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राष्ट्रीय होने पर ही वह सबके कल्याण की कारक बनती है। जब हम कहते हैं कि शिक्षा राष्ट्रीय होती है तब भी शिक्षित तो व्यक्ति को ही किया जाता है क्यों कि व्यक्तियों से ही राष्ट्र बनता है। शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिये कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति के विकास का सन्दर्भ राष्ट्रीय होता है। शिक्षा व्यक्ति को राष्ट्र का एक सुयोग्य नागरिक बनाती है।
 
राष्ट्रीय होने पर ही वह सबके कल्याण की कारक बनती है। जब हम कहते हैं कि शिक्षा राष्ट्रीय होती है तब भी शिक्षित तो व्यक्ति को ही किया जाता है क्यों कि व्यक्तियों से ही राष्ट्र बनता है। शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिये कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति के विकास का सन्दर्भ राष्ट्रीय होता है। शिक्षा व्यक्ति को राष्ट्र का एक सुयोग्य नागरिक बनाती है।
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परन्तु इस प्रकार के कथन करते समय अर्थों का व्यत्यय परेशान करता रहता है और कथन के अर्थ बदल देता है । जब हम राष्ट्रीय' शब्द का प्रयोग करते हैं तब फिर से 'राष्ट्र' शब्द के सही अर्थ को स्पष्ट करना आवश्यक बन जाता है। वर्तमान में राष्ट्र' शब्द का अर्थ 'देश' किया जाता है और सन्दर्भ राजस्व का और शासन का हो जाता है। उदाहरण के लिये 'राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद' में राष्ट्रीय शब्द सूचित करता है कि १. यह संस्था अखिल भारतीय स्वरूप की है और २. इसका संचालन केन्द्र सरकार द्वारा होता है। कभी कभी 'राष्ट्रीय' शब्द केवल 'अखिल भारतीय' अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, जैसे कि किसी पक्ष के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिल भारतीय अध्यक्ष होते हैं, केन्द्र सरकार द्वारा निर्देशित नहीं । परन्तु जिस अर्थ में मनीषियों ने शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयासों को राष्ट्रीय शिक्षा का आन्दोलन कहा था उसमें प्रयुक्त राष्ट्र' का तात्पर्य न 'अखिल भारतीय' है, न केन्द्र सरकार से सम्बन्धित' है। राष्ट्र को प्रजा, भूमि, जलवायु, संस्कृति और जीवनदर्शन के समुच्चय के रूप में स्वीकार किया गया है। शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिये का द्विविध तात्पर्य है । १. शिक्षा जीवनदर्शनादि समुच्चय को पुष्ट करने वाली होनी चाहिये और २. शिक्षा व्यक्ति को इसके अनुकूल बनाने वाली होनी चाहिये । वर्तमान शिक्षा व्यक्ति की अपनी तरक्की को, अपने ही लक्ष्य की पूर्ति को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानती है, व्यक्ति की आकांक्षायें, व्यवहार और लक्ष्य की पूर्ति के प्रयास राष्ट्रविरोधी हैं या राष्ट्र के अनुकूल बनकर उसे पुष्ट करने वाले हैं इसका विचार नहीं किया जाता है। हमें शिक्षा की पुनर्रचना कर उसे व्यक्तिनिष्ठ नहीं
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परन्तु इस प्रकार के कथन करते समय अर्थों का व्यत्यय परेशान करता रहता है और कथन के अर्थ बदल देता है । जब हम राष्ट्रीय' शब्द का प्रयोग करते हैं तब फिर से 'राष्ट्र' शब्द के सही अर्थ को स्पष्ट करना आवश्यक बन जाता है। वर्तमान में राष्ट्र' शब्द का अर्थ 'देश' किया जाता है और सन्दर्भ राजस्व का और शासन का हो जाता है। उदाहरण के लिये 'राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद' में राष्ट्रीय शब्द सूचित करता है कि १. यह संस्था अखिल भारतीय स्वरूप की है और २. इसका संचालन केन्द्र सरकार द्वारा होता है। कभी कभी 'राष्ट्रीय' शब्द केवल 'अखिल भारतीय' अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, जैसे कि किसी पक्ष के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिल भारतीय अध्यक्ष होते हैं, केन्द्र सरकार द्वारा निर्देशित नहीं । परन्तु जिस अर्थ में मनीषियों ने शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयासों को राष्ट्रीय शिक्षा का आन्दोलन कहा था उसमें प्रयुक्त राष्ट्र' का तात्पर्य न 'अखिल भारतीय' है, न केन्द्र सरकार से सम्बन्धित' है। राष्ट्र को प्रजा, भूमि, जलवायु, संस्कृति और जीवनदर्शन के समुच्चय के रूप में स्वीकार किया गया है। शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिये का द्विविध तात्पर्य है । १. शिक्षा जीवनदर्शनादि समुच्चय को पुष्ट करने वाली होनी चाहिये और २. शिक्षा व्यक्ति को इसके अनुकूल बनाने वाली होनी चाहिये । वर्तमान शिक्षा व्यक्ति की अपनी तरक्की को, अपने ही लक्ष्य की पूर्ति को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानती है, व्यक्ति की आकांक्षायें, व्यवहार और लक्ष्य की पूर्ति के प्रयास राष्ट्रविरोधी हैं या राष्ट्र के अनुकूल बनकर उसे पुष्ट करने वाले हैं इसका विचार नहीं किया जाता है। हमें शिक्षा की पुनर्रचना कर उसे व्यक्तिनिष्ठ नहीं अपितु राष्ट्रनिष्ठ व्यक्ति का निर्माण करने वाली बनाना चाहिये।
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'''२. साक्षरता और शिक्षितता में अन्तर है'''
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आज इन दो संकल्पनाओं का बहुत ही बडा विपर्यास दिखाई देता है । वास्तव में शिक्षित शब्द शिक्षा से ही बना है। शिक्षा व्यक्ति को शिक्षित बनाती है । शिक्षित व्यक्ति उसे कहते हैं जो सृष्टि का प्रयोजन समझता है, जगत में सर्वजनहित की दृष्टि से विवेकपूर्ण व्यवहार करता है, जिसके मन एवं इन्द्रियाँ उसके वश में रहते हैं और जिसका शरीर स्वस्थ तथा काम करने में कुशल होता है। शिक्षित व्यक्ति वही होता है जिस पर समाज भरोसा कर सकता है और जीवनव्यवहार में मार्गदर्शन प्राप्त करने की अपेक्षा कर सकता है। शिक्षित व्यक्ति साक्षर के साथ साथ सज्जन और कर्तृत्ववान होता है। परन्तु केवल साक्षर व्यक्ति पंडित होता है, शास्त्रों को जानता है, विद्वत्तापूर्ण लेखन और भाषण कर सकता है परन्तु चरित्रवान होने का दावा नहीं कर सकता
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भारत में चरित्र और विद्वत्ता के एक साथ होने की अपेक्षा की गई है। जो चरित्रवान नहीं होता है उसे अच्छा और सच्चा गुरु कभी पढ़ाता नहीं है । कभी कभार पढायेगा तो वह निन्दा का पात्र बनेगा।
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वर्तमान शिक्षा में पढ़ा लिखा व्यक्ति शिक्षित कहा तो जाता है परन्तु उसके चरित्रवान या सजन होने की अपेक्षा नहीं की जाती । दुर्व्यसनी और स्वार्थी, क्रूर और कामुक व्यक्ति उच्च शिक्षित हो सकता है। इस प्रकार का व्यक्ति साक्षर भले ही हो शिक्षित नहीं कहा जा सकता।
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हम प्रारम्भ से ही छात्र को परीक्षा के अंक, श्रेणी, पदवी आदि के प्रति लक्ष्य केन्द्रित करने वाला बनाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने अपने विषय में दक्ष बनकर विभिन्न व्यवसायों में जाते हैं । उच्च शिक्षित व्यक्ति देश की विभिन्न सेवाओं में जाते हैं और समाज का नियंत्रण करते हैं तथा देश का संचालन करते हैं । इससे समाजजीवन की समस्यायें बढती हैं और लोग परेशान होते हैं। परिणाम स्वरूप देश की भौतक और सांस्कृतिक अवनति होती है।
    
==References==
 
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