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भारत को सिद्ध होने के लिये संगठित होना होगा। आज की भाषा में जिसे युनियन कहते हैं ऐसा इस संगठित का अर्थ नहीं है। समाज संचालन करने वाले जितने भी वर्ग हैं उन सबको आन्तरिक सहमति और समरसता निर्माण करनी होगी। भारत एक राष्ट्र है, वह सार्वभौम प्रजासत्ताक राष्ट्र है इस सूत्र का स्वीकार कर एक सार्वभौम, स्वतन्त्र, समर्थ, सम्पन्न राष्ट्र बनाने हेतु सभी वर्गों का स्वेच्छापूर्वक सक्रिय योगदान होना आवश्यक है। ये वर्ग हैं सरकार, प्रशासन, विश्वविद्यालय, उद्योग, परिवार, धर्माचार्य एवं सैन्य । न्यायालय और पुलीस सरकार का ही हिस्सा है। इन सब की समरसता से ही सामर्थ्य निर्माण होगा। संगठन के मूल सूत्र निर्माण करना धर्मसंस्था और ज्ञानसंस्था का कार्य है। इन दोनों ने पहल करनी होगी। सरकार और सभी समाजसेवी संगठनों ने इन्हें आग्रहपूर्वक निवेदन करना होगा कि वे अपने राष्ट्र को समर्थ बनाने हेतु दायित्व का स्वीकार करें।
 
भारत को सिद्ध होने के लिये संगठित होना होगा। आज की भाषा में जिसे युनियन कहते हैं ऐसा इस संगठित का अर्थ नहीं है। समाज संचालन करने वाले जितने भी वर्ग हैं उन सबको आन्तरिक सहमति और समरसता निर्माण करनी होगी। भारत एक राष्ट्र है, वह सार्वभौम प्रजासत्ताक राष्ट्र है इस सूत्र का स्वीकार कर एक सार्वभौम, स्वतन्त्र, समर्थ, सम्पन्न राष्ट्र बनाने हेतु सभी वर्गों का स्वेच्छापूर्वक सक्रिय योगदान होना आवश्यक है। ये वर्ग हैं सरकार, प्रशासन, विश्वविद्यालय, उद्योग, परिवार, धर्माचार्य एवं सैन्य । न्यायालय और पुलीस सरकार का ही हिस्सा है। इन सब की समरसता से ही सामर्थ्य निर्माण होगा। संगठन के मूल सूत्र निर्माण करना धर्मसंस्था और ज्ञानसंस्था का कार्य है। इन दोनों ने पहल करनी होगी। सरकार और सभी समाजसेवी संगठनों ने इन्हें आग्रहपूर्वक निवेदन करना होगा कि वे अपने राष्ट्र को समर्थ बनाने हेतु दायित्व का स्वीकार करें।
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=== ४. विश्व के सन्दर्भ में विचार ===
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विश्व के सन्दर्भ में भारतीय शिक्षा की स्थिति को देखते हैं तब हमें बहुत ही दारुण चित्र दिखाई देता है। आन्तर्राष्ट्रीय सूचकांक दर्शाते हैं कि विश्व के श्रेष्ठ दो सौ विद्यालयों की सूची में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम शिक्षा के मामले में बहुत पिछडे हुए हैं।
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फिर हम स्वप्न देखना शुरू करते हैं कि भारत में भी हम आन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय शुरू करेंगे। परन्तु बहुत जल्दी हमारा स्वप्न भंग हो जाता है। हमें प्रतीति होती है कि हमारे पास न पैसा है न नीयत, न बुद्धि प्रतिभा जिनके बल पर हम आन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय बना सकें।
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फिर हम कुछ अराष्ट्रीय बातों पर खेद का अनुभव करते हैं। हमें दुःख होता है कि हमारी बुद्धिप्रतिभा देश में रहना नहीं चाहती। वह अन्य देशों के विश्वविद्यालयों में प्रगत अध्ययन के लिये जाती है। अपने तेजस्वी विद्यार्थी पढाई भी वहाँ करते हैं और व्यवसाय भी क्योंकि उन्हें भारत में अनुसन्धान के लिये कोई अवसर नहीं है। भारत में उनकी प्रतिभा की कोई कदर नहीं है। यह स्थिति हमारे हीनताबोध में वृद्धि करती है।
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हमारे हीनताबोध को दूर करने के मनोवैज्ञानिक उपाय तो हमें करने ही होंगे। अन्यत्र (ग्रन्थ - ४ में) इस विषय की चर्चा भी की गई है। हीनताबोध से मुक्त होने के बाद कुछ प्रश्नों पर स्थिर बुद्धि से विचार करना चाहिये ।
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१. विश्व के श्रेष्ठ दस विश्वविद्यालयों में कदाचित सात या आठ तो केवल अमेरिका में हैं। इसका अर्थ हैं वहाँ अध्ययन और अनुसन्धान का श्रेष्ठ कार्य हो रहा है। वहीं अत्यन्त मेधावी विद्यार्थी निर्माण हो रहे हैं। अमेरिका तो आर्थिक दृष्टि से भी अत्यन्त विकसित देश है । भारत उसकी तुलना में कहीं नहीं आता । फिर ऐसा क्यों है कि अमेरिका की लगभग दो सौ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में सीईओ अमेरिका के नहीं हैं। वे एशिया के, विशेषकर भारत के, हैं। ये कम्पनियाँ खूब कमाई करनेवाली कम्पनियाँ हैं। अमेरिका के प्रतिभावान विद्यार्थियों का क्या हो रहा है?
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यह आज की बात नहीं है। दो पीटी पूर्व से स्थिति तो यही है। कुछ वर्ष पूर्व एक वृत्त आया था कि केवल एक न्यूयोर्क में सातसौ डॉक्टर भारतीय हैं। यही बात इन्जिनीयरों, मैनेजरों, संगणक निष्णातों, व्यापारियों आदि की है। विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में पढे विद्यार्थी क्या देश नहीं चला सकते ? भारत में तो इतनी बड़ी संख्या में यूरोअमेरिकी विश्वविद्यालयों मे पढे लोग डॉक्टर का या अन्य व्यवसाय करते नहीं दिखाई देते ।
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लोग कहते हैं कि भारत तो गरीब देश है। यहां आकर वे क्या कमाई करेंगे ? तो विचार यह करना है कि क्या डॉक्टर या अध्यापक समाज की सेवा करने के लिये बनना है या केवल कमाई करने के लिये ? अमेरिका तो सब कुछ केवल कमाई करने के लिये कर रहा है। तो वह अपने ही लोगों के स्थान पर विदेशियों को कमाई के अवसर क्यों दे रहा है ? केवल इसलिये कि उसके विश्वविद्यालय जनसंख्या और आवश्यकता के अनुपात में पर्याप्त कुशल डॉक्टर, इन्जिनीयर आदि निर्माण नहीं कर सकते । ऐसे देश के विश्वविद्यालय यदि विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालय हैं तो बात विचार करने योग्य बन जाती है। क्या अमेरिका स्वयं के लिये नहीं अपितु अन्य देशों के लिये ही विश्वविद्यालय चलाता है ? यदि हाँ, तो इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरिकी ज्ञानविज्ञान के प्रसार से विश्व का अमेरिकीकरण करना चाहता है।
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२. ज्ञानविज्ञान के प्रसार के माध्यम से विश्व का अमेरिकीकरण करने में भी कोई बुराई नहीं है। श्रेष्ठ ज्ञान का प्रसार होना ही चाहिये । विश्व उससे लाभान्वित होना ही चाहिये । परन्तु कैसा है यह ज्ञानविज्ञान ?
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विश्व के जितने भी प्राकृतिक और सांस्कृतिक संकट हैं वे सर्वाधिक मात्रा में अमेरिका में हैं। विश्व के लगभग सभी संकटों का उद्गमस्थान अमेरिका है। उसकी जीवनदृष्टि ही इन संकटों को जन्म देती है, उसके अपने लिये भी और विश्व के लिये भी।
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जिस देश में ज्ञानविज्ञान की इतनी श्रेष्ठता हो उस देश की स्थिति इतनी संकटग्रस्त कैसे हो सकती है ? विज्ञान के अध्ययन और अनुसन्धान से प्राकृतिक संकट दर होने चाहिये और सामाजिक विषयों के अध्ययन से सांस्कृतिक । ज्ञान ही तो सुख, शान्ति, समृद्धि, स्वास्थ्य आदि का मूल कारण है। यदि अमेरिका के विश्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय अमेरिका को ही संकटमुक्त नहीं कर सकते तो विश्व की सहायता कैसे करेंगे ? विश्व क्यों उन्हें श्रेष्ठ माने ?
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३. अमेरिका का भौगोलिक विस्तार भारत से तीन गुना अधिक है और जनसंख्या भारत से तीन गुना कम । अमेरिका विश्वसंसाधनों का सबसे अधिक उपभोग इतनी कम जनसंख्या के लिये कर रहा है। प्रकृति का और विश्व के देशों का शोषण कर रहा है। विश्व के देशों पर आर्थिक और सामरिक दबाव बढ़ा रहा है। ऐसे देश के विश्वविद्यालयों की ज्ञानसाधना शोषण और दबाव में ही सहायक बन रही है तो इन विश्वविद्यालयों को हम श्रेष्ठ कैसे मान सकते हैं । अमेरिका - या पश्चिम - विश्व का अपराधी है। उसे अपराधों के लिये ही तो श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता । मान लें कि वर्तमान में अमेरिका सबसे धनवान देश हैं। परन्तु किस कीमत पर वह धनवान बनता है इसका तो विचार करना चाहिये । केवल धनवान होना श्रेष्ठता नहीं है। विश्व को लूटकर धनवान बनना हिंसा है। विश्व के लिये अमेरिका उद्धारक नहीं अपितु संहारक है। ऐसे संहारक देश के विश्वविद्यालयों को श्रेष्ठ नहीं मानना चाहिये । अतः भारत को चाहिये कि वह श्रेष्ठता के अपने मानक तैयार करे और उसके आधार पर विश्व के विश्वविद्यालयों का मूल्यांकन करे।
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पश्चिमी प्रभाव के चलते हम भी एकांगी विचार करने लगे हैं । एक सामान्य सा उदाहरण प्रस्तुत है।
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अंग्रेजी व्याकरण पढाते समय भूतकाल का उदाहरण देने हेतु एक विद्यार्थीने लिखा -
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रावण किल्ड राम - रावण ने राम को मारा । अध्यापक कहते हैं कि यह वाक्य तथ्य की दृष्टि से गलत है परन्तु व्याकरण की दृष्टि से सही है । व्याकरण की दृष्टि और इतिहास की दृष्टि यदि परस्पर विरोधी है और जिस उत्तर को इतिहास की परीक्षा में शून्य अंक मिलेंगे उस उत्तर को व्याकरण की परीक्षा में पूर्ण अंक मिलेंगे तो हमारी अध्ययन की दृष्टि को एकांगी ही कहा जायेगा। यह तो बहुत ही सामान्य उदाहरण है परन्तु बुद्दिमान अध्यापकों में यह बडे विवाद का विषय बन सकता है। इसी एकांगी दृष्टि से
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