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# इस अभारतीय मंत्र और तंत्र को केवल पहचानना, या उससे उबरने की तीव्र चाह होना पर्याप्त नहीं होगा। इसका स्थान लेने वाला सार्थक पर्याय निर्माण करना होगा। इसमें भी समय लगेगा।  
 
# इस अभारतीय मंत्र और तंत्र को केवल पहचानना, या उससे उबरने की तीव्र चाह होना पर्याप्त नहीं होगा। इसका स्थान लेने वाला सार्थक पर्याय निर्माण करना होगा। इसमें भी समय लगेगा।  
 
# यह एक महान शैक्षिक, संगठनात्मक और प्रयोगात्मक तथा व्यापक योजना होगी। यह योजना व्यापक रूप में लागू हो सके और दीर्घकाल तक लागू रह सके ऐसी भी होना आवश्यक है। इस उद्देश्य को सिद्ध करने के लिये वह लचीली भी होनी चाहिये।
 
# यह एक महान शैक्षिक, संगठनात्मक और प्रयोगात्मक तथा व्यापक योजना होगी। यह योजना व्यापक रूप में लागू हो सके और दीर्घकाल तक लागू रह सके ऐसी भी होना आवश्यक है। इस उद्देश्य को सिद्ध करने के लिये वह लचीली भी होनी चाहिये।
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'''७. विभिन्न शैक्षिक पहलुओं का एक साथ विचार'''
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शिक्षा के भारतीयकरण की किसी भी योजना का विचार करते समय अनेक बातों का एक साथ विचार करना होगा। प्रमुखरूप से यह पूर्ण शिक्षातंत्र के शैक्षिक पहलू के सम्बन्ध में होगा।
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'''१. अध्ययन एवं अनुसन्धान'''
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भारतीय ज्ञानधारा को समझने के लिये यह धारा जिसमें निरूपित हुई है ऐसे शास्त्रग्रंथों के व्यापक अध्ययन की योजना बनानी होगी। साथ ही उस ज्ञानधारा को पुनर्प्रवाहित करने के लिये, उसे पुष्ट बनाने के लिये, उसे युगानुकूल बनाने के लिये विशेष प्रकार के विमर्श की आवश्यकता रहेगी। इस दृष्टि से अध्ययन एवं अनुसन्धान की विशिष्ट पद्धतियाँ विकसित करनी होंगी। वर्तमान वैश्विक सन्दर्भ में उनका नये सिरे से निरूपण करना होगा । हमारे निरूपण के लिये प्रमाणभूत सिद्धान्त कौनसे हैं यह भी तय करना होगा।
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'''२. पाठ्यक्रमनिर्माण'''
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देश को चलाने वाले सिद्धान्त और नीतियों का विश्लेषण और मूल्यांकन कर, उसे परिष्कृत कर, उसे विषयवस्तु के रूप में शिशुशिक्षा से लेकर उच्चशिक्षा तक (घ.ऋौं झ.ऋ) के पाठ्यक्रमों में ढालना होगा । वास्तव में यह एक महान शैक्षिक प्रयास होगा । सम्पूर्ण योजना में यह केन्द्रवर्ती बिन्दु रहेगा क्योंकि कक्षाकक्ष की शिक्षा में ही व्यक्तिनिर्माण और राष्ट्रनिर्माण होता है। डॉ. दौलतसिंह कोठारी की प्रसिद्ध उक्ति है ही कि, 'भारत का भाग्य उसके कक्षाकक्षों में निर्मित होता है।'
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हमारे वर्तमान आर्थिक, सांस्कृतिक, आरोग्यकीय, सामाजिक संकटों के लिये हमारी नीतियाँ (श्रिळलळशी) और हमारे सिद्धान्त (ळिपलळश्रिशी) कितने जिम्मेदार हैं यह समझना और उनके पर्याय प्रस्तुत करना वास्तव में विद्वज्जनों का दायित्व है । लोकहित के लिये यह करने की आवश्यकता है । देशभर में जो अनुसन्धान कार्य चल रहे हैं, विश्वविद्यालयों के जो अध्ययन मण्डल (ईरीव ष डीवळशी) हैं उन्होंने इस मूलगामी (र्षीपवराशपीरश्र) कार्य को अपना विषय बनाने की आवश्यकता है ।
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वर्तमान में विश्वविद्यालयीन शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा और प्राथमिक शिक्षा का आन्तरिक सम्बन्ध नहीं रहा है। इस सम्बन्ध को पुनर्प्रस्थापित करने की महती आवश्यकता है। ऐसा आन्तरिक सम्बन्धसूत्र निर्माण करने से ही लोकमानस भी बदलेगा और देश की नीतियाँ भी बदलेंगी। वास्तव में ऐसा होने पर ही अपने समाज को ज्ञ श्रशवसश वीळींशपीलळशी - ज्ञान निर्देशित समाज - कहा जा सकता है।
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समग्रता में विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों का एक व्यापक, सर्वसमावेशक परन्तु लचीला ढाँचा बनाकर बाद में उसे लागू करने की योजना बनाना लाभदायक होगा।
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'''३. साहित्यनिर्माण'''
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तीसरी आवश्यकता है शिक्षा के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित साहित्य विपुल मात्रा में निर्माण करने की। सर्वजनसमाज को, छोटी आयु के छात्रों को, युवाओं को, शिक्षित लोगों को, विद्वज्जनों को, शोधकार्य करने वालों को, विदेशी विद्वानों को ध्यान में रखकर विविध प्रकार की शैली और भाषा में, विविध स्वरूपों में यह साहित्य तैयार करना होगा। यह कार्य सरल नहीं है परन्तु वर्तमान वैश्विक संकटों और हमारी राष्ट्रीय समस्याओं और आवश्यकताओं को देखते हुए इस विषय को लेना अनिवार्य बन जाता है। समाजप्रबोधन, शिक्षकनिर्माण, छात्रशिक्षा और विद्वतचर्चा सब एकसाथ होना आवश्यक है और इसके लिये साहित्य भी विभिन्न स्वरूप का होना चाहिये।
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'''४. शिक्षा को पुनर्व्याख्यायित करना'''
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शिक्षा को ही पुनर्व्याख्यायित करना चाहिये । शिक्षाशास्त्र के अन्तर्गत शिक्षा की परिभाषा, शिक्षादर्शन, शिक्षामनोविज्ञान, पाठनपद्धति, मूल्यांकन, पाठ्यक्रमनिर्माण आदि के सिद्धान्तों में आमूल परिवर्तन करना पडेगा । तभी विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की शिक्षाप्रक्रिया बदलेगी और तभी शिक्षा का भारतीयकरण सम्भव होगा।
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स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाविषयक दो प्रसिद्ध उक्तियों को उचित सन्दर्भ में हम ले सकते हैं।
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१. शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण है। (Education is the manifestation of the perfection already in man) वास्तव में यह शिक्षा की आध्यात्मिक मनोविज्ञान पर आधारित परिभाषा है। वर्तमान में मनोविज्ञान के जिन सिद्धान्तों के आधार पर शिक्षा दी जाती है उससे यह सर्वथा विपरीत है। इसलिये स्वामीजी की इस परिभाषा को आधार बनाकर शिक्षाशास्त्र की पुनर्रचना करना आवश्यक है।
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२. हम व्यक्तिविकास और राष्ट्रनिर्माण के लिये शिक्षा चाहते हैं। (we need manmaking and nationbuilding education.) एक शिक्षित व्यक्ति को केवल अपने ही लाभ और तरक्की के विषय में प्रवृत्त नहीं होना चाहिये अपितु राष्ट्र के विकास में अपना योगदान देना चाहिये यह हमारी शिक्षा का अनिवार्य सन्दर्भ बनना चाहिये । पढने वाले व्यक्ति का मानस ऐसा बनना चाहिये कि वह अपने आपको राष्ट्र का एक अंश माने, एक अंगभूत घटक माने और राष्ट्रहित में ही अपना हित समाया है ऐसा समझे।
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अर्थात् शिक्षाशास्त्र की सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पुनर्रचना सम्पूर्ण योजना का प्रारम्भबिन्दु बनेगा।
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'''८. क्रियान्वयन की दिशा में प्रयास'''
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शिक्षा के भारतीयकरण का वैचारिक पक्ष ठीक करने के बाद उसके क्रियान्वयन की दिशा में भी प्रयास करना होगा । इस दृष्टि से भी कुछ विचार इस प्रकार से किया जा सकता है।
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'''१. संगठित और व्यापक प्रयास'''
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संगठित और व्यापक प्रयास की आवश्यकता है। देशभर की शिक्षा का स्वरूप इतना व्यापक और शासन द्वारा इस प्रकार नियन्त्रित है कि किसी व्यक्तिगत या स्थानीय प्रयास से परिवर्तन होना संभव नहीं। यदि । शासन द्वारा परिवर्तन के प्रयास होते हैं तो वे सफल नहीं होंगे क्योंकि शिक्षा में परिवर्तन करना न शासन-प्रशासन का स्वभाव होता है न कार्यक्षेत्र । हाँ, शासन का निश्चय और सहयोग बहुत उपयोगी होता है । परन्तु विद्वत् क्षेत्र में शैक्षिक परिवर्तन के प्रयास होंगे तभी शासन का सहयोग सार्थक सिद्ध होगा। बिना विद्वत्क्षेत्र के प्रयास के शासन सहयोग किसे करेगा ? अतः विद्वत्क्षेत्र को ही व्यापक और संगठित प्रयास करना होगा । व्यापक का अर्थ है देशव्यापी । व्यापक का दूसरा अर्थ है सर्व पहलुओं को एक साथ समाविष्ट करने वाला । व्यापक का और एक अर्थ है समाज के सभी स्तरों के लिये उपयोगी। सभी स्तरों से तात्पर्य है नगरीय, ग्रामीण, वनवासी, अमीर, झुग्गीझोंपडियों में रहने वाले, घूमन्तु आदि सब । संगठित से तात्पर्य यह है कि देशभर में विभिन्न परिस्थितियों में, विभिन्न स्थानों पर, विभिन्न व्यक्तियों या व्यक्तिसमूहों के प्रयासों का लक्ष्य, विचार, योजना और कार्यपद्धति एक हो ।
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'''२. वैचारिक समानसूत्रता'''
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जैसे पूर्व में उल्लेख हआ है देशभर में अभी व्यक्तिगत रूप से, स्थानीय स्वरूप के, कहीं कहीं संस्थागत स्वरूप में भी शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयास हो रहे हैं। वे सब ज्ञानात्मक, परिश्रमपूर्ण, सन्निष्ठ और प्रामाणिक हैं। परन्तु उनका प्रयास सम्मिलित और संगठित नहीं होने से उनका प्रभाव शासन पर या शासन द्वारा नियन्त्रित शिक्षाक्षेत्र पर नहीं होता । परिणामतः वे कुछ मात्रा में अच्छी शिक्षा तो देते हैं, कुछ लोगों का भला भी करते हैं परन्तु विदेशी शिक्षातन्त्र का ही उपकार करते हैं और सांस्कृतिक गुलामी की बेडियों को और मजबूत बनाते हैं। अतः इन सभी प्रयासों को एक वैचारिक समान सूत्र में पिरोने की ठोस योजना बननी चाहिये।
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'''३. मुक्त संगठन'''
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ऐसी एकसूत्रता लाने के लिये देशभर में मुक्त संगठन की संकल्पना विकसित करने की आवश्यकता है। संगठन
    
==References==
 
==References==
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