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विश्व पर आधिपत्य स्थापित करने की आकांक्षा से ग्रस्त होकर अमेरिका राष्ट्रों के साथ व्यवहार कर रहा है। पाँच सो वर्ष पूर्व से यूरोप ने अपना साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास शुरू किया था उसका ही यह नवीन संस्करण है। उस समय यूरोप था, आज अमेरिका है। देशों के नाम भले ही बदलें हों, प्रजा वही है। विगत पाँच सौ वर्षों में यूरोप के अन्यान्य देशों ने पूर्व अपरिचित अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये, अठारहवीं शातब्दी के उत्तरार्ध में ये सारे उपनिवेश अपने मूल देशों से स्वतन्त्र होकर अमेरिकन देश बन गये और अपने आपको यूरोपीय नहीं अपितु अमेरिकन कहने लगे। अमेरिकन बनकर अब वे वही कर रहे हैं जो वे यूरोपीय थे तब कर रहे थे ।
 
विश्व पर आधिपत्य स्थापित करने की आकांक्षा से ग्रस्त होकर अमेरिका राष्ट्रों के साथ व्यवहार कर रहा है। पाँच सो वर्ष पूर्व से यूरोप ने अपना साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास शुरू किया था उसका ही यह नवीन संस्करण है। उस समय यूरोप था, आज अमेरिका है। देशों के नाम भले ही बदलें हों, प्रजा वही है। विगत पाँच सौ वर्षों में यूरोप के अन्यान्य देशों ने पूर्व अपरिचित अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये, अठारहवीं शातब्दी के उत्तरार्ध में ये सारे उपनिवेश अपने मूल देशों से स्वतन्त्र होकर अमेरिकन देश बन गये और अपने आपको यूरोपीय नहीं अपितु अमेरिकन कहने लगे। अमेरिकन बनकर अब वे वही कर रहे हैं जो वे यूरोपीय थे तब कर रहे थे ।
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साम्राज्य विस्तार भारत ने भी किया है। समुद्रपर्यन्त की पृथ्वी एक राष्ट्र बने । ऐसी आकांक्षा रखी है। परन्तु भारत का साम्राज्यवाद सांस्कृतिक रहा है, राजीनतिक नहीं ।
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साम्राज्य विस्तार भारत ने भी किया है। समुद्रपर्यन्त की पृथ्वी एक राष्ट्र बने । ऐसी आकांक्षा रखी है। परन्तु भारत का साम्राज्यवाद सांस्कृतिक रहा है, राजीनतिक नहीं । प्रजा के व्यावहारिक जीवन की सारी । इकाइयाँ छोटी और स्वायत्त हों यह भारतीय समाजरचना का आधारभूत सूत्र रहा है । इस समाजरचना में राज्य भी एक अंग था जो शासक होकर भी व्यवस्था की रक्षा और नियमन करने का काम करता था। आज का अमेरिकन साम्राज्यवाद सांस्कृतिक नहीं राजनीतिक है। वह विश्व के लिये एक ही अमेरिकन सरकार चाहता है।
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परन्तु अमेरिकन साम्राज्यवाद भी शुद्ध राजकीय नहीं है । वह आर्थिक साम्राज्यवाद है। समाज की अर्थव्यवस्था को राज्य ने नियन्त्रित करना चाहिये यह राज्य और अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध का आधारभूत सूत्र है। परन्तु अमेरिका ने राज्य और अर्थ को एक कर दिया है। अर्थव्यवस्था ने ही राज्य अपने हस्तक कर लिया है। शासक और व्यापारी एक ही हैं । अब अर्थ को नियन्त्रण में रखने की आवश्यकता नहीं, अर्थ स्वयं नियन्त्रक है। यह बाजार-साम्राज्यवाद है।
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भौतिकवादी जीवनदृष्टि का ही यह विकसित रूप है। 'कामप्रेरित अर्थप्रधान समाजरचना' ऐसा उसका व्यावहारिक स्वरूप है।
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अतः भारत ने विश्वपटल पर जिस मूल्य प्रश्न को उठाना चाहिये वह है कि विश्व पर अर्थ का साम्राज्य स्थापित होना चाहिये या किसी और तत्त्व का। भारत ने तो इसका उत्तर सहस्राब्दियों पूर्व ही निश्चित कर लिया है। भारत निश्चयपूर्वक मानता है कि साम्राज्य धर्म का ही होना चाहिये, शेष सारी व्यवस्थायें धर्म के अविरोधी, धर्म के अनुकूल होनी चाहिये । धर्म के साम्राज्य को आँच नहीं आनी चाहिये । प्रजा की रक्षा करना राजा का कर्तव्य है और धर्म की रक्षा करना राजा और प्रजा दोनों का कर्तव्य है। धर्म की रक्षा का प्रथम चरण है धर्म का पालन करना अर्थात् आचरण करना।
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इस धर्म की जब ग्लानि होती है अर्थात् सर्वत्र अन्याय, शोषण, असुरक्षा, स्वैराचार पैल जाते हैं तब इन्हें पुनः सुरक्षित करने के लिये अर्थात् धर्म की संस्थापना के लिये युद्ध होता है । भारत में इसे धर्मयुद्ध कहते हैं । धर्म के लिये युद्ध ही धर्मयुद्ध है । इतिहास में एक से अधिक बार
    
==References==
 
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