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कई बार विश्वास का भंग करना पडता है, झूठा विश्वास दिलाना आवश्यक होता है यह सही है क्या ?
 
कई बार विश्वास का भंग करना पडता है, झूठा विश्वास दिलाना आवश्यक होता है यह सही है क्या ?
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हाँ, कभी झूठा विश्वास दिलाना और विश्वासभंग करना उचित होता है। उदाहरण के लिये जासूसी करते समय ऐसा कपट करना ही होता है । गायको, छोटे बच्चे को, स्त्रियों को बचाने हेतु झूठा विश्वास दिलाना अनुचित नहीं माना जायेगा। अपने स्वार्थ के लिये यह सब करना अपराध है। निर्दोष को बचाने के लिये, देश की रक्षा
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हाँ, कभी झूठा विश्वास दिलाना और विश्वासभंग करना उचित होता है। उदाहरण के लिये जासूसी करते समय ऐसा कपट करना ही होता है । गायको, छोटे बच्चे को, स्त्रियों को बचाने हेतु झूठा विश्वास दिलाना अनुचित नहीं माना जायेगा। अपने स्वार्थ के लिये यह सब करना अपराध है। निर्दोष को बचाने के लिये, देश की रक्षा करने के लिये यह सब करना अपराध नहीं है ।
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ऐसे समय में विश्वासभंग करते आना यह एक कला है, कौशल है। मुझे झूठ बोलना आता ही नहीं यह कहना बुद्धिमानी नहीं है। मुझे किसी के विश्वास का भंग करना आता ही नहीं यह कहना बुद्धिमानी नहीं है। यह सीखना भी चतुराई है। आवश्यकता पड़ने पर इस चतुराई का उपयोग करते आना बुद्धिमानी है।
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परन्तु यह सब आने के बाद भी अपने स्वार्थ के लिये, मौज के लिये या बिना किसी कारण से विश्वसनीयता गँवाना या विश्वास का भंग करना बहुत घटिया है।
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==== श्रद्धा का संकट ====
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विश्वास के समान ही दूसरा गुण है श्रद्धा का । मातापिता, गुरु, ईश्वर में श्रद्धा होना अत्यन्त लाभकारी है । हम जो कर रहे हैं वह काम अच्छा है ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये । हमें अपने आप में श्रद्धा होना आत्मश्रद्धा है । अर्थात् अपने आप में श्रद्धा, अध्ययन और अध्यापन में श्रद्धा, अपने से बड़ों में श्रद्धा होना अत्यन्त आवश्यक है। श्रद्धा से ही जीवन का दृष्टिकोण विधायक बनता है।
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आज के जमाने का संकट श्रद्धा और विश्वास नहीं होने का है। किसी को श्रद्धापूर्वक किसी की बात मानने की इच्छा ही नहीं होती। शिक्षक की, मातापिता की, विद्वान की, समझदार व्यक्ति की बात मानने को मन नहीं करता।
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धर्मग्रन्थ में श्रद्धा नहीं होती, भगवान में श्रद्धा नहीं होती। इसलिये सब अकेले हो गये हैं। किसी की सहायता या सहयोग की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
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ऐसे वातावरण में समाज में तनाव बढता है, उत्तेजना बढती है। आज मधुप्रमेह, रक्तचाप, हृदयरोग आदि जैसी बिमारियाँ बढी हैं उनका मूल भी श्रद्धाहीनता है। सरदर्द अम्लपित्त जैसी बिमारियाँ भी इसी में से पनपती हैं। इनका उपचार शारीरिक रोग समझकर करने से ये ठीक नहीं होती। हम देखते हैं कि इनकी दवाई आजन्म खानी पडती है । ये असाध्य बिमारियाँ हैं क्योंकि हम उनका मानसिक मूल पकड नहीं । पाते । यदि श्रद्धा और विश्वास मनवाने का इलाज करेंगे तो वातावरण से इन बिमारियों के तरंग कम होते जायेंगे ।
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यह तो ऐसा है कि समझो कोकाकोला पीने से अम्लपित्त होता है। हम अम्लपित्त की दवाई लेते हैं । उससे दूसरी बिमारी होती है। उससे दूसरी, उससे दूसरी ऐसा दुष्टचक्र शुरू होता है। हम परेशान होते हैं परन्तु कोकाकोला पीना बन्द नहीं करते । वास्तव में कोकाकोला पीना बन्द करने से अम्लपित्त होगा ही नहीं
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और एक भी दवाई की आवश्यकता नहीं रहेगी। उसी प्रकार श्रद्धा और विश्वास के अभाव में संशय, असुरक्षा, एकलता, तनाव, उत्तेजना, भय, चिन्ता पैदा होते हैं उसका परिणाम हृदय और मस्तिष्क पर होता है। हम दवाई खाना शुरु करते हैं, परेशान होते हैं, पैसा खर्च करते हैं, कानून और नियम बनाते हैं, सुरक्षा का प्रबन्ध करते हैं, न्यायालय का आश्रय लेते हैं, आरोप प्रत्यारोप चलते हैं, दण्ड का प्रावधान होता है, दोनों पक्षों का नकसान होता है परन्त न समाज अच्छा बनता है न व्यक्ति आश्वस्त होता है, न किसी को सुख और शक्ति मिलते हैं। मूल में अश्रद्धा और अविश्वास हैं। इनके स्थान पर श्रद्धा और विश्वास की प्रतिष्ठा करेंगे तो बाकी सब तो जड उखाडने से पूरा वृक्ष गिरकर सूख जाता है  वैसे ही नष्ट हो जायेंगे।
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इसलिये, पुनः एकबार विद्यालय श्रद्धा और विश्वास का वातावरण बनायें यह कहना प्राप्त होता है ।
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श्रद्धा और विश्वास के सम्बन्ध में एक सुन्दर श्लोक देखें...<blockquote>भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वास रूपिणी</blockquote><blockquote>याभ्यांबिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थमीश्वरम् ।। </blockquote>अर्थात्
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साक्षात् श्रद्धा और विश्वासरूपी भवानी और शंकर को प्रणाम । ऐसे श्रद्धा और विश्वास जिन के बिना सिद्ध लोग भी अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को भी देख नहीं सकते।
     
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