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इसलिये विश्व को बदलना है तो प्रथम भारत को चाहिये कि वह अपने आपको बदले। ऊपरी सतह से न देखे, आन्तरिक स्तर से जीवन और जगत को देखे । मूल एकत्व और ऊपरी विविधता का स्वीकार करे और कहाँ ऊपरी बातों के आधार पर और कहाँ आन्तरिक बातों के आधार पर व्यवहार करना है उसका विवेक करें।
 
इसलिये विश्व को बदलना है तो प्रथम भारत को चाहिये कि वह अपने आपको बदले। ऊपरी सतह से न देखे, आन्तरिक स्तर से जीवन और जगत को देखे । मूल एकत्व और ऊपरी विविधता का स्वीकार करे और कहाँ ऊपरी बातों के आधार पर और कहाँ आन्तरिक बातों के आधार पर व्यवहार करना है उसका विवेक करें।
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==== ७. धर्म के स्वीकार की बाध्यता ====
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यह कितने आश्चर्य की बात है कि भारत में हम जिस धर्म की हमेशा बात करते हैं उस धर्म का पश्चिम में कोई स्थान ही नहीं है, किंबहुना वहाँ के जीवनविचार में धर्म संकल्पना का अस्तित्व ही नहीं है । उनके शब्दकोष में धर्म के लिये कोई पर्यायवाची शब्द भी नहीं है। यह तो भारतीयों की ही गलती है कि उन्होंने धर्म का पर्यायवाची शब्द रिलीजन को बनाया अथवा पश्चिम के लोगों द्वारा धर्म को रिलीजन कहे जाने पर कोई आपत्ति नहीं उठाई । इस कारण से विश्व में तो ठीक, भारत में भी धर्म विवाद का विषय बन गया।
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धर्म के सन्दर्भ में पश्चिम की स्थिति को समझने के लिये अत्यन्त संक्षेप में धर्म और रिलीजन के अर्थ और अन्तर को संक्षेप में समझ लेना उचित रहेगा।
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धर्म क्या है ?
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* धर्म विश्वनियम है जिसकी उत्पत्ति विश्व के साथ साथ हुई है।
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* धर्म विश्वनियम के अनुसार चलने वाली व्यवस्था है।
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* धर्म नामक इस विश्वनियम के अनुसार सम्पूर्ण प्रकृति संचालित होती है, नियमन में रहती है, सुरक्षित रहती है जिससे उसका नाश नहीं होता।
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* इन विश्वनियमों के अनुसरण में, अनुकूलन में, उसके अविरोधी मनुष्य ने अपने जगत के लिये जो नियम, जो व्यवस्था बनाई है वह मनुष्य के लिये धर्म है। यह मनुष्य जगत के लिये नियम है।
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* इस व्यवस्था के अनुसार अपनी विभिन्न भूमिकाओं में विभिन्न सन्दर्भो में जो कर्तव्य हैं वे भी मनुष्य के लिये धर्म है।
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* मनुष्य सहित सृष्टि के समस्त पदार्थों का जो स्वभाव है वह उस पदार्थ का धर्म, स्वभावधर्म या गुणधर्म है।
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* किसी भी व्यवहार का सर्वेषामविरोधेन सर्वहित कारी रूप में चलना व्यवहारधर्म है।
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* मनुष्य अपने व्यवहार, भावना, कर्तव्य आदि के आलम्बन हेतु अपना इष्टदेवता निश्चित करता है, उसकी उपासना, अर्चना, पूजा करता है, उसके अनुकूल आचार अपनाता है, जपतप करता है, व्रतउपवास करता है, कथाश्रवण और ग्रन्थवाचन करता है वह उसका सम्प्रदाय धर्म है।
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इस प्रकार सम्प्रदाय अथवा पंथ, व्यवस्था, नियम, कर्तव्य, स्वभाव ऐसे विभिन्न आयामों में धर्म प्रकट होता है। पश्चिम में इन सब आयामों के लिये एथिक्स, ड्यूटी, नेचर, लॉ, रिलीजन आदि विभिन्न संज्ञायें हैं परन्तु ये सब जिस एक के विभिन्न आयाम हैं ऐसा कोई एक शब्द नहीं है । वे सब एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं और भिन्न भिन्न दायरे बनाते हैं।
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धर्म की संकल्पना की अनुपस्थिति में पश्चिम के जीवन में समग्रता और समरसता, परस्परपूरकता और परस्परावलम्बिता, एकता और एकात्मता सम्भव नहीं होते । एकाकीपन, पृथकता, खण्डितता, विभाजकता फैल जाते हैं। इन तत्त्वों को ही स्वाभाविक माना जाता है क्योंकि दूसरे का परिचय ही नहीं है। परिचय ही नहीं है तब अनुभव की तो बात ही नहीं है । परिणाम स्वरूप सर्वत्र विशृंखलता दिखाई देती है।
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धर्म को पश्चिम ने रिलीजन समझा, कर्तव्य को कानून के पालन में सीमित किया, गुणधर्म को पदार्थविज्ञान का और स्वभाव को मनोविज्ञान का हिस्सा बनाया, नीतिओं को स्वार्थपूर्ति की सुविधा का सन्दर्भ दिया।
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धर्म को रिलीजन मानकर सम्प्रदाय का स्वरूप देकर उसने अपना बल, सत्ता, धन प्राप्ति का साधन बनाया। साथ ही अपने अहंकार जनित श्रेष्ठत्व की भावना का रंग चढाया । इसाई हो या इसाई पूर्व रिलीजन हों, गैरइसाई को इसाई बनाने को अपना कर्तव्य माना । हम अन्य पंथों की
    
==References==
 
==References==
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