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==== ६. एकरूपता नहीं एकात्मता ====
 
==== ६. एकरूपता नहीं एकात्मता ====
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पश्चिम को समानता के लिये एकरूपता की आवश्यकता होती है, क्योंकि वह बाहर का देखता है। एकरूपता की संकल्पना का व्यवहार में भी परिणाम दिखाई देता है। समानता उसे बाहर से नापे जाने वाले समान व्यवहार करने को प्रेरित करती है। इससे अस्वाभाविक स्थितियाँ निर्माण होती हैं क्योंकि एकरूपता सृष्टि का स्वभाव नहीं है। उदाहरण के लिये जब हम रेल में यात्रा करते हैं तब राजधानी या शताब्दी में भोजन मिलता है। वह दस वर्ष के बच्चे, अस्सी वर्ष के वृद्ध और तीस वर्ष के युवा के लिये समान मात्रा में होता है । यह स्वाभाविक नहीं है। भोजन भूख के हिसाब से होना चाहिये, पैसे के हिसाब से नहीं, परन्तु रेल की दुनिया भूख के हिसाब से भोजन देने को ही अव्यावहारिक कहेगी । सबको समान मात्रा में भोजन देने की भी लम्बी कारण परम्परा होती है। अर्थात् एकरूपता में समानता का मापन एक अलग ही व्यवहार प्रणाली निर्माण करता है।
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भारत को चाहिये कि वह एकरूपता में समानता न देखें अपितु एकात्मता में देखे । एकात्मता का व्यवहार जगत स्वाभाविक होता है । भूख के अनुसार भोजन में कोई दो, कोई चार और कोई छः रोटी खाता है तो भी वह समान ही है क्योंकि भूख शान्त होना मापदण्ड है, रोटी की संख्या नहीं।
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दस लाख, एक लाख और दस हजार कमाने वाले तीनों यदि हजार रूपये का दान करते हैं तो राशि समान होने पर भी वह समान नहीं है। दान का मापन भावना और क्षमता के आधार पर होता है, राशि के आधार पर नहीं, क्योंकि दस हजार कमाने वाले तीनों व्यक्ति हजार हजार देते हैं तब भी हो सकता है कि वे समान न हों । क्षमता भी केवल राशि पर नहीं, परिस्थिति पर निर्भर करती है, लेनेवाले की आवश्यकता पर भी निर्भर करती है।
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एकरूपता में कपड़े, जूते, टोपी आदि पहननेवाले के शरीर के नाप के अनुसार नहीं मिलते, बेचनेवाले और बनाने वाले ने तय किये हुए नम्बर के अनुसार मिलते हैं। ये तो बहुत छोटे उदाहरण हैं । परन्तु बड़े से बडी रचनाओं में भी यह एकरूपता दिखाई देती है । लोकतन्त्र की वर्तमान संकल्पना में एकरूपता ही आधारभूत तत्त्व है । एक व्यक्ति एक मत का सिद्धान्त बुद्धि की, भावना की, क्षमता की, नीयत की भिन्नता को कोई महत्त्व नहीं देता, एक अत्यन्त सज्जन और बुद्धिमान व्यक्ति के मत का जितना मूल्य है उतना ही मूल्य एक दुष्ट और निर्बुद्ध व्यक्ति के मत का। अर्थात् राजकीय परिपक्वता जैसा कोई विषय ही गणना में नहीं लिया जाता।
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जो लोग भौतिक दृष्टि से ही जीवन और जगत को देखते हैं वे इस प्रकार की समानता की कल्पना करते हैं। उनके लिये सारा मापन यान्त्रिक हो जाता है। अन्तःकरण की प्रवृत्तियाँ उनके लिये कोई मायने नहीं रखती।
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भारत को इसका त्याग करना होगा । भौतिकवादी यान्त्रिक एकरूपता से भारतीय जीवनशैली का विकास नहीं हो सकता । यह केवल तत्त्वज्ञान का नहीं, व्यवहार का विषय है। एकरूपता के स्थान पर एकात्मता से प्रेरित स्वाभाविकता का स्वीकार किया जाय तो असंख्य रचनायें
    
==References==
 
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