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अंग्रेजी व्याकरण पढाते समय भूतकाल का उदाहरण देने हेतु एक विद्यार्थीने लिखा -
 
अंग्रेजी व्याकरण पढाते समय भूतकाल का उदाहरण देने हेतु एक विद्यार्थीने लिखा -
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रावण किल्ड राम - रावण ने राम को मारा । अध्यापक कहते हैं कि यह वाक्य तथ्य की दृष्टि से गलत है परन्तु व्याकरण की दृष्टि से सही है । व्याकरण की दृष्टि और इतिहास की दृष्टि यदि परस्पर विरोधी है और जिस उत्तर को इतिहास की परीक्षा में शून्य अंक मिलेंगे उस उत्तर को व्याकरण की परीक्षा में पूर्ण अंक मिलेंगे तो हमारी अध्ययन की दृष्टि को एकांगी ही कहा जायेगा। यह तो बहुत ही सामान्य उदाहरण है परन्तु बुद्दिमान अध्यापकों में यह बडे विवाद का विषय बन सकता है। इसी एकांगी दृष्टि से
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रावण किल्ड राम - रावण ने राम को मारा । अध्यापक कहते हैं कि यह वाक्य तथ्य की दृष्टि से गलत है परन्तु व्याकरण की दृष्टि से सही है । व्याकरण की दृष्टि और इतिहास की दृष्टि यदि परस्पर विरोधी है और जिस उत्तर को इतिहास की परीक्षा में शून्य अंक मिलेंगे उस उत्तर को व्याकरण की परीक्षा में पूर्ण अंक मिलेंगे तो हमारी अध्ययन की दृष्टि को एकांगी ही कहा जायेगा। यह तो बहुत ही सामान्य उदाहरण है परन्तु बुद्दिमान अध्यापकों में यह बडे विवाद का विषय बन सकता है। इसी एकांगी दृष्टि से निर्देशित होकर हम कहते हैं कि 'मैं परिक्षा में फेल हुआ इस वाक्य को सही मानना चाहिये, भले ही उसमें भाषा की दृष्टि से दो गलतियाँ हैं, एक है ‘परिक्षा' के स्थान पर 'परीक्षा' होना चाहिये और दसरी है 'फेल' के स्थान पर 'अनुत्तीर्ण' कहना चाहिये, परन्तु कहने का आशय समझ में आता है इसलिये भाषा की गलतियों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिये । यह एकांगी दृष्टि है जो पश्चिमी विचार पद्धति का लक्षण है। यह संगणकीय पद्धति है। हर बात को विभाजित करते करते ऐसी स्थिति तक पहुँचना जहाँ किसी का भी किसी के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध न रहे । इस प्रकार की एकांगी दृष्टि से कभी भी ज्ञान तक नहीं पहुँचा जाता । अध्ययन में समग्रता की दृष्टि होनी चाहिये । समग्र दृष्टि से अध्ययन करने पर ही ज्ञान प्रकट होता है और जीवन और जगत की एकात्मता का साक्षात्कार होता है। यूरोअमेरिकी जीवनदृष्टि से अनुप्राणित जितने भी विश्वविद्यालय चल रहे हैं वे सब अपने आपमें कितने ही श्रेष्ठ हों तो भी विश्वकल्याण की दृष्टि से वे श्रेष्ठ नहीं हो सकते । भारत को इस विचार पर दृढ होना चाहिये ।
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एकांगी दृष्टि वर्तमान भारत की तो है परन्तु सनातन भारत की नहीं। हमें सनातन भारत की समग्र दृष्टि प्राप्त करने की आवश्यकता है। पूर्व में हमने इसका विचार किया ही है।
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४. इस ग्रन्थ के प्रथम विभाग में हमने विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची बनाने हेतु जिन मानकों का प्रयोग किया जाता है उनके बारे में पढा है । ध्यान में आता है कि ये मानक शैक्षिक भी हैं और भौतिक भी । भौतिक में भी दो प्रकार हैं। एक है भौतिक सुविधायें और दूसरा है आर्थिक पक्ष । प्रथम आर्थिक पक्ष का विचार करें। जिस विश्वविद्यालय का बजट बडा है वह श्रेष्ठ है । परन्तु केवल बजट बडा है इसलिये वह बडा नहीं हो जाता । आजकल कार्यक्रमों के मूल्यांकन में भी बड़े बजट की चर्चा की जाती है। बजट में खर्च की तो गणना होती है परन्तु फिजूलखर्ची, महँगाई और निःशुल्क सेवा की गणना नहीं होती। भारत में फिजूजलखर्ची नहीं करना, महँगाई नहीं होना, कल्पनाशीलता का पैसा नहीं लेना, निःशुल्क सेवा करना बडे सद्गुण माने जाते हैं जिनके कारण बजट कम होता है। बजट कम होते ही अमेरिकी दृष्टि से उसका क्रम पीछे जाता है। भारत में कभी सुविधाओं को अर्थात् बडे भवनों को, आरामदेह फर्नीचर को, वाहनों को आवश्यक भले ही माना जाता हो, मूल्यांकन में वरीयता नहीं दी जाती। उल्टे विद्याभ्यास के लिये सुविधायें नहीं होना, मनोरंजन के प्रति ध्यान आकर्षित नहीं होना, स्वैच्छिक सादगी होना ही अच्छा माना जाता है। पश्चिम की तर्ज पर भारत में बने विश्वविद्यालय के बडे बडे भवनों को देखने पर ध्यान में आता है कि ये भवन दिन के कितने घण्टे और वर्ष में कितने अधिक दिन खाली ही रहते हैं। यह राष्ट्रीय सम्पत्ति का अपव्यय है, श्रेष्ठता का लक्षण नहीं । अतः भौतिक सुविधाओं का मापदण्ड उचित नहीं है।
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अध्यापकों को वेतन, शोधकार्य के परिणाम स्वरूप प्रकाशित होने वाली सामग्री का विक्रय, शोध से प्राप्त पेटण्ट के माध्यम से मिलने वाला धन, शोधकार्य के परिणाम सवरूप चलाये जाने वाले प्रकल्पों से विश्वविद्यालय को प्राप्त होने वाला धन विश्वविद्यालय की कमाई है। इस कमाई के आधार पर श्रेष्ठता प्राप्त होती है। भारत का मानस इससे सर्वथा भिन्न है। भारत की ज्ञानदृष्टि अर्थसापेक्ष नहीं है। ज्ञान के क्षेत्र में कोई एकाधिकार नहीं होता है। एकाधिकार प्राप्त कर बाजार में उसकी कीमत वसूल करना बाजारीकरण है। भारत ज्ञान के बाजारीकरण का समर्थन कदापि नहीं कर सकता। वर्तमान भारत में विश्वविद्यालय पश्चिम की तर्ज पर चलने का प्रयास तो करते हैं परन्तु अपने अन्तःकरण की प्रवृत्ति बाजारीकरण के विरुद्ध होने के कारण एकाधिकार और अर्थार्जन की गतिविधियों में पीछे रह जाते हैं।
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उदाहरण के लिये विश्वविद्यालयों में अनेक विषयों पर व्याख्यान मालायें होती हैं। अध्यापक और आमन्त्रित विद्वान उसमें व्याख्यान देते हैं । उन व्याख्यानों की पुस्तिका भी प्रकाशित होती है। परन्तु इन व्याख्याताओं को पैसे नहीं दिये जाते, अथवा ये पुसतिकायें निःशुल्क वितरित की जाती हैं। विश्वविद्यालयों के अध्यापक अन्यत्र व्याख्यान देते हैं। अनेक सेवाकीय संस्थाओं में पढाने की सेवा करते हैं जहाँ पैसे का लेनदेन नहीं होता है। समाज प्रबोधन के अनेक कार्यक्रम निःशुल्क होते हैं। कुल मिलाकर जहाँ सेवाकीय गतिविधियाँ अधिक होती हैं वहाँ अर्थार्जन कम ही होता है। भारत में ऐसी संस्थायें अच्छी मानी जाती हैं परन्तु अमेरिकी दृष्टि में ये बैठती ही नहीं हैं । इस कारण से आर्थिक मापदण्ड भारत को स्वीकार्य नहीं है।
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विश्वविद्यालयों को श्रेष्ठता के शैक्षिक मापदण्ड की ओर भी ध्यान देना चाहिये । शैक्षिक श्रेष्ठता अध्यापकों और विद्यार्थियों की ज्ञानसाधना पर निर्भर करती है । ज्ञानसाधना का मापदण्ड अन्ततोगत्वा आर्थिक ही होता है । होता यह है कि भौतिक और आर्थिक दृष्टि से यह ज्ञान बहुत श्रेष्ठ होने पर भी उसके सामाजिक सांस्कृतिक सन्दर्भ निहित स्वार्थक ही होते हैं। इसलिये भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान के एकांगी दृष्टि से किये गये अध्ययन में वे श्रेष्ठ होते हैं परन्तु उनका मूल्यांकन आर्थिक दृष्टि से ही होता है। अतः शैक्षिक दृष्टि का मापदण्ड अधूरा माना जायेगा । समग्रता की दृष्टि से तो सारी ज्ञानसाधना विफल मानी जानी चाहिये । भगवद्गीता की दृष्टि से यह तामसी अथवा बहुत हुआ तो राजसी ज्ञानसाधना मानी जानी चाहिये ।।
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भारत पश्चिम की शोधप्रक्रिया को भी मान्य नहीं कर सकता। जिस प्रक्रिया में केवल विश्लेषणात्मक पद्धति ही हो और संश्लेषण नहीं किया जाता हो, जिस प्रक्रिया में सम्पूर्ण सृष्टि के भले का विचार न किया जाता हो वह ज्ञानात्मक दृष्टि से भी कम मूल्यवान और सामाजिक दृष्टि से भी कम उपयोगी माना जाना चाहिये ।
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=== ५. भारत का विश्वकल्याणकारी मानस ===
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