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| जब कि भौतिक संसाधन अर्थात् साधनसामग्री, सुविधा, शैक्षिक उपकरण एवं सामग्री, भवन, भूमि, वाहन आदि शिक्षा का यंत्र कहा जाता है। | | जब कि भौतिक संसाधन अर्थात् साधनसामग्री, सुविधा, शैक्षिक उपकरण एवं सामग्री, भवन, भूमि, वाहन आदि शिक्षा का यंत्र कहा जाता है। |
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− | इन तीनों व्यवस्थाओं को देशानुकूल बनाने की आवश्यकता होती है। विश्व के सभी देशों से, सभी संस्कृतियों से, सभी प्रजाओं से हमें उत्तम विचार, उत्तम व्यवस्थायें, उत्तम संकल्पनायें ग्रहण करनी चाहिये । हमारे जीवन को समृद्ध बनाने के लिये वह अत्यंत आवश्यक होता है। परन्तु ऐसा करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि यह हमारी मूल, स्वभावगत व्यवस्था, पद्धति और जीवनदृष्टि से समरस होती है कि नहीं । यदि समरस नहीं होती है तो वह हानिकारक होती है। हानिकारक विचार या व्यवस्था को नहीं अपनाना ही श्रेयस्कर होता है। समरस होती है या नहीं होती है यह जानने के लिये हमारा उचित अनुचित को परखने का विवेक जाग्रत होना | + | इन तीनों व्यवस्थाओं को देशानुकूल बनाने की आवश्यकता होती है। विश्व के सभी देशों से, सभी संस्कृतियों से, सभी प्रजाओं से हमें उत्तम विचार, उत्तम व्यवस्थायें, उत्तम संकल्पनायें ग्रहण करनी चाहिये । हमारे जीवन को समृद्ध बनाने के लिये वह अत्यंत आवश्यक होता है। परन्तु ऐसा करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि यह हमारी मूल, स्वभावगत व्यवस्था, पद्धति और जीवनदृष्टि से समरस होती है कि नहीं । यदि समरस नहीं होती है तो वह हानिकारक होती है। हानिकारक विचार या व्यवस्था को नहीं अपनाना ही श्रेयस्कर होता है। समरस होती है या नहीं होती है यह जानने के लिये हमारा उचित अनुचित को परखने का विवेक जाग्रत होना चाहिये । बाहर से आये विचारों और व्यवस्थाओं का हमारे विचारों और व्यवस्थाओं के साथ समरस होना हमारी आत्मसात् करने की शक्ति पर भी निर्भर करता है। |
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| + | परन्तु वर्तमान स्थिति तो ऐसी है कि हमने अपने मंत्र, तंत्र और यंत्र सर्वथा त्याग दिये हैं और भारतीय जीवनदृष्टि से जो सर्वथा विपरीत है उसका स्वीकार किया है । यह पूर्ण रूप से अस्वाभाविक घटना है। किसी भी देश में ऐसा नहीं होता । कोई अपना सबकुछ छोडकर दूसरे का सबकुछ नहीं अपना लेता । परन्तु हम विगत सौ-डेढ सौ वर्षों से इस विदेशी मंत्र, तंत्र और यंत्र को ढो रहे हैं । इसलिये भारतीय शिक्षा की योजना करते समय इनको देशानुकूल बनाने का प्रश्न ही नहीं उठता, इनका त्याग करने की महान चुनौती ही हमारे सामने है। |
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| + | आजकल किसी भी विषय में प्रासंगिकता (present relevance) का आग्रह रखा जाता है। वह ठीक भी है। इस प्रासंगिकता की संकल्पना को ही 'युगानुकूलता' की संकल्पना कहा जाता है। 'आधुनिकता' की संकल्पना के साथ इसका मेल है। आधुनिकता शब्द संस्कृत शब्द 'अधुना' से बना है। 'अधुना' का अर्थ है 'आज', 'अब' अथवा 'वर्तमान' में । अतः 'युगानुकूल' 'आधुनिक' ही है। जीवन, व्यक्तिगत हो या सामुदायिक, वर्तमान में ही जीया जाता है इसलिय वर्तमान का विचार करना ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। परन्तु वर्तमान का सम्बन्ध भूत और भविष्य के साथ अनिवार्य रूप से होता है। भूतकाल का पूर्ण प्रभाव वर्तमान पर होता है और वर्तमान भविष्य के लिये नींव बनता है। भूत से वर्तमान में आते आते कई बातें परिवर्तित होती जाती हैं । यदि राष्ट्रजीवन स्वस्थ रहा तो यह परिवर्तन सहज स्वाभाविक रूप में होता रहता है और किसीको अखरता नहीं है। भारत का इतिहास इस प्रकार के अनेक परिवर्तनों का साक्षी है । परन्तु विभिन्न कारणों से जब राष्ट्रजीवन स्वस्थ नहीं रहता तब यह परिवर्तन अस्वाभाविक ढंग से होता है और उसमें स्वीकृति और अस्वीकृति के दो पक्ष निर्माण हो जाते हैं जिन्हें क्रम से सुधारक या आधुनिक और रूढिवादी या पुराणपंथी कहा जाता है। |
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| + | युगानुकूल परिवर्तन स्वाभाविक रूप से हो इसके लिये राष्ट्रजीवन में शाश्वत क्या है और परिवर्तनशील क्या है इसका विवेक करना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। शास्त्र जानने वाले, समाजजीवन को नियंत्रित, नियमित और निर्देशित करने वाले, मूल तत्त्वों को जानने वाले और समाजहितैषी प्रबुद्ध जनों में यह विवेक होता है । युगानुकूल परिवर्तन का स्वरूप तय करना उनका दायित्व होता है। |
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| + | शिक्षा का दायित्व है कि वह ऐसे प्रबुद्ध लोग निर्माण करे । परन्तु आज भारत में शिक्षा को ही उचित रूप देने की चुनौती खडी हुई है । समग्र शिक्षा योजना बनाते समय इस चुनौती को भी ध्यान में रखना होगा। |
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| + | '''५. सर्वसमावेशक और व्यापक योजना की आवश्यकता''' |
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| + | शिक्षा के भारतीयकरण की योजना सर्वसमावेशक और व्यापक होनी चाहिये। |
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| + | यह एक व्यावहारिक प्रस्ताव है । वर्तमान में देश में शिक्षा के क्षेत्र में दो प्रवाह चल रहे हैं । एक है शासन द्वारा मान्य तंत्र वाला, युरोपीय ज्ञानविज्ञान को आधार रूप में स्वीकार करने के मंत्र वाला और भौतिक स्वरूप की साधनसामग्री को अनिवार्य मानने के यंत्र वाला 'मुख्य' प्रवाह और दूसरा भारतीय मंत्र, तंत्र और यंत्र की चाह रखने वाला और उस चाह को मूर्तरूप देने हेतु विभिन्न प्रकार के प्रयास करने वाला पर्यायी' प्रवाह । प्रथम प्रवाह मुख्य इसलिये है क्योंकि वह अधिकृत है, शासन द्वारा मान्य है, शासन द्वारा चलाया जाने वाला है। दूसरा प्रवाह इसलिये चलता है क्यों कि इस देश में ऐसे अनेक व्यक्ति, संस्थायें और संगठन हैं जिन्हें वर्तमान शिक्षा का स्वरूप बदलना है और संस्कार एवं संस्कृति के पक्ष को प्रभावी बनाना है । देशभर में चल रहे इन प्रयासों को यदि सम्मिलित करके देखा जाय तो यह बहुत बड़ा प्रवाह है। परन्तु यह प्रयास बिखरा हुआ है और एकांगी भी है। कहीं तो यह प्रयास तंत्र को वैसा का वैसा स्वीकार कर कुछ बातें - उदाहरण के लिये मूल्य शिक्षा - अपनी जोडना चाहता है, कहीं तो भारतीयता के लिये मानस बनाने का प्रयास करता है परन्तु और यंत्र लेकर प्रयोग करता है तो वह युगानुकूल नहीं होता, कहीं बहुत अच्छे प्रयोग व्यापक नहीं बन सकते । ये मोडेल तो होते हैं परन्तु व्यापक बनने की उनमें व्यवस्था नहीं होती। |
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| + | शिक्षा के भारतीयकरण या राष्ट्रीयकरण का मिशन इस प्रकार के प्रयोगों, गतिविधियों या आंदोलनों, अभियानों से सफल होने की संभावना नहीं है। यह मिशन सफल तभी होगा जब |
| + | # विश्व के, अपने देश के और शिक्षा के वर्तमान संकटों को ठीक से पहचानने का प्रयास होगा; |
| + | # भारतीयता या राष्ट्रीयता की संकल्पना को स्पष्ट रूप से व्याख्यायित करने का प्रयास होगा; |
| + | # जब मंत्र, तंत्र और यंत्र को एक साथ विचारणीय विषय बनाकर उन सबमें परिवर्तन करने का प्रयास होगा; |
| + | # जब जीवनदृष्टि और शिक्षादृष्टि का समन्वय कर उसे पूर्णरूप से परिष्कृत करने का प्रयास होगा; |
| + | # जब पूरे देश के लिये एक प्रतिमान बनाने का प्रयास होगा; |
| + | # जब इस प्रतिमान का विचार वैश्विक और क्रियान्वयन स्थानिक स्वरूप का हो सके इतना लचीला होगा; |
| + | # जब शिक्षा के भारतीयकरण के अवरोधक तत्त्वों को पहचानकर उनके साथ सार्थक संवाद कर उन्हें प्रभावित करने का सामर्थ्य जुटाने का प्रयास होगा; |
| + | # जब स्थान स्थान पर इसका क्रियान्वयन करने की क्षमता वाले समूह निर्माण करने का प्रयास होगा; |
| + | # जब इसे समाज की मान्यता प्राप्त करवाने का प्रयास होगा; |
| + | # जब विश्वविद्यालयों के शिक्षाविभाग इसे अपनाने के लिये बौद्धिक सामर्थ्य दिखायें और शासन का शिक्षाविभाग इसे अपने नियंत्रण से मुक्त करने के लिये दबाव का अनुभव करे और बड़ी बडी औद्योगिक इकाइयों को शिक्षा को उद्योग के रूप में चलाने में कोई स्वारस्य न लगे ऐसी स्थिति निर्माण करने का प्रयास होगा। व्यापकता और सर्वसमावेशकता का यही तात्पर्य है। |
| + | '''६. दीर्घकालीन योजना की आवश्यकता''' |
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| + | शिक्षा के भारतीयकरण की योजना दीर्घकालीन होना भी अत्यंत आवश्यक है। |
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| + | भारत में शिक्षा का प्रश्न बुरी तरह से उलझा हुआ है। इस प्रश्न के कई पहलू हैं, जैसे कि |
| + | # इस प्रश्न को उलझते उलझते वर्तमान स्थिति में पहुँचने तक लगभग दो सौ वर्ष हुए हैं। इसलिये उलझने की इस प्रक्रिया को समझने में समय लगेगा। |
| + | # अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा के मंत्र और तंत्र को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया है। इस विनाश का स्वरूप समझने में भी समय लगेगा। |
| + | # अंग्रेजों ने न केवल इसे नष्ट किया, अपितु उसके स्थान पर अपना मंत्र और तंत्र भी प्रस्थापित कर दिया है। |
| + | # इस युरोपीय मंत्र और तंत्र में शिक्षा प्राप्त करते हुए भारत की लगभग दस पीढियाँ बीती हैं। इसके परिणामस्वरूप यह अपने राष्ट्रशरीर के मानो जेहन में उतर गया है। पूरा देश इसी मंत्र और तंत्र के अनुसार चलने लगा है। इस तथ्य को समझने और पहचानने में और उससे बाहर निकलने की आवश्यकता को महसूस करने में भी समय लगेगा। |
| + | # इस अभारतीय मंत्र और तंत्र को केवल पहचानना, या उससे उबरने की तीव्र चाह होना पर्याप्त नहीं होगा। इसका स्थान लेने वाला सार्थक पर्याय निर्माण करना होगा। इसमें भी समय लगेगा। |
| + | # यह एक महान शैक्षिक, संगठनात्मक और प्रयोगात्मक तथा व्यापक योजना होगी। यह योजना व्यापक रूप में लागू हो सके और दीर्घकाल तक लागू रह सके ऐसी भी होना आवश्यक है। इस उद्देश्य को सिद्ध करने के लिये वह लचीली भी होनी चाहिये। |
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| ==References== | | ==References== |