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| ==== विज्ञान, राजनीति, बाजार और धर्म का समन्वय ==== | | ==== विज्ञान, राजनीति, बाजार और धर्म का समन्वय ==== |
| यह एक जटिल व्यावहारिक मुद्दा है। एक सर्वसाधारण मान्यता ऐसी होती है कि तत्त्व समझना कठिन होता है, व्यवहार सरल है । परन्तु सत्य यह है कि तत्त्व तो बुद्धिमान व्यक्ति अल्प प्रयास से समझता है परन्तु तत्त्वानुसारी व्यवहार तो बुद्धिमानों के लिये भी बहुत कठिन होता है। | | यह एक जटिल व्यावहारिक मुद्दा है। एक सर्वसाधारण मान्यता ऐसी होती है कि तत्त्व समझना कठिन होता है, व्यवहार सरल है । परन्तु सत्य यह है कि तत्त्व तो बुद्धिमान व्यक्ति अल्प प्रयास से समझता है परन्तु तत्त्वानुसारी व्यवहार तो बुद्धिमानों के लिये भी बहुत कठिन होता है। |
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| + | परन्तु इस कठिन से कठिन समस्या को समझे बिना चराचर सृष्टि का भला नहीं हो सकता । इसलिये कुछ इन मुद्दों पर क्रमशः चर्चा चलाने की आवश्यकता है। |
| + | # इन शब्दों के तत्त्वतः अर्थ क्या हैं और आज इन्हें लेकर कितनी भ्रान्तियाँ फैली हुई हैं इनका कितना दुरुपयोग हो रहा है। |
| + | # इन सबका एकदूसरे के साथ क्या सम्बन्ध है ? कौन किसका साधन के रूप में उपयोग करता है ? |
| + | # इनके प्रयोग में कितना स्वार्थ, शोषण और कटप चल रहा है और इसके क्या दुष्परिणाम हो रहे हैं। |
| + | इस चर्चा में मुख्य भूमिका धर्माचार्यों की ही रहनी चाहिये । धर्माचार्य का अर्थ सम्प्रदायाचार्य नहीं है। |
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| + | भारत का समीकरण स्पष्ट है। वह धर्म, ज्ञान, राजनीति और बाजार इस क्रम में ही चारों संकल्पनाओं को रखता है। शेष तीनों धर्म के अविरोधी होने चाहिये यह भारत की विचारधारा में निर्विवाद रूप से प्रस्थापित है। अतः भारत को ही यह समीकरण विश्व के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिये। |
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| + | ==== आर्थिक आधिपत्य के बारे में विचार ==== |
| + | विश्व पर आधिपत्य स्थापित करने की आकांक्षा से ग्रस्त होकर अमेरिका राष्ट्रों के साथ व्यवहार कर रहा है। पाँच सो वर्ष पूर्व से यूरोप ने अपना साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास शुरू किया था उसका ही यह नवीन संस्करण है। उस समय यूरोप था, आज अमेरिका है। देशों के नाम भले ही बदलें हों, प्रजा वही है। विगत पाँच सौ वर्षों में यूरोप के अन्यान्य देशों ने पूर्व अपरिचित अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये, अठारहवीं शातब्दी के उत्तरार्ध में ये सारे उपनिवेश अपने मूल देशों से स्वतन्त्र होकर अमेरिकन देश बन गये और अपने आपको यूरोपीय नहीं अपितु अमेरिकन कहने लगे। अमेरिकन बनकर अब वे वही कर रहे हैं जो वे यूरोपीय थे तब कर रहे थे । |
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| + | साम्राज्य विस्तार भारत ने भी किया है। समुद्रपर्यन्त की पृथ्वी एक राष्ट्र बने । ऐसी आकांक्षा रखी है। परन्तु भारत का साम्राज्यवाद सांस्कृतिक रहा है, राजीनतिक नहीं । |
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