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| धर्म को पश्चिम ने रिलीजन समझा, कर्तव्य को कानून के पालन में सीमित किया, गुणधर्म को पदार्थविज्ञान का और स्वभाव को मनोविज्ञान का हिस्सा बनाया, नीतिओं को स्वार्थपूर्ति की सुविधा का सन्दर्भ दिया। | | धर्म को पश्चिम ने रिलीजन समझा, कर्तव्य को कानून के पालन में सीमित किया, गुणधर्म को पदार्थविज्ञान का और स्वभाव को मनोविज्ञान का हिस्सा बनाया, नीतिओं को स्वार्थपूर्ति की सुविधा का सन्दर्भ दिया। |
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− | धर्म को रिलीजन मानकर सम्प्रदाय का स्वरूप देकर उसने अपना बल, सत्ता, धन प्राप्ति का साधन बनाया। साथ ही अपने अहंकार जनित श्रेष्ठत्व की भावना का रंग चढाया । इसाई हो या इसाई पूर्व रिलीजन हों, गैरइसाई को इसाई बनाने को अपना कर्तव्य माना । हम अन्य पंथों की | + | धर्म को रिलीजन मानकर सम्प्रदाय का स्वरूप देकर उसने अपना बल, सत्ता, धन प्राप्ति का साधन बनाया। साथ ही अपने अहंकार जनित श्रेष्ठत्व की भावना का रंग चढाया । इसाई हो या इसाई पूर्व रिलीजन हों, गैरइसाई को इसाई बनाने को अपना कर्तव्य माना । हम अन्य पंथों की बात न कर केवल इसाइयत की ही बात करें तो दुनिया का इसाईकरण करने हेतु रक्तपात, लूट, शोषण और नरसंहार की पराकाष्ठा पश्चिम ने की है। विश्व के अनेक देश, जो मूलतः इसाई नहीं थे, आज पूर्ण रूप से इसाई बन गये हैं। दुनिया को इसाई बनाने के लिये इन्होंने सारे अमानवीय हथकण्डे ही अपनाये हैं इसका प्रमाण इतिहास देता है। |
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| + | धर्म सर्व प्रकार का अनुकूलन बनाने का मार्गदर्शन करता है परन्तु इतिहास दर्शाता है कि उसका भौतिक विज्ञान और सत्ता दोनों के साथ अनुकूलन नहीं रहा । पोप के रूप में रिलीजन की सत्ता है और राजसत्ता ने इस रिलीजन की सत्ता के अधीन होना स्वीकार नहीं किया। भौतिक विज्ञान और रिलीजन का भी परस्पर अनुकूलन नहीं रहा । आज पश्चिम में भौतिक विज्ञान और इसाइयत दोनों हैं परन्तु एकदूसरे से निरपेक्ष हैं । रिलीजन का अर्थसत्ता से भी अंगागी सम्बन्ध नहीं रहा। अर्थात् रिलीजन, अर्थक्षेत्र, राज्य और विज्ञान सब एकदूसरे से स्वतन्त्र बनकर अस्तित्व में है, ऐसा जीवन विशृंखल ही रहेगा इसमें कोई आश्चर्य नहीं। |
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| + | फिर रिलीजन का प्रयोजन क्या है ? रिलीजन का प्रयोजन 'साल्वेशन' है। 'साल्वेशन' हम जिसे मोक्ष कहते हैं वह नहीं है। साल्वेशन स्वर्ग प्राप्ति है जहाँ निरन्तर अबाधित सुख है । यह सुख पृथ्वी पर के सुख जैसा ही है, केवल वह निर्विरोध है । इसु की उपासना से ही स्वर्ग में जाया जाता है। 'धर्म' के समान ही अंग्रेजी में 'पुण्य' के लिये भी कोई संज्ञा नहीं है यह भी क्या केवल योगानुयोग है या उनके मानस की ओर संकेत है इसका भी विचार करना चाहिये। |
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| + | इन सभी स्थिति से प्रेरित होकर सेकुलर शब्द निकला है जो सांस्कृतिक जीवन के लिये बड़ा अवरोध है। 'सेकुलर' संकल्पना का स्रोत विशृंखलता और शासन, रिलीजन, विज्ञान और अर्थक्षेत्र की आपसी खींचातानी हैं। यह पश्चिमी समाज की पहचान है। भारत के राष्ट्रजीवन में इसकी कोई आवश्यकता ही नहीं है, न इसका कोई स्थान है। भारत में सत्ता और धर्म, अर्थ और धर्म जैसे संघर्ष की कल्पना ही नहीं की गई है, उल्टे इन 4 सभी के समन्वय और सन्तुलन की अद्भुत व्यवस्था की गई है। ऐसे भारत में रिलीजन का अनुवाद 'धर्म' करनेवाले ने भारत के जनजीवन को भारी अन्याय किया है। |
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| + | आज भारत को स्वयं को इस विवाद से मुक्त होना है और उसके बाद विश्व को मार्गदर्शन करना है। प्रथम तो भारत को निश्चित करना होगा कि 'सर्वपन्थसमादर' की, सहअस्तित्व को निश्चयपूर्वक स्वीकार करने वाली भारत की विचारधारा सहअस्तित्व को सर्वथा नकारने वाली वृत्तिप्रवृत्ति के साथ समायोजन कैसे करेगी। अपने आप में निश्चित होने के बाद ही विश्वफलक पर अध्यात्म, धर्म, सम्प्रदाय आदि की चर्चा चलाने की आवश्यकता रहेगी। |
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| + | धर्म को जब हम ‘धारण करने वाला' तत्त्व समझते हैं तब ऐसे किसी भी तत्त्व के अभाव में जगत में सुख, शान्ति, समृद्धि और सुरक्षा सम्भव ही कैसे हो सकता है यह बात बार बार उठाने की आवश्यकता है। कानून और धर्म एक नहीं है, समकक्ष भी नहीं हैं इस मुद्दे को भी अधोरेखांकित करना होगा। |
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| + | ऐसा करने के लिये श्रद्धा, विश्वास, आचार, ज्ञान आदि में सामर्थ्य प्राप्त करने की अनिवार्य आवश्यकता रहेगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि धर्म सिखाने वाली शिक्षा से ही ऐसा सामर्थ्य प्राप्त होगा। |
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| + | श्री भगवान अपनी गीता में विभूतियोग में कहते हैं कि समासो में मैं द्वन्द्व हूँ। समास का अर्थ यहाँ 'जुडे हुए तत्त्व' है। अनेक रचनायें, अनेक पदार्थ, अनेक व्यक्ति परस्पर विविध सम्बन्धों से जुडते हैं। अनेक बार यह सम्बन्ध अंगांगी होता है। उदाहरण के लिये फूल और पंखुडियाँ, वृक्ष और डाली, शरीर और हाथ, हाथ और ऊँगली आदि का परस्पर सम्बन्ध अंग और अंगी का है जिसमें एक मुख्य है और दूसरा गौण है, मुख्य का हिस्सा है । कभी तो दो पद विभिन्न कारकों से जुडते हैं । उदाहरण के लिये पुत्रधर्म, शिक्षकधर्म, प्रजापालन आदि, जिसमें एक पद विशेषण और दूसरा विशेष्य, एक साधन और दूसरा कारक होता है। |
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| ==References== | | ==References== |