विश्व में विविध स्वभाव के, क्षमता के, रुचि के, वृत्तिप्रवृत्ति के लोग रहते हैं । विश्व में मनुष्य के साथ साथ पशु-पक्षी-प्राणी-वृक्ष-वनस्पति-पंचमहाभूत भी होते हैं। इन सबका सहअस्तित्व होना स्वाभाविक भी है और अनिवार्य भी । सृष्टि की धारणा का यह आधारभूत सिद्धान्त है। परन्तु विश्व मानवसमुदाय का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो सहअस्तित्व के सिद्धान्त का स्वीकार नहीं करता है।
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सहअस्तित्व को नकारने का इस वर्ग का तरीका मानसिक धरातल पर पैदा होता है और कृति में परिणत होता है। सहअस्तित्व को नकारना ही साम्प्रदायिक कट्टरता है।
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जगत में अनेक सम्प्रदायों का होना स्वाभाविक है। विभिन्न प्रजाओं के लिये अपनी आस्थाओं तथा भावनाओं के लिये किसी न किसी इष्टदेवता की आवश्यकता होती है। इष्टदेवता तत्त्व के रूप में, विचारधारा के रूप में, मूर्ति के रूप में, ग्रन्थ के रूप में, व्यक्ति के रूप में, वास्तु के रूपमें हो सकते हैं। कोई भी पदार्थ इष्टदेवता नहीं हो सकता ऐसा निषेध नहीं है। भारत के पूर्वोत्तर में ऐसी कई जातियाँ हैं जिनके मन्दिर तो होते हैं परन्तु मन्दिर में कोई मूर्ति नहीं होती। अपनी श्रद्दा से ही वे मान लेते हैं कि वहाँ उनके इष्टदेवता हैं। वेदान्ती निर्गुण निराकार ब्रह्म को ही इष्टदेवता मानते हैं, सिख गुरु ग्रन्थसाहब को, जैन भगवान