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आत्मविश्वास प्राप्त करने का उपाय है हीनताबोध से मुक्त होना । बिना किसी तर्कपूर्ण कारण से हम आज हीनताबोध से ग्रस्त हो गये हैं। ब्रिटीशों के शासन के परिणामस्वरूप और दैवयोग से हम हीनताबोध से ग्रस्त हए हैं । हीनताबोध के कारण हमारे सामर्थ्य की विस्मृति हो रही है. हमारे सामर्थ्य का क्षरण भी होता है। यह एक मानसिक रोग है जिसका उपचार शारीरिक या बौद्धिक स्तर पर नहीं हो सकता। मानसिक स्तर पर उपचार करने की आवश्यकता है । यद्यपि यह अत्यन्त कठिन होता है तथापि इसे किये बिना हमारा काम नहीं चलेगा। हीनताबोध दूर करना विद्वानों या वैद्यों का काम नहीं है, योगियों और धर्मचार्यों का है। दोनों भारत में हैं । हमें इन्हें निवेदन करना होगा कि वे हमारा हीनताबोध दूर करने के उपाय करें ।
 
आत्मविश्वास प्राप्त करने का उपाय है हीनताबोध से मुक्त होना । बिना किसी तर्कपूर्ण कारण से हम आज हीनताबोध से ग्रस्त हो गये हैं। ब्रिटीशों के शासन के परिणामस्वरूप और दैवयोग से हम हीनताबोध से ग्रस्त हए हैं । हीनताबोध के कारण हमारे सामर्थ्य की विस्मृति हो रही है. हमारे सामर्थ्य का क्षरण भी होता है। यह एक मानसिक रोग है जिसका उपचार शारीरिक या बौद्धिक स्तर पर नहीं हो सकता। मानसिक स्तर पर उपचार करने की आवश्यकता है । यद्यपि यह अत्यन्त कठिन होता है तथापि इसे किये बिना हमारा काम नहीं चलेगा। हीनताबोध दूर करना विद्वानों या वैद्यों का काम नहीं है, योगियों और धर्मचार्यों का है। दोनों भारत में हैं । हमें इन्हें निवेदन करना होगा कि वे हमारा हीनताबोध दूर करने के उपाय करें ।
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हीनताबोध दूर कर आत्मविश्वास प्राप्त करने हेतु भारत को अपने आपको जानने की आवश्यकता है। इस विषय
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हीनताबोध दूर कर आत्मविश्वास प्राप्त करने हेतु भारत को अपने आपको जानने की आवश्यकता है। इस विषय में हमारी अपरिमित हानि हुई है। शास्त्रीय ज्ञान और  लोकज्ञान की हमारी व्यवस्था इतनी सर्वव्यापी थी कि सामान्य तथा अशिक्षित व्यक्ति भी आध्यात्मिक सत्यों को जानता था । ज्ञान क्रिया के बिना निरर्थक है, कभी कभी तो अनर्थक है यह जानकर वह बिना शास्त्र जाने, बिना कानून के भय से ज्ञानयुक्त व्यवहार करता था और उसे धर्माचरण कहता था। आज भारत में न तो शास्त्रीय ज्ञान देने की व्यवस्था है न लोकज्ञान देने की। ज्ञान से वंचित हो जाने से और विपरीत ज्ञान के आक्रमण से बुद्धिविभ्रम पैदा हुआ है जिससे असत्य को सत्य, अधर्म को धर्म, अनुचित को उचित मानने की स्थिति में हम पहुँच गये हैं । अतः सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य तो हमारी अपनी शिक्षाव्यवस्था को स्थापित करने का होगा। शिक्षा के माध्यम से अपने स्वभाव को, अपने चरित्र को, अपने इतिहास को, अपनी व्यवस्थाओं को, अपनी परम्पराओं को जानना और समझना होगा। विश्व के अनेक मनीषियों ने भारत की प्रशंसा की है, उसी प्रकार यूरोप के अनेक महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों ने भारत की निन्दा भी की है। दोनों प्रकार के कथनों को समझना होगा । निन्दा के प्रेरक तत्त्व क्या हैं, उनमें तथ्य कितना है यह भी समझना होगा । आज विश्व में भारत की स्थिति क्या है, विश्व भारत को कैसे देखता है, विश्व के अनेक देशों का भारत के साथ कैसा व्यवहार है इसे भी समझना होगा। अपने बारे में सम्यक ज्ञान प्राप्त कर अपने आपको ठीक करना होगा और विश्व में उचित स्थान प्राप्त करना होगा । धर्म की ग्लानि के कारण, बुद्धिविभ्रम से पैदा हुई धर्म की उपेक्षा के कारण, अपने ही व्यवहार की विशृंखलता के कारण हमने अपनी बहुत हानि की है। हमें अपने आपको जानकर अपना खोया हुआ सामर्थ्य प्राप्त करना होगा। अपने आपको जाने बिना न हम अपना भला कर सकते हैं न विश्व के कल्याण का स्वप्न देख सकते हैं।
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अपने आपको जानने के साथ साथ विश्व को भी ठीक से जानना चाहिये । यह तभी सम्भव हो सकता है जब हम प्रथम तीन बातें सिद्ध करें, अर्थात् अपने आपको जानें, अपना हीनताबोध दूर करें और आत्मविश्वास प्राप्त करें। तब हमें समझ में आयेगा कि भारत की दृष्टि से विश्व को जानना और उसका मूल्यांकन करना कितना आवश्यक है।
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सर्वंकष विनाश की ओर कितना शीघ्र गति से विश्व धंस रहा है, विकास की कितनी अनुचित संकल्पना को साकार करने का प्रयास हो रहा है उसे कितना जल्दी त्याग कर देना चाहिये यह समझना आवश्यक है। विश्वस्थिति का केवल अध्ययन करने से काम नहीं चलेगा, भारत की दृष्टि से अध्ययन करना होगा। आज हम यूरोअमेरिकी दृष्टि से अध्ययन कर रहे हैं। इसके स्थान पर अपनी दृष्टि से अध्ययन करना होगा।
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इसके लिये हमें यूरोअमेरिकी और भारतीय जीवनदृष्टि का तुलनात्मक अध्ययन करना होगा।
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भारत को सिद्ध होने के लिये संगठित होना होगा। आज की भाषा में जिसे युनियन कहते हैं ऐसा इस संगठित का अर्थ नहीं है। समाज संचालन करने वाले जितने भी वर्ग हैं उन सबको आन्तरिक सहमति और समरसता निर्माण करनी होगी। भारत एक राष्ट्र है, वह सार्वभौम प्रजासत्ताक राष्ट्र है इस सूत्र का स्वीकार कर एक सार्वभौम, स्वतन्त्र, समर्थ, सम्पन्न राष्ट्र बनाने हेतु सभी वर्गों का स्वेच्छापूर्वक सक्रिय योगदान होना आवश्यक है। ये वर्ग हैं सरकार, प्रशासन, विश्वविद्यालय, उद्योग, परिवार, धर्माचार्य एवं सैन्य । न्यायालय और पुलीस सरकार का ही हिस्सा है। इन सब की समरसता से ही सामर्थ्य निर्माण होगा। संगठन के मूल सूत्र निर्माण करना धर्मसंस्था और ज्ञानसंस्था का कार्य है। इन दोनों ने पहल करनी होगी। सरकार और सभी समाजसेवी संगठनों ने इन्हें आग्रहपूर्वक निवेदन करना होगा कि वे अपने राष्ट्र को समर्थ बनाने हेतु दायित्व का स्वीकार करें।
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