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साक्षात् श्रद्धा और विश्वासरूपी भवानी और शंकर को प्रणाम । ऐसे श्रद्धा और विश्वास जिन के बिना सिद्ध लोग भी अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को भी देख नहीं सकते।
 
साक्षात् श्रद्धा और विश्वासरूपी भवानी और शंकर को प्रणाम । ऐसे श्रद्धा और विश्वास जिन के बिना सिद्ध लोग भी अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को भी देख नहीं सकते।
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=== दो विचित्र प्रश्न ===
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जब व्यवस्थायें चिन्तन के आधार से च्युत हो जाती हैं तब अनेक प्रकार की गुत्थियाँ बन जाती हैं । ये गुत्थियाँ तात्त्विक  नहीं रहती, मनोवैज्ञानिक बन जाती हैं । मनोवैज्ञानिक गुत्थियों को तार्किक और तात्विक उपायों से सुलझाया नहीं जाता परन्तु प्रयास तो तार्किक धरातल पर ही होता हैं । इससे गुत्थियाँ और उलझती हैं ।
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ऐसे उलझे हुए दो प्रश्न यहाँ प्रस्तुत हैं ।
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बडी आयु के विद्यार्थियों के समक्ष समाज में
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==== १, मान्यता का प्रश्न ====
विश्वसनीयता का कैसा संकट निर्माण हुआ है, उससे
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कोई भी विद्यालय चलता है तब उसे मान्यता की आवश्यकता होती है । भारत की दीर्घ परम्परा में विद्यालय को समाज से मान्यता मिलती रही है । समाज से मान्यता मिलने का अर्थ है समाज ने अपने बच्चों को विद्यालयों में पढने हेतु भेजना और विद्यालय के योगक्षेम की चिन्ता करना । समाज के भरोसे शिक्षक विद्यालय शुरु करते थे और शिक्षक के सदूभाव, ज्ञान और कर्तृत्व के आधार पर उसे मान्यता भी मिलती थी
कितने प्रकार से हानि होती है इसकी चर्चा करनी
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चाहिये हमारे विद्यालय में विश्वसनीयता का वातावरण
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कैसे बना रहेगा इसकी भी चर्चा करनी चाहिये
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विश्वास भंग होने पर क्या करना ?
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यह केवल प्राथमिक विद्यालयों की ही बात नहीं है ।
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काशी, कांची, वलभी, नवद्वीप, तक्षशिला, विक्रमशीला, नालन्दा आदि देशविरव्यात और विश्वविख्यात उच्च शिक्षा के केन्द्रों को भी समाज से ही मान्यता मिलती थी । इन केन्द्रों को तो समाज के साथ साथ विदट्रज्जनगत से भी मान्यता मिलती थी । समाज की मान्यता में ही राज्य की मान्यता का भी समावेश हो जाता था |
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अगला चरण है कोई हमारा विश्वासभंग करता है
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परन्तु आज तो समाज की या विद्वानों की मान्यता
तब क्या करना इसका विचार करना उसे सीधा कुछ न
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पर्याप्त नहीं होती इन दोनों की मान्यता मिले या न मिले
कहते हुए या शिकायत करते हुए विश्वासभंग को सह
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राज्य की मान्यता अनिवार्य है । राज्य ने मान्यता देने कीप्रक्रिया और व्यवस्थायें निर्धारित की हुई हैं जो प्राथमिक से
लेना यह पहली बात है । फिर उससे बात करना और
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लेकर उच्च शिक्षा की संस्थाओं को मान्यता देती हैं
विश्वासभंग नहीं करने के लिये समझाना । इन सभी बातों
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में विश्वास करना और विश्वसनीयता होना अपने बस की
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बातें हैं। इनका आचरण करना तो सरल है। परन्तु जो
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विश्वसनीय नहीं है अथवा हमारे साथ विश्वासभंग करता है
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उससे कैसा व्यवहार करें यह समझना कठिन है । पहली
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बात तो यह है कि सामने वाला व्यक्ति कितना विश्वसनीय
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है यह जानना चाहिये । उसकी परीक्षा कैसे करना यह भी
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सीखना चाहिये । विश्वासभंग करने वाले का क्या करना  यह भी पुस्तक से नहीं सिखाया जा सकता, व्यवहार से सिखाया जा सकता है। शिक्षकों ने विद्यार्थियों को ये दोनों बातें सिखानी चाहिये
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सत्य बोलना, झूठ नहीं बोलना, विश्वास करना, विश्वसनीय होना, विश्वास का भंग नहीं करना आदि बातों से अपने आसपास अच्छाई का वातावरण बनता है। इस वातावरण में और सद्गुण पनपते हैं। सब एकदूसरे से आश्वस्त रहते हैं। पस्पर सद्भाव बना रहता है । सद्भाव से सहयोग बढता है। साथ मिलकर काम करने की अनुकूलता बनती है, स्नेह और सौहर्द बढते हैं । सज्जनता पनपती है। अध्ययन अध्यापन खिलते हैं।
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मान्यता से तात्पर्य है इन संस्थाओं द्वारा निर्धारित
 
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पाठूक्रम के आधार पर इन संस्थाओं के द्वारा ली जाने वाली
शिक्षकों और विद्यार्थियों के परस्पर विश्वास के आगे का चरण शिक्षकों और अभिभावकों मे विश्वास का वातावरण निर्माण करने का है। इसके आधार पर वातावरण संस्कारक्षम बनता है। समाज में विश्वास का वातावरण पनपे इस दृष्टि से भी विद्यालय को प्रयत्नशील रहना चाहिये। अब प्रश्न यह है कि क्या झूठ बोलना आना ही नहीं चाहिये । विश्वास का भंग करना, झूठा विश्वास दिलाना आदि सब आना ही नहीं चाहिये ?
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परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने पर इन संस्थाओं की ओर से
 
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प्रमाणपत्र मिलना । इस प्रमाणपत्र के आधार पर राज्यकी व्यवस्था में चलने वाली विभिन्न गतिविधियों में काम करने के अवसर मिलना अर्थात् नौकरी मिलना अथवा उस क्षेत्र के स्वतन्त्र व्यवसाय हेतु अनुज्ञा मिलना ।  
अब प्रश्न यह है कि क्या झूठ बोलना आना ही नहीं चाहिये । विश्वास का भंग करना, झूठा विश्वास दिलाना आदि सब आना ही नहीं चाहिये ?
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ऐसा नहीं है। कोई झूठ बोल रहा है उसका पता ही न चले, कोई विश्वसनीय नहीं है यह जान ही न सके, कोई विश्वास का भंग कर रहा है यह समझ में ही न आये यह तो बुद्धपन की निशानी है। कोई भी गलत काम में हमें जोड सकता है, हम से गलत काम करवा सकता है। झूठा भरोसा दिलाना सही है ?
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==== झूठा भरोसा दिलाना सही है ? ====
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कई बार विश्वास का भंग करना पडता है, झूठा विश्वास दिलाना आवश्यक होता है यह सही है क्या ?
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हाँ, कभी झूठा विश्वास दिलाना और विश्वासभंग करना उचित होता है। उदाहरण के लिये जासूसी करते समय ऐसा कपट करना ही होता है । गायको, छोटे बच्चे को, स्त्रियों को बचाने हेतु झूठा विश्वास दिलाना अनुचित नहीं माना जायेगा। अपने स्वार्थ के लिये यह सब करना अपराध है। निर्दोष को बचाने के लिये, देश की रक्षा
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कई बार विश्वास का भंग करना पडता है, झूठा विश्वास दिलाना आवश्यक होता है यह सही है क्या ?
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हाँ, कभी झूठा विश्वास दिलाना और विश्वासभंग करना उचित होता है। उदाहरण के लिये जासूसी करते समय ऐसा कपट करना ही होता है । गायको, छोटे बच्चे को, स्त्रियों को बचाने हेतु झूठा विश्वास दिलाना अनुचित नहीं माना जायेगा। अपने स्वार्थ के लिये यह सब करना अपराध है। निर्दोष को बचाने के लिये, देश की रक्षा
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करने के लिये यह सब करना अपराध नहीं है । हम उनका मानसिक मूल पकड नहीं
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ऐसे समय में विश्वासभंग करते आना यह एक कला... पाते । यदि श्रद्धा और विश्वास मनवाने का इलाज करेंगे तो
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है, कौशल है। मुझे झूठ बोलना आता ही नहीं यह... वातावरण से इन बिमारियों के तरंग कम होते जायेंगे ।
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कहना बुद्धिमानी नहीं है । मुझे किसी के विश्वास का भंग यह तो ऐसा है कि समझो कोकाकोला पीने से
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करना आता ही नहीं यह कहना बुद्धिमानी नहीं है यह... अम्लपित्त होता है। हम अम्लपित्त की दवाई लेते हैं ।
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सीखना भी चतुराई है । आवश्यकता पड़ने पर इस चतुराई उससे दूसरी बिमारी होती है । उससे दूसरी, उससे दूसरी
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का उपयोग करते आना बुद्धिमानी है । ऐसा दुश्चक्र शुरू होता है। हम परेशान होते हैं परन्तु
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परन्तु यह सब आने के बाद भी अपने स्वार्थ के... कोकाकोला पीना बन्द नहीं करते। वास्तव में
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लिये, मौज के लिये या बिना किसी कारण से... कोकाकोला पीना बन्द करने से अम्लपित्त होगा ही नहीं
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विश्वसनीयता गँवाना या विश्वास का भंग करना बहुत... और एक भी दवाई की आवश्यकता नहीं रहेगी । उसी
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घटिया है । प्रकार श्रद्धा और विश्वास के अभाव में संशय, उसुरक्षा,
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. एकलता, तनाव, उत्तेजना, भय, चिन्ता पैदा होते हैं
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श्रद्धा का संकट उसका परिणाम हृदय और मस्तिष्क पर होता है। हम
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विश्वास के समान ही दूसरा गुण है श्रद्धा का .. दवाई खाना शुरु करते हैं, परेशान होते हैं, पैसा खर्च
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मातापिता, गुरु, ईश्वर में श्रद्धा होना अत्यन्त लाभकारी है ।.. करते हैं, कानून और नियम बनाते हैं, सुरक्षा का प्रबन्ध
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हम जो कर रहे हैं वह काम अच्छा है ऐसी श्रद्धा होनी... करते हैं, न्यायालय का आश्रय लेते हैं, आरोप प्रत्यारोप
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चाहिये । हमें अपने आप में श्रद्धा होना आत्मश्रद्धा है ।.. चलते हैं, दण्ड का प्रावधान होता है, दोनों पक्षों का
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अर्थात्‌ अपने आप में श्रद्धा, अध्ययन और अध्यापन में... नुकसान होता है परन्तु न समाज अच्छा बनता है न
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श्रद्धा, अपने से बडों में श्रद्धा होना अत्यन्त आवश्यक है। व्यक्ति आश्वस्त होता है, न किसी को सुख और शक्ति
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श्रद्धा से ही जीवन का दृष्टिकोण विधायक बनता है । मिलते हैं। मूल में अश्रद्धा और अविश्वास हैं। इनके
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आज के जमाने का संकट श्रद्धा और विश्वास नहीं... स्थान पर श्रद्धा और विश्वास की प्रतिष्ठा करेंगे तो बाकी
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मान्यता के विविध स्तर और प्रकार हैं उनमें प्रश्न क्या है यही देखेंगे। प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों को मान्यता के लिये तीन स्तरों पर व्यवस्था है -
होने का है । किसी को श्रद्धापूर्वक किसी की बात मानने... सब तो जड उखाडने से पूरा वृक्ष गिरकर सूख जाता है
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की इच्छा ही नहीं होती । शिक्षक Al, aria A, वैसे ही नष्ट हो जायेंगे ।
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विद्वान की, समझदार व्यक्ति की बात मानने को मन नहीं इसलिये, पुनः एकबार विद्यालय श्रद्धा और विश्वास
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१. राज्यकी संस्था की, उदाहरण के लिये गुजरात स्टेट बोर्ड
करता । का वातावरण बनायें यह कहना प्राप्त होता है ।
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धर्मग्रन्थ में श्रद्धा नहीं होती, भगवान में श्रद्धा नहीं श्रद्धा और विश्वास के सम्बन्ध में एक सुन्दर श्लोक
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२. केन्द्रीय संस्था की, उदाहरण के लिये सैण्ट्रल बोर्ड ओफ सेकेण्डरी एज्यूकेशन
होती । इसलिये सब अकेले हो गये हैं। किसी की... देखें...
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सहायता या सहयोग की अपेक्षा नहीं की जा सकती । भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वास रूपिणौ
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ऐसे वातावरण में समाज में तनाव बढ़ता है, साभ्यांबिना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्तस्थमीश्वरम्‌ ।।
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३. आन्तर्राष्ट्रीय संस्था की, उदाहरण के लिये इण्टरनेशनल बोर्ड
उत्तेजना बढती है। आज मधुप्रमेह, रक्तचाप, हृदयरोग अर्थात्‌
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आदि जैसी बिमारियाँ बढ़ी हैं उनका मूल भी श्रद्धाहीनता साक्षात्‌ श्रद्धा और विश्वासरूपी भवानी और शंकर
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है। सरदर्द अम्लपित्त जैसी बिमारियाँ भी इसी में से... को प्रणाम । ऐसे श्रद्धा और विश्वास जिन के बिना सिद्ध
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ये भी एक से अधिक होते हैं ।
पनपती हैं । इनका उपचार शारीरिक रोग समझकर करने से... लोग भी अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को भी देख
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ये ठीक नहीं होतीं । हम देखते हैं कि इनकी दवाई... नहीं सकते
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आजन्म खानी पड़ती है । ये असाध्य बिमारियाँ हैं क्योंकि
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==== ऐसे तीन स्तर क्यों होते हैं ? ====
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शिक्षा का विषय राज्य सरकार का है इसलिये राज्य तो इसकी व्यवस्था करेगा यह स्वाभाविक है। इन विद्यालयों में साधारण रूप से प्रान्तीय भाषा ही माध्यम रहती है फिर भी अन्य प्रान्तों के निवासियों की संख्या के अनुपात में उन भाषा के माध्यमों के विद्यालय भी चलते हैं उदाहरण के लिये राज्य की मान्यता वाले अधिकतम विद्यालय गुजराती माध्यम के होंगे परन्तु तमिल, सिंधी, उडिया, उर्दू, मराठी माध्यम के विद्यालय भी चलते हैं।
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कुछ लोग ऐसे होते हैं जो केन्द्र सरकार की नौकरी करते हैं इसलिये उनके स्थानांतरण एक राज्य से दूसरे राज्य में होते हैं । ऐसे लोगों की सुविधा हेतु अखिल भारतीय स्तर की संस्थायें चलती हैं। सीबीएसई (सैण्ट्रल बोर्ड ओफ सैकन्डरी एज्यूकेशन) ऐसा ही बोर्ड है । यह मान्यता पूरे देश में चलती है । इसमें हिन्दी और अंग्रेजी ऐसे दो माध्यम होते हैं । अब एक राज्य से दूसरे राज्यमें जाने में कठिनाई नहीं होती।
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तीसरा आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड होता है जो एक से अधिक देशों में विद्यालयों को मान्यता देता है इसका उद्देश्य राज्य सरकार या केन्द्र सरकार की तरह प्रजाजनों की सुविधा देखने का तो नहीं है यह स्पष्ट है । अपना व्यापार कहो तो
 
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जब व्यवस्थायें चिन्तन के आधार से च्युत हो जाती
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हैं तब अनेक प्रकार की गुत्थियाँ बन जाती हैं । ये गुत्थियाँ
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aif नहीं vedi, मनोवैज्ञानिक बन जाती हैं ।
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मनोवैज्ञानिक गुत्थियों को तार्किक और तात्विक उपायों से
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सुलझाया नहीं जाता परन्तु प्रयास तो तार्किक धरातल पर ही
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होता हैं । इससे गुत्थियाँ और उलझती हैं ।
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ऐसे उलझे हुए दो प्रश्न यहाँ प्रस्तुत हैं ।
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१, मान्यता का प्रश्न
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कोई भी विद्यालय चलता है तब उसे मान्यता की
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आवश्यकता होती है । भारत की दीर्घ परम्परा में विद्यालय
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को समाज से मान्यता मिलती रही है । समाज से मान्यता
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मिलने का अर्थ है समाज ने अपने बच्चों को विद्यालयों में
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पढने हेतु भेजना और विद्यालय के योगक्षेम की चिन्ता
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करना । समाज के भरोसे शिक्षक विद्यालय शुरु करते थे
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और शिक्षक के सदूभाव, ज्ञान और कर्तृत्व के आधार पर
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उसे मान्यता भी मिलती थी ।
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यह केवल प्राथमिक विद्यालयों की ही बात नहीं है ।
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काशी, art, ae, vada, तक्षशिला, विक्रमशीला,
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नालन्दा आदि देशविरव्यात और विश्वविख्यात उच्च शिक्षा
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के केन्द्रों को भी समाज से ही मान्यता मिलती थी । इन
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केन्द्रों को तो समाज के साथ साथ विदट्रज्जनगत से भी
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मान्यता मिलती थी समाज की मान्यता में ही राज्य की
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मान्यता का भी समावेश हो जाता था |
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परन्तु आज तो समाज की या विद्वानों की मान्यता
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पर्याप्त नहीं होती । इन दोनों की मान्यता मिले या न मिले
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राज्य की मान्यता अनिवार्य है । राज्य ने मान्यता देने की
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प्रक्रिया और व्यवस्थायें निर्धारित की हुई हैं जो प्राथमिक से
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लेकर उच्च शिक्षा की संस्थाओं को मान्यता देती हैं ।
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मान्यता से तात्पर्य है इन संस्थाओं द्वारा निर्धारित
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पाठूक्रम के आधार पर इन संस्थाओं के द्वारा ली जाने वाली
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परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने पर इन संस्थाओं की ओर से
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प्रमाणपत्र मिलना इस प्रमाणपत्र के आधार पर राज्यकी
      
दो विचित्र प्रश्र
 
दो विचित्र प्रश्र
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