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परन्तु भारत ने सम्प्रदायों के संकट को अपनी विशिष्ट शैली से हल करने का यशस्वी प्रयास किया है। भारत की धर्म संकल्पना रिलीजन संकल्पना से भिन्न है , उससे कहीं अधिक व्यापक है। भारत मानता है कि विश्व में अनेक सम्प्रदायों का होना स्वाभाविक है। सम्प्रदाय समुदायों की देश काल परिस्थिति के अनुसार पैदा होते हैं, विस्तारित होते हैं, कभी मिटते भी हैं। उनमें व्यवस्थागत और व्यवहारगत बदल भी हो सकते हैं। परन्तु सम्प्रदायों का मूल्यांकन धर्म के निकष पर होता है। धर्म सनातन तत्त्व है। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही उसकी भी उत्पत्ति हुई है। वह सम्पूर्ण सृष्टि के जीवन का आधार है। प्रतिमा, पुस्तक, पयगम्बर, पूजापद्धति, विधिनिषेध आदि में वह सीमित नहीं है। ये सारे सम्प्रदाय के लक्षण हैं। धर्म जगत के सभी सम्प्रदायों से परे है। इसलिये वह सभी सम्प्रदायों का निकष है।
परन्तु भारत ने सम्प्रदायों के संकट को अपनी विशिष्ट शैली से हल करने का यशस्वी प्रयास किया है। भारत की धर्म संकल्पना रिलीजन संकल्पना से भिन्न है , उससे कहीं अधिक व्यापक है। भारत मानता है कि विश्व में अनेक सम्प्रदायों का होना स्वाभाविक है। सम्प्रदाय समुदायों की देश काल परिस्थिति के अनुसार पैदा होते हैं, विस्तारित होते हैं, कभी मिटते भी हैं। उनमें व्यवस्थागत और व्यवहारगत बदल भी हो सकते हैं। परन्तु सम्प्रदायों का मूल्यांकन धर्म के निकष पर होता है। धर्म सनातन तत्त्व है। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही उसकी भी उत्पत्ति हुई है। वह सम्पूर्ण सृष्टि के जीवन का आधार है। प्रतिमा, पुस्तक, पयगम्बर, पूजापद्धति, विधिनिषेध आदि में वह सीमित नहीं है। ये सारे सम्प्रदाय के लक्षण हैं। धर्म जगत के सभी सम्प्रदायों से परे है। इसलिये वह सभी सम्प्रदायों का निकष है।
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भारत की इस धर्म संकल्पना की चर्चा विश्वपटल पर चलाने की आवश्यकता है। दुर्भाग्य से धर्म संकल्पना को सम्प्रदाय के स्तर पर ही समझने का प्रयास होता है। उसे हिन्दुत्व के साथ जोडकर ईसाई-हिन्दू, मुसलमान-हिन्दू,
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भारत की इस धर्म संकल्पना की चर्चा विश्वपटल पर चलाने की आवश्यकता है। दुर्भाग्य से धर्म संकल्पना को सम्प्रदाय के स्तर पर ही समझने का प्रयास होता है। उसे हिन्दुत्व के साथ जोडकर ईसाई-हिन्दू, मुसलमान-हिन्दू, पारसी-हिन्दू, सिक्ख-हिन्दू, बौद्ध-हिन्दू, जैन-हिन्दू इस प्रकार पक्ष बनाये जाते हैं । फिर हिन्दुत्व को भारत के साथ जोड जिया जाता है और भारत में केवल हिन्दू धर्म नहीं रहेगा, और धर्म भी रहेंगे कोंकि भारत के संविधान ने धर्म निरपेक्षता को आधारभूत सिद्धान्त माना है। वास्तव में यह सारा तर्क कुतर्क है इसे बुद्धि का आधार नहीं है, यह राजनीतिक कुटिलता है। इसमें अज्ञान और विद्वेष समान रूप से समाये हुए हैं।
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परन्तु स्वस्थ चर्चा चलाकर यह समझने और समझाने का प्रयास करना चाहिये कि 'धर्म' संकल्पना शद्ध रूप से वैश्विक है और इस वैश्विकता में पंचमहाभूत प्राणी, वनस्पति, मनुष्य आदि सबका समावेश होता है। इस विश्वधर्म के निकष पर विश्व के सभी सम्प्रदायों का मूल्यांकन करना चाहिये।
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यह भारतीय है इसलिये वैश्विक है या भारतीय है इसलिये हिन्दू है इसलिये वैश्विक है यह सही नहीं है, यह वैश्विक है इसलिये हिन्दू है इसलिये भारतीय है वह सही तर्क है।
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संक्षेप में धर्म-सम्प्रदाय तथा धार्मिकता और साम्प्रदायिकता को लेकर विश्वविद्यालयों में अध्ययन होना अति आवश्यक है। यह अध्ययन राजनीतिक दबावों से मुक्त रहकर होना चाहिये यह भी विशेष उल्लेखनीय है। अनुभूति और उदार बुद्धि की इसमें अनिवार्य आवश्यकता रहेगी। आज अनुभूति की स्वीकृति नहीं है इसलिये केवल उदार बुद्धि और विशाल बुद्धि की आवश्यकता मानना चाहिये । यह चर्चा पर्याप्त रूप से व्यापक और परिणामकारी होनी चाहिये।
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==== विज्ञान, राजनीति, बाजार और धर्म का समन्वय ====
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यह एक जटिल व्यावहारिक मुद्दा है। एक सर्वसाधारण मान्यता ऐसी होती है कि तत्त्व समझना कठिन होता है, व्यवहार सरल है । परन्तु सत्य यह है कि तत्त्व तो बुद्धिमान व्यक्ति अल्प प्रयास से समझता है परन्तु तत्त्वानुसारी व्यवहार तो बुद्धिमानों के लिये भी बहुत कठिन होता है।
==References==
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