारणाओं को दूर करने का दायित्व भी शिक्षक का ही है । |
| − | | |
| − | धर्म की व्याख्या बार बार कर चुके हैं । आज धर्म को | |
| − | | |
| − | राजनीति के लिये शस्त्र बनाकर उसे विपरीत अर्थ प्रदान | |
| − | | |
| − | करने वाले लोगों के कारण धर्म को अनुचित ढंग से समझा | |
| − | | |
| − | जाता है । वास्तव में धर्म ही जीवन की रक्षा करता है। | |
| − | | |
| − | धर्म को छोड़ दिया तो विनाश ही है । हाँ, धर्माचरण के | |
| − | | |
| − | साथ साथ धर्म के बारे में व्याप्त विपरीत धारणाओं को दूर | |
| − | | |
| − | करने का दायित्व भी शिक्षक का ही है । | |
| − | | |
| − | ............. page-169 .............
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| − | | |
| − | पर्व ४ : शिक्षक, विद्यार्थी एवं अध्ययन
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| | === समाज परायणता === | | === समाज परायणता === |
| − | शिक्षक विद्यार्थी के साथ साथ समाज भी सुस्थिति में | + | शिक्षक विद्यार्थी के साथ साथ समाज भी सुस्थिति में रहे इसकी चिन्ता करने वाला होना चाहिये । मनुष्य जब एक दूसरे के साथ एकात्मता के सम्बन्ध विकसित करता है तब समाज बनता है । इस समाज को बनाए रखने वाला तत्त्व धर्म होता है। यह समाजधर्म है । शिक्षक इस समाजधर्म का पालन करने वाला होता है । समाज को ही वह ईश्वर का विश्वरूप मानता है । वह अपने विद्यार्थी को भी समाज परायण बनाता है । आज समाज और व्यक्ति के बीच एक प्रकार का द्वंद्व निर्माण हुआ है । वास्तव में व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग होता है परन्तु आज व्यक्ति अपने आप में महत्त्वपूर्ण हो गया है और व्यक्ति के हित की रक्षा हेतु अनेक व्यक्तियों में सामंजस्य निर्माण करने वाली व्यवस्था को समाज कहा जाता है। समाज की यह परिभाषा सही नहीं है । समाज के अभिन्न अंग के रूप में व्यक्ति को अपना समायोजन करना सिखाना शिक्षक का दायित्व होता है । समाजपरायण बनाने के साथ साथ शिक्षक विद्यार्थी को राष्ट्र परायण और ईश्वर परायण भी बनाता है । |
| − | | |
| − | रहे इसकी चिन्ता करने वाला होना चाहिये । मनुष्य जब | |
| − | | |
| − | एकदूसरे के साथ एकात्मता के सम्बन्ध विकसित करता है
| |
| − | | |
| − | तब समाज बनता है । इस समाज को बनाए रखने वाला | |
| − | | |
| − | तत्त्व धर्म होता है। यह समाजधर्म है । शिक्षक इस | |
| − | | |
| − | समाजधर्म का पालन करने वाला होता है । समाज को ही | |
| − | | |
| − | वह ईश्वर का विश्वरूप मानता है । वह अपने विद्यार्थी को | |
| − | | |
| − | भी समाज परायण बनाता है । आज समाज और व्यक्ति के | |
| − | | |
| − | बीच एक प्रकार का द्वंद्व निर्माण हुआ है । वास्तव में | |
| − | | |
| − | व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग होता है परन्तु आज व्यक्ति | |
| − | | |
| − | अपने आप में महत्त्वपूर्ण हो गया है और व्यक्ति के हित की | |
| − | | |
| − | रक्षा हेतु अनेक व्यक्तियों में सामंजस्य निर्माण करने वाली | |
| − | | |
| − | व्यवस्था को समाज कहा जाता है। समाज की यह | |
| − | | |
| − | परिभाषा सही नहीं है । समाज के अभिन्न अंग के रूप में | |
| − | | |
| − | व्यक्ति को अपना समायोजन करना सिखाना शिक्षक का | |
| − | | |
| − | दायित्व होता है । समाजपरायण बनाने के साथ साथ | |
| − | | |
| − | शिक्षक विद्यार्थी को राष्ट्र परायण और ईश्वर परायण भी | |
| − | | |
| − | बनाता है । | |
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| | == शिक्षक का व्यक्तित्व == | | == शिक्षक का व्यक्तित्व == |
| − | शिक्षक के व्यक्तित्व में ये सभी गुण आयें और शिक्षा | + | शिक्षक के व्यक्तित्व में ये सभी गुण आयें और शिक्षा क्षेत्र को अच्छे शिक्षक प्राप्त हों इस दृष्टि से श्रेष्ठ शिक्षक प्राप्त करने की एक सुनिश्चित व्यवस्था होना अनिवार्य रूप से आवश्यक होता है । ऐसी व्यवस्था करना समाज का प्रमुख दायित्व होता है , परन्तु समाज की ओर से भी इस व्यवस्था का प्रमुख दायित्व शिक्षक समुदाय का ही होता है। शिक्षा क्षेत्र को अच्छे शिक्षक प्राप्त हों इस दृष्टि से कुछ बातों का विचार करना चाहिये: |
| − | | + | # सभी विषयों में श्रेष्ठततम विद्यार्थी ही शिक्षक बनाना चाहिये । सामान्य विद्यार्थी को शिक्षक बनने की अनुमति नहीं होनी चाहिये । श्रेष्ठता की परीक्षा ज्ञान, संस्कार, आचरण और नियत के आधार पर करनी चाहिये । श्रेष्ठ विद्यार्थी ही शिक्षक बने इस व्यवस्था का विशेष कारण है । श्रेष्ठ शिक्षक जब अपना ज्ञान विद्यार्थी को हस्तांतरित करता है और इस प्रकार शिक्षक और विद्यार्थी की अनेक पीढ़ियाँ बीतती हैं तो ज्ञान उत्तरोत्तर समृद्ध होता जाता है । जब शिक्षक साधारण रहता है तब पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान परंपरा क्षीण होती जाती है । किसी भी समाज के लिये यह वांछनीय बात नहीं है । इसलिए श्रेष्ठतम विद्यार्थी शिक्षक बने इस बात का आग्रह बना रहना चाहिये । |
| − | क्षेत्र को अच्छे शिक्षक प्राप्त हों इस दृष्टि से श्रेष्ठ शिक्षक | + | # श्रेष्ठततम विद्यार्थी शिक्षक बने यह देखने का दायित्व शिक्षक और समाज दोनों का है । शिक्षक को अपने श्रेष्ठ विद्यार्थी को शिक्षक बनने की प्रेरणा देनी चाहिये और उसकी क्षमताओं का विकास करना चाहिये । समाज को चाहिये कि शिक्षक का सम्मान इतना बढ़ाए कि श्रेष्ठ विद्यार्थी शिक्षक बनना चाहे । साथ ही शिक्षक के योगक्षेम की भी पर्याप्त चिन्ता करे । |
| − | | + | # ऐसा व्यक्ति शिक्षक बन सकता है जो श्रेष्ठ विद्यार्थी होने के साथ साथ शिक्षक के स्वभाव वाला हो । स्वभाव जन्मगत भी होता है और गुणकर्म के अनुसार भी होता है । गुणकर्म जन्म से होते हैं या प्राप्त किए जाते हैं इस विषय में अनेक मत मतांतर हैं। इस विवाद पर समय व्यतीत न करते हुए हमें एक बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि शिक्षक के स्वभाव से युक्त व्यक्ति ही शिक्षक बने यह आवश्यक है । स्वभाव को परखने की व्यवस्था विकसित करनी चाहिये । स्वभाव के अनुसार जीवनकार्य निश्चित करने की व्यवस्था प्राचीन काल में थी । उदाहरण के लिये शिशु जब भूमि पर बैठने लगता था तब उसके आस पास विभिन्न व्यवसायों से संबन्धित उपकरण रखे जाते थे । स्वयं प्रेरणा से अथवा अपनी रुचि से शिशु जिन उपकरणों को ग्रहण करता था उन उपकरणों से सम्बन्धित उसका व्यवसाय अथवा जीवनकार्य निश्चित किया जाता था । और एक व्यवस्था बड़ी सहज और सरल थी । पिता का ही व्यवसाय पुत्र आगे बढ़ाता था । अतः शिक्षक का पुत्र शिक्षक होगा यह स्वाभाविक रूप से स्वीकार किया जाता था । परन्तु ज्ञान के क्षेत्र में पिता पुत्र परंपरा से भी अधिक गुरु शिष्य परंपरा का ही महत्त्व माना जाता था । शिक्षक पिता का पुत्र शिक्षक बनने का स्वाभाविक अधिकारी होने पर भी गुरु अपने श्रेष्ठतम विद्यार्थी को ही अपना अनुगामी बनाता था । कौन विद्यार्थी शिक्षक बनेगा यह निश्चित करने का अधिकार और दायित्व शिक्षक का ही रहता था | |
| − | प्राप्त करने की एक सुनिश्चित व्यवस्था होना अनिवार्य रूप | + | # ये दो व्यवस्थायें यदि बनाई जाएँ तो समाज को अच्छे शिक्षक प्राप्त होने की पूरी संभावना रहती है । |
| − | | |
| − | से आवश्यक होता है । ऐसी व्यवस्था करना समाज का | |
| − | | |
| − | प्रमुख दायित्व होता है , परन्तु समाज की ओर से भी इस | |
| − | | |
| − | व्यवस्था का प्रमुख दायित्व शिक्षक समुदाय का ही होता | |
| − | | |
| − | है । शिक्षा क्षेत्र को अच्छे शिक्षक प्राप्त हों इस दृष्टि से कुछ
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| − | | |
| − | बातों का विचार करना चाहिये । | |
| − | | |
| − | १, सभी विषयों में श्रेष्ठततम विद्यार्थी ही शिक्षक बनाना
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| − | | |
| − | चाहिये । सामान्य विद्यार्थी को शिक्षक बनने की | |
| − | | |
| − | अनुमति नहीं होनी चाहिये । श्रेष्ठता की परीक्षा ज्ञान, | |
| − | | |
| − | संस्कार, आचरण और नियत के आधार पर करनी | |
| − | | |
| − | चाहिये । श्रेष्ठ विद्यार्थी ही शिक्षक बने इस व्यवस्था | |
| − | | |
| − | $43
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| − | | |
| − | का विशेष कारण है । श्रेष्ठ | |
| − | | |
| − | शिक्षक जब अपना ज्ञान विद्यार्थी को हस्तांतरित | |
| − | | |
| − | करता है और इस प्रकार शिक्षक और विद्यार्थी की | |
| − | | |
| − | अनेक पीढ़ियाँ बीतती हैं तो ज्ञान उत्तरोत्तर समृद्ध | |
| − | | |
| − | होता जाता है । जब शिक्षक साधारण रहता है तब | |
| − | | |
| − | पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान परंपरा क्षीण होती जाती है । | |
| − | | |
| − | किसी भी समाज के लिये यह वांछनीय बात नहीं है । | |
| − | | |
| − | इसलिए श्रेष्ठतम विद्यार्थी शिक्षक बने इस बात का | |
| − | | |
| − | आग्रह बना रहना चाहिये । | |
| − | | |
| − | श्रेष्ठततम विद्यार्थी शिक्षक बने यह देखने का दायित्व | |
| − | | |
| − | शिक्षक और समाज दोनों का है । शिक्षक को अपने | |
| − | | |
| − | श्रेष्ठ विद्यार्थी को शिक्षक बनने की प्रेरणा देनी चाहिये | |
| − | | |
| − | और उसकी क्षमताओं का विकास करना चाहिये । | |
| − | | |
| − | समाज को चाहिये कि शिक्षक का सम्मान इतना | |
| − | | |
| − | बढ़ाए कि श्रेष्ठ विद्यार्थी शिक्षक बनना चाहे । साथ ही | |
| − | | |
| − | शिक्षक के योगक्षेम की भी पर्याप्त चिन्ता करे । | |
| − | | |
| − | ऐसा व्यक्ति शिक्षक बन सकता है जो श्रेष्ठ विद्यार्थी | |
| − | | |
| − | होने के साथ साथ शिक्षक के स्वभाव वाला हो । | |
| − | | |
| − | स्वभाव जन्मगत भी होता है और गुणकर्म के अनुसार | |
| − | | |
| − | भी होता है । गुणकर्म जन्म से होते हैं या प्राप्त किए | |
| − | | |
| − | जाते हैं इस विषय में अनेक मत मतांतर हैं । इस | |
| − | | |
| − | विवाद पर समय व्यतीत न करते हुए हमें एक बात | |
| − | | |
| − | का ध्यान रखना आवश्यक है कि शिक्षक के स्वभाव | |
| − | | |
| − | से युक्त व्यक्ति ही शिक्षक बने यह आवश्यक है । | |
| − | | |
| − | स्वभाव को परखने की व्यवस्था विकसित करनी | |
| − | | |
| − | चाहिये । स्वभाव के अनुसार जीवनकार्य निश्चित | |
| − | | |
| − | करने की व्यवस्था प्राचीन काल में थी । उदाहरण के | |
| − | | |
| − | लिये शिशु जब भूमि पर बैठने लगता था तब उसके | |
| − | | |
| − | आस पास विभिन्न व्यवसायों से संबन्धित उपकरण | |
| − | | |
| − | रखे जाते थे । स्वयं प्रेरणा से अथवा अपनी रुचि से | |
| − | | |
| − | शिशु जिन उपकरणों को ग्रहण करता था उन | |
| − | | |
| − | उपकरणों से सम्बन्धित उसका व्यवसाय अथवा | |
| − | | |
| − | जीवनकार्य निश्चित किया जाता था । और एक | |
| − | | |
| − | व्यवस्था बड़ी सहज और सरल थी । पिता का ही | |
| − | | |
| − | ............. page-170 .............
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| − | | |
| − | व्यवसाय पुत्र आगे बढ़ाता था । अतः | |
| − | | |
| − | शिक्षक का पुत्र शिक्षक होगा यह स्वाभाविक रूप से | |
| − | | |
| − | स्वीकार किया जाता था । परन्तु ज्ञान के क्षेत्र में | |
| − | | |
| − | पिता पुत्र परंपरा से भी अधिक गुरु शिष्य परंपरा का | |
| − | | |
| − | ही महत्त्व माना जाता था । शिक्षक पिता का पुत्र | |
| − | | |
| − | शिक्षक बनने का स्वाभाविक अधिकारी होने पर भी | |
| − | | |
| − | गुरु अपने श्रेष्ठतम विद्यार्थी को ही अपना अनुगामी | |
| − | | |
| − | बनाता था । कौन विद्यार्थी शिक्षक बनेगा यह निश्चित | |
| − | | |
| − | करने का अधिकार और दायित्व शिक्षक का ही | |
| − | | |
| − | रहता था | | |
| − | | |
| − | ४.. ये दो व्यवस्थायें यदि बनाई जाएँ तो समाज को
| |
| − | | |
| − | अच्छे शिक्षक प्राप्त होने की पूरी संभावना रहती है । | |
| | | | |
| | == वर्तमान समय में हम क्या करें == | | == वर्तमान समय में हम क्या करें == |
| − | अभी हमने जिस व्यवस्था की चर्चा की वह प्राचीन | + | अभी हमने जिस व्यवस्था की चर्चा की वह प्राचीन समय की हैं । वह ऐसे समय की व्यवस्था है जब शिक्षा क्षेत्र स्वायत्त था और शिक्षक सम्मानीत था और अपने व्यवसाय का गौरव तथा दायित्व समझता था । आज यह स्थिति नहीं है । आज शिक्षा क्षेत्र स्वायत्त नहीं है । उसका नियंत्रण शासन के पास है । साथ ही शिक्षक के पद का गौरव नहीं रह गया है। एक शिक्षक अपने पुत्र को या अच्छे विद्यार्थी को शिक्षक बनने का परामर्श नहीं देता । तेजस्वी छात्र शिक्षक बनना नहीं चाहते । शिक्षक का |
| − | | |
| − | समय की हैं । वह ऐसे समय की व्यवस्था है जब शिक्षा | |
| − | | |
| − | क्षेत्र स्वायत्त था और शिक्षक सम्मानीत था और अपने | |
| − | | |
| − | व्यवसाय का गौरव तथा दायित्व समझता था । आज यह | |
| − | | |
| − | स्थिति नहीं है । आज शिक्षा क्षेत्र स्वायत्त नहीं है । उसका | |
| − | | |
| − | नियंत्रण शासन के पास है । साथ ही शिक्षक के पद का | |
| − | | |
| − | गौरव नहीं रह गया है। एक शिक्षक अपने पुत्र को या | |
| − | | |
| − | अच्छे विद्यार्थी को शिक्षक बनने का परामर्श नहीं देता । | |
| − | | |
| − | तेजस्वी छात्र शिक्षक बनना नहीं चाहते । शिक्षक का | |
| − | | |
| − | व्यवसाय बहुत श्रेष्ठ नहीं माना जाता है । समाज में इस
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| − | | |
| − | व्यवसाय की प्रतिष्ठा भी कम ही है । इस स्थिति में शिक्षा
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| − | | |
| − | क्षेत्र पुन: अपना गौरव प्राप्त करे, इस दृष्टि से कुछ इस
| |
| − | | |
| − | प्रकार विचार किया जा सकता है ।
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| − | | |
| − | ०". छोटी आयु से ही कक्षाओं में शिक्षक का गौरव और
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| − | | |
| − | श्रेष्ठता बताने वाली सामग्री पाठ्यपुस्तकों में होनी
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| − | | |
| − | चाहिये । इन्हें पढ़कर विद्यार्थी शिक्षक बनने के स्वप्न
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| − | | |
| − | देखे इस पद्धति से शिक्षक को इन पाठों को पढ़ाना
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| − | | |
| − | चाहिये ।
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| − | | |
| − | ०. विद्यालय चलाने वालों ने अपने विद्यालय में पढ़ने
| |
| − | | |
| − | वाले छात्रों में से ऐसे विद्यार्थियों का चयन करना
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| − | | |
| − | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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| − | | |
| − | चाहिये जो आगे चलकर अपने ही विद्यालय में
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| − | | |
| − | शिक्षक बनें ।
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| − | | |
| − | ०. ऐसा चयन करने के बाद उन्हें अपने शिक्षक के
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| − | | |
| − | मार्गदर्शन में अन्य छात्रों को पढ़ाने का अभ्यास प्राप्त
| |
| − | | |
| − | हो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये । श्रेष्ठ विद्यार्थी
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| − | शिक्षक के सहयोगी माने जाने चाहिये ।
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| − | ०. विद्यालय की व्यवस्था में अध्ययन और अध्यापन
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| − | साथ साथ चले इसका प्रावधान रखना चाहिये ।
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| − | ०". श्रेष्ठ विद्यार्थी अपना अध्ययन पूर्ण करें और
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| − | गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे उसके साथ ही उनका
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| − | अधथर्जिन शुरू होता है। अधथर्जिन हेतु वे शिक्षक
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| − | बनते हैं । शिक्षक बनने से पूर्व उनकी शिक्षक बनने
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| − | हेतु विशेष शिक्षा होनी चाहिये । इसे आजकल
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| − | शिक्षक शिक्षा कहते हैं । वर्तमान शिक्षक शिक्षा का
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| − | पाठ्यक्रम पूर्ण रूप से बदल कर उसमें विशेष बातों
| + | व्यवसाय बहुत श्रेष्ठ नहीं माना जाता है । समाज में इस व्यवसाय की प्रतिष्ठा भी कम ही है । इस स्थिति में शिक्षा क्षेत्र पुन: अपना गौरव प्राप्त करे, इस दृष्टि से कुछ इस |
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| − | का समावेश होना चाहिये । | + | प्रकार विचार किया जा सकता है । |
| | + | * छोटी आयु से ही कक्षाओं में शिक्षक का गौरव और श्रेष्ठता बताने वाली सामग्री पाठ्यपुस्तकों में होनी चाहिये । इन्हें पढ़कर विद्यार्थी शिक्षक बनने के स्वप्न देखे इस पद्धति से शिक्षक को इन पाठों को पढ़ाना चाहिये । |
| | + | * विद्यालय चलाने वालों ने अपने विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों में से ऐसे विद्यार्थियों का चयन करना चाहिये जो आगे चलकर अपने ही विद्यालय में शिक्षक बनें । |
| | + | * ऐसा चयन करने के बाद उन्हें अपने शिक्षक के मार्गदर्शन में अन्य छात्रों को पढ़ाने का अभ्यास प्राप्त हो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये । श्रेष्ठ विद्यार्थी शिक्षक के सहयोगी माने जाने चाहिये । |
| | + | * विद्यालय की व्यवस्था में अध्ययन और अध्यापन साथ साथ चले इसका प्रावधान रखना चाहिये । |
| | + | * श्रेष्ठ विद्यार्थी अपना अध्ययन पूर्ण करें और गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे उसके साथ ही उनका अर्थार्जन शुरू होता है। अर्थार्जन हेतु वे शिक्षक बनते हैं । शिक्षक बनने से पूर्व उनकी शिक्षक बनने हेतु विशेष शिक्षा होनी चाहिये । इसे आजकल शिक्षक शिक्षा कहते हैं । वर्तमान शिक्षक शिक्षा का पाठ्यक्रम पूर्ण रूप से बदल कर उसमें विशेष बातों का समावेश होना चाहिये । |
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| | == शिक्षक शिक्षा का पाठ्यक्रम == | | == शिक्षक शिक्षा का पाठ्यक्रम == |