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सहअस्तित्व को नकारने का इस वर्ग का तरीका मानसिक धरातल पर पैदा होता है और कृति में परिणत होता है। सहअस्तित्व को नकारना ही साम्प्रदायिक कट्टरता है।  
 
सहअस्तित्व को नकारने का इस वर्ग का तरीका मानसिक धरातल पर पैदा होता है और कृति में परिणत होता है। सहअस्तित्व को नकारना ही साम्प्रदायिक कट्टरता है।  
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जगत में अनेक सम्प्रदायों का होना स्वाभाविक है। विभिन्न प्रजाओं के लिये अपनी आस्थाओं तथा भावनाओं के लिये किसी न किसी इष्टदेवता की आवश्यकता होती है। इष्टदेवता तत्त्व के रूप में, विचारधारा के रूप में, मूर्ति के रूप में, ग्रन्थ के रूप में, व्यक्ति के रूप में, वास्तु के रूपमें हो सकते हैं। कोई भी पदार्थ इष्टदेवता नहीं हो सकता ऐसा निषेध नहीं है। भारत के पूर्वोत्तर में ऐसी कई जातियाँ हैं जिनके मन्दिर तो होते हैं परन्तु मन्दिर में कोई मूर्ति नहीं होती। अपनी श्रद्दा से ही वे मान लेते हैं कि वहाँ उनके इष्टदेवता हैं। वेदान्ती निर्गुण निराकार ब्रह्म को ही इष्टदेवता मानते हैं, सिख गुरु ग्रन्थसाहब को, जैन भगवान
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जगत में अनेक सम्प्रदायों का होना स्वाभाविक है। विभिन्न प्रजाओं के लिये अपनी आस्थाओं तथा भावनाओं के लिये किसी न किसी इष्टदेवता की आवश्यकता होती है। इष्टदेवता तत्त्व के रूप में, विचारधारा के रूप में, मूर्ति के रूप में, ग्रन्थ के रूप में, व्यक्ति के रूप में, वास्तु के रूपमें हो सकते हैं। कोई भी पदार्थ इष्टदेवता नहीं हो सकता ऐसा निषेध नहीं है। भारत के पूर्वोत्तर में ऐसी कई जातियाँ हैं जिनके मन्दिर तो होते हैं परन्तु मन्दिर में कोई मूर्ति नहीं होती। अपनी श्रद्दा से ही वे मान लेते हैं कि वहाँ उनके इष्टदेवता हैं। वेदान्ती निर्गुण निराकार ब्रह्म को ही इष्टदेवता मानते हैं, सिख गुरु ग्रन्थसाहब को, जैन भगवान महावीर को, बौद्ध भगवान बुद्ध को, वैष्णव श्रीकृष्ण के विविध रूपों को, आर्यसमाज निराकार भगवान को, शैव शिव को, पारसी अग्नि को आदि विविध प्रकार के लोग विविध प्रकार के इष्टदेवताओं को मानते हैं । उपासनाओं के असंख्य स्वरूप हैं। ज्ञान के लक्षणों के आधार पर सरस्वती की, लक्ष्मी के प्रति विचार को लेकर लक्ष्मी की, अग्नि, सूर्य, चन्द्र, शनि आदि ग्रहों-नक्षत्रों के स्वभाव को लेकर उन उन ग्रहों नक्षत्रों की, गायत्री महामन्त्र के अर्थ को लेकर गायत्री देवी की आदि अनेक प्रकार की प्रतिमायें तैयार होती हैं । उन तत्त्वों के साथ वैचारिक और भावात्मक अनुकूलन कर उनके ग्रन्थ, उनके आचारविचार, उनकी उपासना और पूजापद्धति, उनकी वेशभूषा आदि बनते हैं। यह सब मिलकर सम्प्रदाय बनता है । सम्प्रदायों के कोई न कोई प्रवर्तक होते हैं। विश्व के सभी सम्प्रदायों के मूल में उन प्रजाओं की जीवन और जगत के प्रति देखने और व्यवहार करने की पद्धति होती है। ऐसे असंख्य सम्प्रदाय अतीत में और वर्तमान में इस विश्व में रहे हैं। जिस प्रकार मनुष्य, प्राणी, वनस्पति और पदार्थ इस विश्व में एक साथ रहते हैं, एक दूसरे के सहायक और पूरक होते हैं, एक दूसरे पर निर्भर करते हैं, एक दूसरे के जीवन को सम्भव बनाते हैं उसी प्रकार विभिन्न सम्प्रदाय भी अपनी अपनी पद्धति से रहें ऐसी अपेक्षा मानव समुदाय से की जाती है। परन्तु मानव समुदाय का इतिहास दर्शाता है कि ऐसा होता नहीं है। सम्प्रदायों में संघर्ष होते ही रहे हैं। सम्पत्ति के लिये, अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिये, स्त्री के लिये होते हैं उससे भी अधिक भीषण संघर्ष, भीषण युद्ध सम्प्रदायों के नाम पर हए हैं, होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं। इन्हें जिहाद या क्रूसेड के नाम से जाना जाता है। अपनी सीमाओं के विस्तार अथवा रक्षण के लिये आक्रमण या बचाव के लिये होने वाले युद्धों से भी ये युद्ध अधिक भीषण सिद्ध हुए हैं।
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इसका कारण यह है कि भौतिक पदार्थों से भी अन्तःकरण के विषयों के प्रति मनुष्य की आसक्ति अधिक होती है।
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इस विश्व के असंख्य सम्प्रदायों में मुख्य दो प्रकार हैं ।
    
==References==
 
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