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अतः भारत ने विश्वपटल पर जिस मूल्य प्रश्न को उठाना चाहिये वह है कि विश्व पर अर्थ का साम्राज्य स्थापित होना चाहिये या किसी और तत्त्व का। भारत ने तो इसका उत्तर सहस्राब्दियों पूर्व ही निश्चित कर लिया है। भारत निश्चयपूर्वक मानता है कि साम्राज्य धर्म का ही होना चाहिये, शेष सारी व्यवस्थायें धर्म के अविरोधी, धर्म के अनुकूल होनी चाहिये । धर्म के साम्राज्य को आँच नहीं आनी चाहिये । प्रजा की रक्षा करना राजा का कर्तव्य है और धर्म की रक्षा करना राजा और प्रजा दोनों का कर्तव्य है। धर्म की रक्षा का प्रथम चरण है धर्म का पालन करना अर्थात् आचरण करना।
 
अतः भारत ने विश्वपटल पर जिस मूल्य प्रश्न को उठाना चाहिये वह है कि विश्व पर अर्थ का साम्राज्य स्थापित होना चाहिये या किसी और तत्त्व का। भारत ने तो इसका उत्तर सहस्राब्दियों पूर्व ही निश्चित कर लिया है। भारत निश्चयपूर्वक मानता है कि साम्राज्य धर्म का ही होना चाहिये, शेष सारी व्यवस्थायें धर्म के अविरोधी, धर्म के अनुकूल होनी चाहिये । धर्म के साम्राज्य को आँच नहीं आनी चाहिये । प्रजा की रक्षा करना राजा का कर्तव्य है और धर्म की रक्षा करना राजा और प्रजा दोनों का कर्तव्य है। धर्म की रक्षा का प्रथम चरण है धर्म का पालन करना अर्थात् आचरण करना।
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इस धर्म की जब ग्लानि होती है अर्थात् सर्वत्र अन्याय, शोषण, असुरक्षा, स्वैराचार पैल जाते हैं तब इन्हें पुनः सुरक्षित करने के लिये अर्थात् धर्म की संस्थापना के लिये युद्ध होता है । भारत में इसे धर्मयुद्ध कहते हैं । धर्म के लिये युद्ध ही धर्मयुद्ध है । इतिहास में एक से अधिक बार
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इस धर्म की जब ग्लानि होती है अर्थात् सर्वत्र अन्याय, शोषण, असुरक्षा, स्वैराचार पैल जाते हैं तब इन्हें पुनः सुरक्षित करने के लिये अर्थात् धर्म की संस्थापना के लिये युद्ध होता है । भारत में इसे धर्मयुद्ध कहते हैं । धर्म के लिये युद्ध ही धर्मयुद्ध है । इतिहास में एक से अधिक बार ऐसे युद्ध हुए हैं। धर्मयुद्ध राज्य के लिये नहीं होता, सम्प्रदाय के लिये नहीं होता। धर्म जिहाद या क्रूसेड नहीं है। धर्मयुद्ध दुर्जनों का नाश कर सज्जनों की रक्षा करने के लिये होता है।
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आज विश्व के समक्ष धर्मसंस्थापना का ही प्रश्न उपस्थित हुआ है। अर्थ-साम्राज्यवाद अधर्म का पक्ष है, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद धर्म का । आज विश्व में एक प्रकार का ध्रुवीकरण हो रहा है । वह है अधर्म के पक्ष का । धर्म के पक्ष का ध्रुवीकरण करने की महती आवश्यकता है। धर्म के पक्ष का ध्रुवीकरण करने की और उसका नेतृत्व लेने की जिम्मेदारी भारत की है।
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इसलिये भारत को चाहिये कि वह विश्वपटल पर धर्म और अर्थ की चर्चा शुरू करे। धर्म और अर्थ का ही
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पर्यवसान निःश्रेयस और अभ्युदय की संकल्पना में होता है । धर्म की संस्थापना से तात्पर्य अर्थ को नकारना नहीं है, अर्थ की सर्वार्थ में सुलभता ही है। भारत के लिये तो यह समझना सरल है परन्तु विश्व को यह समझाने की आवश्यकता है। विश्व में आज अनेक मुद्दों पर युद्ध होने की सम्भावनायें निर्माण हो रही हैं। प्रत्यक्ष युद्ध चल भी रहे हैं। कहीं भूमि के लिये, कहीं सम्प्रदाय के लिये, कहीं जंगल के लिये, कहीं पानी के लिये, कहीं बाजार के लिये । ये सब मिलकर अधर्म के पक्ष को बलवान बना रहे हैं। इसे ही भगवद्गीता ने अधर्म का अभ्युत्थान कहा है। इस अधर्म के विनाश हेतु धर्म का पक्ष बलवान होने की आवश्यकता है । यह काम भारत को करना है।
    
==References==
 
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