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| # शिक्षा की विषयवस्तु मूल रूप से बदलने की आवश्यकता है। | | # शिक्षा की विषयवस्तु मूल रूप से बदलने की आवश्यकता है। |
| आपने अपनी जीवन पद्धति और शिक्षा व्यवस्था से चलकर अनुभव कर ही लिया है कि इनके परिणामस्वरूप न केवल आप अपितु सारा विश्व विनाश की ओर धंस रहा है। अब उस विनाश से बचना है तो जरा भारत की कालसिद्ध जीवनपद्धति और शिक्षा पद्धति अपना कर अनुभव कर लिजीये । आपको तुरन्त आश्वस्ति का अनुभव प्राप्त हो जायेगा। | | आपने अपनी जीवन पद्धति और शिक्षा व्यवस्था से चलकर अनुभव कर ही लिया है कि इनके परिणामस्वरूप न केवल आप अपितु सारा विश्व विनाश की ओर धंस रहा है। अब उस विनाश से बचना है तो जरा भारत की कालसिद्ध जीवनपद्धति और शिक्षा पद्धति अपना कर अनुभव कर लिजीये । आपको तुरन्त आश्वस्ति का अनुभव प्राप्त हो जायेगा। |
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| + | === विश्वस्तर पर चलाने लायक चर्चा === |
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| + | ==== सेमेटिक रेलिजन ==== |
| + | सेमिटक रिलीजन का मुक्य लक्षण है सह-अस्तित्व को नकारना । सहअस्तित्व को नकारने के क्या दुष्परिणाम होते हैं इसकी चर्चा अन्यत्र हुई है। परन्तु इसका उपाय क्या हो सकता है इसका विचार करना ही अधिक महत्त्वपूर्ण है । इस दृष्टि से चर्चा के प्रकार कुछ इस प्रकार हो सकते हैं... |
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| + | ==== विश्वविद्यालयों में अध्ययन और चर्चा ==== |
| + | अनेक समस्याओं के ज्ञानात्मक हल श्रेष्ठ हल होते हैं। अतः विश्वविद्यालयों में इस विषय को महत्त्व देना चाहिये । इसके मुद्दे विभिन्न स्तरों पर होने चाहिये । पहला मुद्दा है विभिन्न रिलीजन का शास्त्रीय अध्ययन । मूल तत्त्वज्ञान क्या है और उसके अनुसार व्यक्तिगत और सामाजिक व्यवहार के सिद्धान्त क्या हैं इसे जानने का प्रयास करना चाहिये । सभी रिलीजनों की विश्वदृष्टि और जीवनदृष्टि क्या है इसे जानने का प्रयास किया जाना चाहिये । इसके आधार पर विश्व के पदार्थों, प्राणियों और मनुष्यों के साथ के व्यवहार के क्या निर्देश दिये गये हैं यह जानना चाहिये । |
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| + | दूसरा महत्त्वपूर्ण मुद्दा है सत्य और न्याय पर आधारित मूल्यांकन । अपने अलावा और किसी को भी स्वतन्त्रता का अधिकार है कि नहीं, जीवित रहने का अधिकार है कि नहीं इस प्रश्न का हर रिलीजन क्या उत्तर देता है इसके आधार पर मूल्यांकन होना चाहिये । सत्य, अहिंसा, स्वतन्त्रता, प्रेम आदि संकल्पनाओं की व्याख्या कौन कैसी करता है यह भी मूल्यांकन का आधार बनना चाहिये । |
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| + | तीसरा मुद्दा है रिलीजनों का तुलनात्मक अध्ययन । वैसे भारतीय दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन का बहुत महत्त्व नहीं है क्योंकि भारत सभी रिलीजनों का समान रूप से आदर करता है। |
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| + | परन्तु भारत ने सम्प्रदायों के संकट को अपनी विशिष्ट शैली से हल करने का यशस्वी प्रयास किया है। भारत की धर्म संकल्पना रिलीजन संकल्पना से भिन्न है , उससे कहीं अधिक व्यापक है। भारत मानता है कि विश्व में अनेक सम्प्रदायों का होना स्वाभाविक है। सम्प्रदाय समुदायों की देश काल परिस्थिति के अनुसार पैदा होते हैं, विस्तारित होते हैं, कभी मिटते भी हैं। उनमें व्यवस्थागत और व्यवहारगत बदल भी हो सकते हैं। परन्तु सम्प्रदायों का मूल्यांकन धर्म के निकष पर होता है। धर्म सनातन तत्त्व है। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही उसकी भी उत्पत्ति हुई है। वह सम्पूर्ण सृष्टि के जीवन का आधार है। प्रतिमा, पुस्तक, पयगम्बर, पूजापद्धति, विधिनिषेध आदि में वह सीमित नहीं है। ये सारे सम्प्रदाय के लक्षण हैं। धर्म जगत के सभी सम्प्रदायों से परे है। इसलिये वह सभी सम्प्रदायों का निकष है। |
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| + | भारत की इस धर्म संकल्पना की चर्चा विश्वपटल पर चलाने की आवश्यकता है। दुर्भाग्य से धर्म संकल्पना को सम्प्रदाय के स्तर पर ही समझने का प्रयास होता है। उसे हिन्दुत्व के साथ जोडकर ईसाई-हिन्दू, मुसलमान-हिन्दू, |
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| ==References== | | ==References== |