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वर्तमान शिक्षा में पढ़ा लिखा व्यक्ति शिक्षित कहा तो जाता है परन्तु उसके चरित्रवान या सजन होने की अपेक्षा नहीं की जाती । दुर्व्यसनी और स्वार्थी, क्रूर और कामुक व्यक्ति उच्च शिक्षित हो सकता है। इस प्रकार का व्यक्ति साक्षर भले ही हो शिक्षित नहीं कहा जा सकता।
 
वर्तमान शिक्षा में पढ़ा लिखा व्यक्ति शिक्षित कहा तो जाता है परन्तु उसके चरित्रवान या सजन होने की अपेक्षा नहीं की जाती । दुर्व्यसनी और स्वार्थी, क्रूर और कामुक व्यक्ति उच्च शिक्षित हो सकता है। इस प्रकार का व्यक्ति साक्षर भले ही हो शिक्षित नहीं कहा जा सकता।
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हम प्रारम्भ से ही छात्र को परीक्षा के अंक, श्रेणी, पदवी आदि के प्रति लक्ष्य केन्द्रित करने वाला बनाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने अपने विषय में दक्ष बनकर विभिन्न व्यवसायों में जाते हैं । उच्च शिक्षित व्यक्ति देश की विभिन्न सेवाओं में जाते हैं और समाज का नियंत्रण करते हैं तथा देश का संचालन करते हैं । इससे समाजजीवन की समस्यायें बढती हैं और लोग परेशान होते हैं। परिणाम स्वरूप देश की भौतक और सांस्कृतिक अवनति होती है।
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हम प्रारम्भ से ही छात्र को परीक्षा के अंक, श्रेणी, पदवी आदि के प्रति लक्ष्य केन्द्रित करने वाला बनाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने अपने विषय में दक्ष बनकर विभिन्न व्यवसायों में जाते हैं । उच्च शिक्षित व्यक्ति देश की विभिन्न सेवाओं में जाते हैं और समाज का नियंत्रण करते हैं तथा देश का संचालन करते हैं । इससे समाजजीवन की समस्यायें बढती हैं और लोग परेशान होते हैं। परिणाम स्वरूप देश की भौतक और सांस्कृतिक अवनति होती है। इसलिये जब हम शिक्षा की पुनर्रचना करने का विचार करते हैं तब हमें केवल साक्षरता के नहीं तो शिक्षितता के मापदंड अपनाने पडेंगे अर्थात् संस्कार, विवेक और सर्वजनहित की भावना के पक्ष को निरी साक्षरता से पहले रखना पड़ेगा।
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'''३. शिक्षा केवल संस्थागत नहीं होती'''
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शिक्षा को जब हम जीवन्त न मानकर जड़ पदार्थ मानने लगते हैं तब जो समस्यायें निर्माण होती हैं उनमें से एक यह है। शिक्षा सम्पूर्ण जीवन के साथ जुडी हुई है। वह गर्भावस्था में, जन्म के बाद शिशुअवस्था में और बाल, किशोर, तरुण, युवा अवस्थाओं से होते हुए प्रौढावस्था और वृद्धावस्था में भी होती है। विभिन्न अवस्थाओं में उसके कारक तत्त्व, उसके माध्यम, उसके करण और उपकरण, उसके स्थान, उसकी पद्धति और प्रक्रिया अलग अलग होते हैं। शिक्षा के द्वारा व्यक्तित्व विकास होता है उसमें मातापिता, आचार्य, मित्र, समाज, संतमहात्मा, सत्साहित्य आदि की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है । आज हमने शिक्षा को आवश्यकता से अधिक संस्थागत बना दिया है। इस संस्थाकरण - खपीळीींळेपरश्रळरींळेप - से शिक्षा बहुत संकुचित स्वरूप की हो गई है। इससे भी बढकर उसका हानिकारक परिणाम यह है कि विद्यालय नामक संस्था से बाहर शिक्षा होती ही नहीं है, या होती है तो उसकी कोई मान्यता नहीं है। इसलिये प्रारम्भिक नींवरूप, चरित्रनिर्माण की शिक्षा का केन्द्र घर है और प्रथम और द्वितीय गुरु मातापिता हैं इस बात का विस्मरण हो गया है। धर्मगुरु नैतिक नियंत्रण करने वाले नहीं रह गये हैं। इससे संस्कार और संस्कृति की जो हानि हो रही है उसे दूर करने के लिये शिक्षा को Institutionalization से मुक्त कर व्यापक दायरे में ले जाना होगा, उसे घर तक और समाज तक ले जाना होगा । यांत्रिक स्वरूप बदल कर उसे जीवन्त बनाना होगा।
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'''४. शिक्षा केवल अर्थार्जन के लिये नहीं होती'''
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इस बिन्दु की कुछ चर्चा पूर्व में हुई है। वास्तव में अर्थ भौतिक पदार्थ है। वह हमारी इच्छाओं और आवश्यकताओं को पूर्ण करने का साधन है । शिक्षा प्राप्त कर अर्थार्जन की योग्यता तो प्राप्त होती है। होनी भी चाहिये । परन्तु केवल 'अर्थकरी विद्या' अर्थात् अर्थार्जन के लिये शिक्षा प्राप्त करना उसे निम्न स्तर पर लाना होता है। तेज धारवाली उत्तम तलवार भींडी काटने के काम में नहीं ली जाती । तलवार से भीडी कटती तो है परन्तु वह तलवार का अपमान करना है। उसी प्रकार से केवल अर्थार्जन के लिये शिक्षा को नियोजित करना शिक्षा का दर्जा कम करना है। शिक्षा गुणार्जन, ज्ञानार्जन, कौशल के अर्जन के लिये होती है। अर्थार्जन उसका बहुत छोटा और निम्न स्तर का हिस्सा होता है। शिक्षा की पुनर्रचना करते समय हमें इस बिन्दु की ओर ध्यान देना होगा।
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इससे भी बडी विपरीतता है शिक्षा का बाजारीकरण । बाजार की शब्दावली में अब शिक्षा को उद्योग, ज्ञान को उपभोग्य पदार्थ - लोवळी, छात्र को ग्राहक, शिक्षक को विक्रेता, अथवा विक्रेता की दुकान पर काम करने वाला मजदूर या सेल्समेन कहा जाता है। अर्थ के सन्दर्भ में ही सभी बातों का मूल्यांकन होता है।
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इन दोनों बातों का परिणाम अनर्थकारी होता है। शिक्षा विषयक दृष्टि, संकल्पना और व्यवस्था बदलने से जीवन की गुणवत्ता ही बदल जाती है और व्यवस्था अनवस्था में बदल जाती है। इसलिये हमें शिक्षा की प्रतिष्ठा अर्थ के सन्दर्भ में नहीं अपितु धर्म के सन्दर्भ में करनी होगी और धर्म आधारित रचना में अर्थार्जन को समायोजित करना होगा।<blockquote>'''५. शिक्षा केवल बुद्धिनिष्ठ नहीं होती।'''</blockquote><blockquote>'''वह अन्ततोगत्वा आत्मनिष्ठ होती है।'''</blockquote>यह सूत्र भारत के वैशिष्टय का परिचायक है । भारत के जीवनविचार में आत्मतत्त्व का स्वीकार किया गया है। भारत के दर्शन के अनुसार यह सृष्टि आत्मतत्त्व से निःसृत हुई है और पुनः आत्मतत्त्व में समाहित होने की दिशा में गति करती है। अतः जीवन की सभी व्यवस्थाओं का विचार आत्मतत्त्व के प्रकाश में होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है -<blockquote>'''इन्द्रियाणि पराण्याहुः इन्द्रियेभ्यः परं मनः ।''' </blockquote><blockquote>'''मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ।।'''</blockquote>अर्थात् इन्द्रियाँ विषयों से पर हैं, मन इन्द्रियों से पर है, बुद्धि मन से पर है और बुद्धि से जो पर है वह वह है, अर्थात् आत्मतत्त्व है। अतः बुद्धि का भी अधिष्ठान आत्मतत्त्व है। वर्तमान में हमने शिक्षा को केवल बुद्धिनिष्ठ बना दिया है । उसे आत्मनिष्ठ बनाने से उसका आधार सही होगा। दूसरी ओर जगत के व्यवहार में केवल बुद्धिनिष्ठा पर्याप्त नहीं होती । कर्मनिष्ठा और भावनिष्ठा भी आवश्यक है। बुद्धिनिष्ठा से केवल पदार्थ या परिस्थिति समझी जाती है परन्तु भावनिष्ठा से आत्मीयता और कर्मनिष्ठा से कुशलतायुक्त व्यवहार होता है । ज्ञान, भावना और क्रिया इन तीनों का समायोजन हर व्यवहार में आवश्यक होता है। शिक्षा को इन तीनों की समान रूप से योजना करनी चाहिये, और यह समायोजन आत्मतत्त्व के प्रकाश में होना चाहिये।
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'''४. शिक्षा के मंत्र, तंत्र और यंत्र'''
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शिक्षा को भारतीय बनाने के लिये उसके मंत्र, तंत्र और यंत्र ‘देशानुकूल' और 'युगानुकूल' बनाने की आवश्यकता है।
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इस कथन में लगभग सभी संज्ञाओं की स्पष्टता होना आवश्यक है।
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मंत्र का अर्थ है विचार । विभिन्न विषयों में प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चशिक्षा, अनुसंधान आदि विभिन्न स्तरों पर विषयवस्तु के रूप में जो सिखाया जाता है उससे व्यक्ति का मानस बनता है, विचार बनते हैं, दृष्टिकोण बनता है। विभिन्न विषयों का स्वरूप एवं संकल्पना जीवनदृष्टि पर आधारित होती है।
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उदाहरण के लिये समाजशास्त्र में पढाया जाने वाला 'सामाजिक करार का सिद्धान्त' - 'social contract theory' यूरोप की समाजविषयक दृष्टि पर आधारित है। इसीको लागू करते हुए इस समाजशास्त्र में विवाह भी पति और पत्नी के बीच करार है। इसी प्रकार से सामाजिक जीवन के मालिक-नौकर, राजा-प्रजा, मातापिता-संतान, व्यापारी और ग्राहक, शिक्षक-छात्र जैसे 8 सारे सम्बन्ध भी करार ही होंगे। इस सिद्धान्त को लागू करने पर समाजव्यवस्था सर्वथा भिन्न प्रकार की होती है जबकि समाज एक जीवमान घटक है और उसका समाजपुरुष के रूप में स्वीकार किया जाता है तब सारे सम्बन्ध आत्मीयतापूर्ण होते हैं, यथा प्रजा राजा की सन्तान है और राजा प्रजापालक होता है, छात्र शिक्षक का मानसपुत्र होता है, पतिपत्नी दो नहीं एक ही व्यक्तित्व बन सर्वथा भिन्न बन जाती है। इन दो व्यवस्थाओं का अन्तर मूल विचार के अन्तर के परिणामस्वरूप होता है।
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समाजशास्त्र की तरह अन्य सभी विषय भी मूल जीवनदृष्टि पर आधारित होते हैं।
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इसे शिक्षा का मंत्र कहते हैं।
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शिक्षा की व्यवस्था को तंत्र कहते हैं। शिक्षाविषयक नियम, कायदे कानून, नियुक्ति के अधिकार एवं पद्धति, प्रवेश, परीक्षा, पाठ्यक्रम निर्माण करने की व्यवस्था, कहा जाता है।
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जब कि भौतिक संसाधन अर्थात् साधनसामग्री, सुविधा, शैक्षिक उपकरण एवं सामग्री, भवन, भूमि, वाहन आदि शिक्षा का यंत्र कहा जाता है।
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इन तीनों व्यवस्थाओं को देशानुकूल बनाने की आवश्यकता होती है। विश्व के सभी देशों से, सभी संस्कृतियों से, सभी प्रजाओं से हमें उत्तम विचार, उत्तम व्यवस्थायें, उत्तम संकल्पनायें ग्रहण करनी चाहिये । हमारे जीवन को समृद्ध बनाने के लिये वह अत्यंत आवश्यक होता है। परन्तु ऐसा करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि यह हमारी मूल, स्वभावगत व्यवस्था, पद्धति और जीवनदृष्टि से समरस होती है कि नहीं । यदि समरस नहीं होती है तो वह हानिकारक होती है। हानिकारक विचार या व्यवस्था को नहीं अपनाना ही श्रेयस्कर होता है। समरस होती है या नहीं होती है यह जानने के लिये हमारा उचित अनुचित को परखने का विवेक जाग्रत होना
    
==References==
 
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