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आज समाज में धनवान लोगों की यह मानसिकता भी बढने लगी है कि अच्छी पढाई हेतु अपनी सन्तानों को बडे नगरों में या विदेशों में भेजना अच्छा है। ऐसा नहीं है कि ऐसी पढाई हेतु अपने ही स्थान पर कोई महाविद्यालय नहीं है। परन्तु महानगरों, दूर स्थित महानगरों और विदेशों का दोनों पीढियों को आकर्षण है । बडों को उसमें प्रतिष्ठा का अनुभव होता है और युवाओं को प्रतिष्ठा के साथ साथ मुक्ति का भी अनुभव होता है । अपनी सन्तानों के भले के लिये ही यह सब कर रहे हैं ऐसा बड़ों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता ऋण लेकर भी अपनी सांतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते है परन्तु यह शैक्षिक दॄष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता। सामाजिक सांस्कृतिक दॄष्टि से यह हानिकारक है।  
 
आज समाज में धनवान लोगों की यह मानसिकता भी बढने लगी है कि अच्छी पढाई हेतु अपनी सन्तानों को बडे नगरों में या विदेशों में भेजना अच्छा है। ऐसा नहीं है कि ऐसी पढाई हेतु अपने ही स्थान पर कोई महाविद्यालय नहीं है। परन्तु महानगरों, दूर स्थित महानगरों और विदेशों का दोनों पीढियों को आकर्षण है । बडों को उसमें प्रतिष्ठा का अनुभव होता है और युवाओं को प्रतिष्ठा के साथ साथ मुक्ति का भी अनुभव होता है । अपनी सन्तानों के भले के लिये ही यह सब कर रहे हैं ऐसा बड़ों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता ऋण लेकर भी अपनी सांतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते है परन्तु यह शैक्षिक दॄष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता। सामाजिक सांस्कृतिक दॄष्टि से यह हानिकारक है।  
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आवासीय विद्यालयों में कुछ विद्यार्थियों को दिन में
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यह सब कर रहे हैं ऐसा बडों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता क्रण लेकर भी अपनी संतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते हैं परन्तु यह शैक्षिक दृष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता । सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टि से यह हानिकारक है ।
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है। सायंकाल खेलने के बाद यदि छः बजे वापस... अधिक प्रचलन हो यह हितकारी है ।
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==== सरकारी प्राथमिक विद्यालयों का क्या करें ====
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जाना है तो वह भी सही होगा अभिभावकों और
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===== वर्तमान स्थिति =====
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शिक्षा सरकार के लिये चिन्ता का विषय है । शिक्षा की व्यवस्था करना सरकार ने अपना दायित्व माना है । हमारे संविधान में छः से चौदह वर्ष की आयु तक शिक्षा को अनिवार्य बनाया है । अनिवार्य है इसीलिये निःशुल्क भी करना होता है । सरकार की इच्छा है कि देश के ६ से १४ वर्ष के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मिले । इस दृष्टि से छोटे छोटे गाँवों में भी सरकारी प्राथमिक विद्यालय होते हैं
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आवासीय विद्यालय
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इनमें बच्चों के प्रवेश हों, उन्हें प्रोत्साहन मिले इस हेतु से प्रवेशोत्सव मनाये जाते हैं । विद्यार्थी बीच में ही विद्यालय छोड़कर न जाय इसका भी ध्यान रखा जाता है । गरीबों को अपने बच्चों को पढ़ाने की सुविधा हो इस दृष्टि से मद्यत्ह्य भोजन योजना चलाई जाती है । बच्चों को पुस्तकें, गणवेश, बस्ता आदि भी दिया जाता है । सरकार अनेक प्रयास करती है। सर्व शिक्षा अभियान चलता है। तो भी सरकारी विद्यालयों की हालत अत्यन्त दयनीय और चिन्ताजनक है । आँकडे भी दयनीय स्थिति दर्शाते हैं जबकि वास्तविक स्थिति आँकडों से अधिक दयनीय होती है यह सब जानते हैं ।
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अनेक प्रकार के विद्यालयों में एक प्रकार आवासीय
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सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । प्रजा को इन विद्यालयों पर कोई भरोसा नहीं है । अब ऐसा कहा जाता है कि सरकारी विद्यालयों में अच्छे लोगों के बच्चे पढ़ते ही नहीं हैं, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, नशा करने वाले, असंस्कारी मातापिता के बच्चे पढते हैं जिनकी संगत में हमारे बच्चें बिगड जायेंगे । परन्तु यह तो परिणाम है । “अच्छे' घर के लोगों ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया इसलिये अब 'पिछडे' बच्चे रह गये हैं । दो पीढ़ियों पूर्व आज के विद्वान लोग भी सरकारी विद्यालयों में पढ़े हुए ही हैं । धीरे धीरे पढ़ाना बन्द हुआ इसलिये लोगों ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया । झुग्गी झॉंपडियों में नहीं रहनेवाले सुसंस्कृत और झुग्गी झेंपडियों में रहनेवाले पिछडे यह वर्गीकरण तो बडी भ्रान्ति है परन्तु इस भ्रान्ति को दूर करने की चिन्ता कोई नहीं करता, उल्टे उसका ही लोग फायदा उठाने का प्रयास करते हैं । सरकारी विद्यालयों के शिक्षक हमेशा शिकायत करते हैं कि हमारे यहाँ बच्चे पढने के लिये आते ही नहीं हैं, केवल खाने के लिये ही आते हैं, अच्छे घर के आते ही नहीं है तो हम किसे पढायें । यह भी सत्य नहीं है परन्तु इस सम्बन्ध में कोई प्रयास नहीं किया जाता ।
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विद्यालयों का होता है। यह ऐसा विद्यालय है जहाँ
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अनेक बार लोगों द्वारा शिकायतें की जाती हैं, अखबारों में सचित्र समाचार छपते हैं कि गाँवों में विद्यालय के भवन अच्छे नहीं हैं, बैठने की, शौचालयों की सुविधा नहीं है, शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है, यदि हुई है तो वे शिक्षक आते नहीं हैं, अपने स्थान पर अन्य किसी नौसीखिये को भेजकर स्वयं दूसरा व्यवसाय करते हैं । इस बात में सचाई होने पर भी इस कारण से शिक्षा नहीं दी जा सकती ऐसा नहीं है । नगरों और महानगरों के प्राथमिक विद्यालयों में अच्छा भवन, अच्छा मैदान, शिक्षक, साधनसामग्री, विद्यार्थी सबकुछ है तो भी शिक्षा की स्थिति तो वैसी ही दयनीय है । इसका क्या कारण है ?
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विद्यार्थी चौबीस घण्टे और पूरा वर्ष रहता है । उसकी शिक्षा
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शैक्षिक दृष्टि से सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पर्याप्त व्यवस्था होती है । कई निजी विद्यालयों में शिक्षक उचित योग्यता वाले नहीं भी होते परन्तु सरकारी विद्यालयों में पर्याप्त योग्यता वाले होते ही हैं । उनके प्रशिक्षण की और निरीक्षण की पर्याप्त व्यवस्था होती है । साधनसामग्री, पुस्तकें आदि का अभाव नहीं होता । सरकारी शिक्षकों का जितना प्रशिक्षण होता है उतना तो अन्यत्र कहीं नहीं होता । वेतनमान भी निजी विद्यालयों की अपेक्षा अच्छा होता है । तो भी शिक्षा अच्छी नहीं होती इसका क्या कारण है ?
 
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और निवास, भोजन आदि की व्यवस्था एक ही स्थान पर
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होती है । ऐसे आवासीय विद्यालयों के सम्बन्ध में अनेक
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आयामों मे विचार करने की आवश्यकता है ।
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2. प्रयोजन
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विद्यार्थी को आवासीय विद्यालय में जाने की
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आवश्यकता क्यों होती है ?
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g. प्राचीन गुरुकुलों में विद्यार्थी गुरु के घर में रहकर ही
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विद्या ग्रहण करता था । उसके लिये गुरुगृहवास
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शिक्षा प्राप्त करने का एक अनिवार्य अंग था । यह
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बात ठीक है कि जहाँ वह रहता था वहाँ गुरुकुल का
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होना सम्भव न हो इसलिये उसे अपना घर छोडकर
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गुरु के घर जाना पडे । परन्तु यह बात गौण थी । गुरु
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के साथ पूर्ण समय पूर्ण रूप से रहना अनिवार्य था ।
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२... चालीस पचास वर्ष पूर्व भारत के छोटे छोटे गाँवों में
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विद्यालय, विशेष रूप से माध्यमिक विद्यालय नहीं
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होते थे। नगरों में ऐसे विद्यालय होते थे।
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महाविद्यालय तो बडे नगरों में या महानगरों में होते
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८५
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थे । आज भी उच्च शिक्षा के अनेक विशिष्ट संस्थान
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विद्यार्थी जहाँ रहता है उससे पर्याप्त दूरी पर ही होते
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हैं। इस स्थिति में विद्यार्थी को आवासीय विद्यालय
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में रहना पडता है ।
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३... अनेक ऐसे किस्से हैं जिनमें विद्यार्थी बहुत अधिक
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शरारती, उद्दण्ड है या घर में उसे देखने वाला, टोकने
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वाला कोई नहीं है तब उसे आवासीय विद्यालय में
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भेजा जाता है । उसके लिये आवासीय विद्यालय
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सुधार गृह जैसा है ।
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अतिधनाढ््य, अतिऑउच्चशिक्षित, अतिसत्ताधीशों के
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बच्चों को देश के अत्याधुनिक, अतिसमृद्ध आवासी
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विद्यालयों में भेजा जाता है । ये प्रतिष्ठा के दर्शक हैं
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और विशेष छाप लिये हुए हैं ।
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अनाथ, गरीब, दलित, पिछडी जातियों के, वनवासी
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बच्चों के लिये सरकार की ओर से निःशुल्क आवासी
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विद्यालय चलाये जाते हैं जिन्हें आश्रमशाला कहा
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जाता है ।
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६... आध्यात्मिक केन्द्रों में, मठों में, वेदाध्ययन केन्द्रों में
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जो विद्यालय चलते हैं वे आवासीय ही होते हैं । कई
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शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय भी अनिवार्य रूप से
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आवासीय होते हैं ।
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विभिन्न प्रयोजनों से चलने वाले आवासीय विद्यालयों
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के स्वरूप भी भिन्न भिन्न होते हैं ।
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१, एक प्रकार ऐसा होता है जहाँ विद्यालय और आवास
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एक दूसरे से भिन्न व्यवस्था में चलते हैं । एक ही
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संस्था दोनों को चलाती है परन्तु विद्यालय
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मुख्याध्यापक या प्रधानाचार्य के द्वारा और छात्रावास
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गृहपति के द्वारा संचालित होता है । एक विद्यालय में
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पढने वाले एक ही छात्रावास में रहते हैं ।
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२... कहीं विद्यालय और छात्रावास भिन्न-भिन्न स्थानों पर
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भिन्न-भिन्न व्यवस्थाओं में होते हैं । विद्यालय केवल
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विद्यालय होता है, छात्रावास केवल छात्रावास होता
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है। दोनों का एकदूसरे के साथ कोई सम्बन्ध नहीं
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होता है । एक छात्रावास में भिन्न भिन्न विद्यालयों के
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माध्यमिक, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि सभी
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स्तरों के विद्यार्थी रहते हैं । एक ही विद्यालय में पढने
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वाले विद्यार्थी भिन्न भिन्न छात्रावा्सों में रहते हैं ।
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३. . विद्यालय और छात्रावास एक ही व्यक्ति के नियन्त्रण
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में चलते हैं और वह व्यक्ति होता है मुख्याध्यापक
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अथवा प्रधानाचार्य । इसमें एक ही विद्यालय, एक ही
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छात्रावास और शत प्रतिशत विद्यार्थी छात्रावास में
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रहने वाले होते हैं । ये २४ घण्टे के विद्यालय होते हैं
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और सही अर्थ में आवासी विद्यालय कहे जायेंगे ।
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सही अर्थ में आवासीय विद्यालय की अधिक चर्चा
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करना उपयुक्त रहेगा ।
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आवासीय विद्यालय
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ये विद्यालय वास्तव में हमें प्राचीन गुरुकुलों का
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स्मरण करवाने वाले हैं, जहाँ पूर्ण समय विद्यार्थी अपने
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अध्यापकों के साथ रहते हैं । परन्तु गुरुकुल की सही
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Phew ज्ञात न होने के कारण से आज वे उनसे भिन्न रूप
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में चलते हैं ।
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  −
आज वे कैसे चलते हैं ?
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8. इन विद्यालयों की दिनचर्या बहुत आदर्श मानी जाय
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c&
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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ऐसी होती है । प्रात: जल्दी जगना, प्रातःप्रार्थना,
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योगाभ्यास, व्यायाम आदि करना, अल्पाहार और
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गृहपाठ करना, ग्यारह बजे विद्यालय जाना, बीच में
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भोजन की छुट्टी होना, पुनः विद्यालय जाना,
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सायंकाल मैदान में खेलना, सायंप्रार्थना करना, भोजन
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करना, स्वाध्याय या गृहपाठ करना और सो जाना
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यही दिनक्रम रहता है । रविवार को छुट्टी रहती है ।
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उस दिन की दिनचर्या कुछ विशेष रहती है । अन्य
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विद्यालयों की तरह ही परीक्षायें और अवकाश रहते
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हैं जब विद्यार्थी घर जाते हैं ।
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परन्तु इन विद्यालयों में भारतीय पद्धति से शिक्षा की
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अनेक सम्भावनायें हैं जिनका ज्ञान होने से उनको
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वास्तविक रूप दिया जा सकता है ।
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g. ये चौबीस घण्टे के विद्यालय हैं । अर्थात्‌ चौबीस
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घण्टे का जीवन ही शिक्षा का विषय है, वही
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पाठ्यक्रम है । इस बात को ध्यान में रखकर नियोजन
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किया जा सकता है ।
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प्रातः्काल जगने से रात्रि को सोने तक की सारी
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बातें क्रियात्मक, भावात्मक और ज्ञानात्मक पद्धति से
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सिखाई जा सकती हैं ।
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2. इन विद्यालयों की दिनचर्या प्रकृति के नियमानुसार
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बनाई जा सकती है । उदाहरण के लिये सोने, जागने,
  −
 
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भोजन करने, खेलने, पढने और विश्रान्ति का समय
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वैज्ञानिक पद्धति से निश्चित कर सकते हैं । दोपहर में
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भोजन का समय मध्याह्. से पूर्व, सायंकाल सूर्यास्त से
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पूर्व, जगने का समय ब्राह्ममुूर्त, अध्ययन का समय
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प्रातः्काल और सायंकाल आदि कर सकते हैं ।
  −
 
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३... चौबीस घण्टों में व्यक्तिगत और सामुदायिक जो भी
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काम होते हैं वे सब सहभागिता से किये जा सकते
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हैं । यदि कोई विद्यार्थी दस वर्ष आवासीय विद्यालय
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में रहता है तो स्वच्छता से लेकर भोजन बनाने तक
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के सारे काम करने में निपुणता प्राप्त हो सकती है,
  −
 
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व्यवहार दक्षता प्राप्त हो सकती है, शास्त्रीय अध्ययन
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भी अच्छा हो सकता है ।
  −
 
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४... आवासीय विद्यालय में शिक्षकों को विद्यालय का
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
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अंग बनकर रहना होता है । वर्तमान में शिक्षकों का
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सम्बन्ध केवल विषयों के अध्यापन से ही होता है
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परन्तु इसमें परिवर्तन कर उन्हें विद्यार्थियों के शिक्षक
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बनना चाहिये । विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्था में
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सहभागी बनना चाहिये । सामान्य विद्यालय के
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शिक्षक और आवासीय विद्यालयों के शिक्षकों में
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बहुत अन्तर होता है ।
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आवासीय विद्यालय यदि गुरुकुल के अनुसार चलाये
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जाय तो आज भी शिक्षा में बहुत बडे परिवर्तन की
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अपेक्षा की जा सकती है । वर्तमान में ऐसा होने में
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व्यवस्था की नहीं अपितु शिक्षकों की कमी है ।
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शिक्षाक्षेत्र में जीवनशिक्षा यह विषय नहीं रहने के
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कारण शिक्षकों और विद्यार्थियों का जीवन समरस नहीं
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हो पाता । उदाहरण के लिये परिसर में ही जिनका
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निवास है ऐसे शिक्षकों की पत्नियों की विद्यालय की
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दैनन्दिन गतिविधियों में कोई भूमिका नहीं रहती है ।
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अनेक बार शिक्षक भी विद्यालय परिसर में निवास नहीं
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चाहते हैं क्योंकि अपना जीवन विद्यार्थियों के मध्य
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खुली किताब जैसा बन जाय यह उन्हें पसन्द नहीं
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  −
होता । यदि शिक्षक अपने आपको विद्यार्थियों के
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समान ही विद्यालय का अंग मानें तभी आवासीय
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विद्यालय गुरुकुल में परिवर्तित हो सकता है । शिक्षकों
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के लिये भी वह चौबीस घण्टों का विद्यालय बनना
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चाहिये । शिक्षकों की पत्नियाँ गृहमाता बननी
  −
 
  −
चाहिये ।
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व्यवस्थाओं के विषय में भी गुरुकुल के समान अलग
  −
 
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ही पद्धति से विचार किया जा सकता है । उदाहरण के
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लिये एक एक शिक्षक के साथ दस-बीस-पचीस
  −
 
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विद्यार्थी रहते हों, वे सब भिन्न भिन्न आयु के भी हों
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और पूरा चौबीस घण्टों का जीवन एक बडे परिवार की
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तरह रहते हों ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है । सारे
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काम शिक्षक, उनकी पत्नी, विद्यार्थी सब मिलकर
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करते हों, अध्ययन भी सब कामों में एक काम हो ऐसी
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व्यवस्था बनाई जा सकती है ।
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आजकल छात्रावासों में विद्यार्थी केवल पढ़ेंगे, खेलेंगे
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और अन्य शैक्षिक गतिविधियों में
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सहभागी बनेंगे परन्तु और कोई काम नहीं करेंगे ऐसी
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  −
अपेक्षा की जाती है। उनके निवास के कक्ष की
  −
 
  −
स्वच्छता, उनके अपने कपडों की धुलाई, बर्तनों की
  −
 
  −
सफाई आदि के लिये नौकर होंगे, भोजन बनाने आदि
  −
 
  −
में सहभागी होना तो बहुत दूर की बात है । इन कामों
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को हेय मानने की यह प्रवृत्ति बहुत हानिकारक है ।
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एक समझने लायक उदाहरण
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एक उदाहरण समझने लायक है । मजदूरी करना ही
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  −
जिनका स्वाभाविक जीवनफक्रम है ऐसी एक जाति का मुखिया
  −
 
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चुनाव जीतकर विधायक बन गया । उसकी जाति में गरीबी
  −
 
  −
और निरक्षरता की मात्रा बहुत अधिक थी । उसे लगा कि
  −
 
  −
अपनी जाति के लडके और लडकियों के लिये शिक्षा का
  −
 
  −
प्रबन्ध करना चाहिये । इसलिये उसने दो छात्रावास बनाये
  −
 
  −
और एक विद्यालय बनाया । एक छात्रावास लडकियों के
  −
 
  −
लिये और दूसरा लडकों के लिये था । वे छात्रावास सारी
  −
 
  −
सुविधाओं से पूर्ण थे । कपडे धोने के लिये नौकर, सोने के
  −
 
  −
लिये पलंग, भोजन के लिये स्टील के बर्तन और कुर्सी मेज ।
  −
 
  −
विद्यार्थियों को केवल अपने निवासकक्ष की स्वच्छता और
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  −
अपने भोजन के बर्तनों की सफाई करने का ही काम था ।
  −
 
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भोजन, आवास, शिक्षा सब निःशुल्क था । ये सारे लडके
  −
 
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और लडकियाँ ऐसे परिवारों से थे जहाँ एक छोटे कमरे में सात
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आठ लोग रहते थे, रूखा सूखा भोजन करते थे, कभी दान में
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मिले किसी के पुराने कपडे भी पहनते थे और सोने के लिये
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टाट या दरी ही मिलती थी । छात्रावास के जीवन का वैभव
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भोगकर एक दो वर्षों में तो सबकी आदतें ऐसी बिगड गई कि
  −
 
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वे अब घर जाना नहीं चाहते थे, अपने माँबाप से सम्बन्ध
  −
 
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बताने में लज्जा का अनुभव करते थे और छात्रावास में भी वे
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  −
कहने लगे कि अब कक्ष की और बर्तनों की सफाई के लिये
  −
 
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भी नौकर हो तो अच्छा है । उस विधायक को बार बार मन
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में प्रश्न उठ रहा था कि उसने अच्छा काम किया या बुरा,
  −
 
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अपनी जाति के लडके-लडकियों का भला किया या बुरा ।
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वास्तव में वह भला करना चाहता था परन्तु शिक्षा विषयक
  −
 
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दृष्टि के अभाव में उसने सबको हानि पहुँचाई ।
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  −
 
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Bel Ad Tet VASAT Hh el
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जब आवासीय विद्यालयों में पढ़ते हैं तब वे अधिक seve
  −
 
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और वास्तविक जीवन से विमुख बन जाते हैं। ऐसे
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विद्यालयों का कृत्रिम अनुशासन उन्हें हृदयशून्य बना देता है
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  −
और वैभव उन्हें मदान्वित बनाता है ।
  −
 
  −
ये विद्यालय गुरुकुलों की तरह
  −
 
  −
सांस्कृतिक उद्देश्यों के लिए चलने चाहिये ।
  −
 
  −
इन विद्यालयों के अभिभावकों का व्यवहार और मानस
  −
 
  −
बहुत अस्वाभाविक होता है । बच्चे छात्रावास में रहते हैं
  −
 
  −
इसलिये घर के लोगों के स्नेह से, घर की सुविधाओं और
  −
 
  −
स्वतन्त्रता से, घर के भोजन से वे वंचित रह जाते हैं ऐसा उन्हें
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  −
लगता है । इसलिये जब अवकाश में घर आते हैं तब टीवी,
  −
 
  −
होटेल, घूमना फिरना, काम नहीं करना आदि बातों की इतनी
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  −
अधिकता हो जाती है कि बच्चे भी आवासीय विद्यालय के
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अनुशासन, भोजन, व्यवस्था आदि को बन्धन मानने लगते हैं
  −
 
  −
और सदैव उससे मुक्ति चाहते हैं । छात्रालय का जीवन मानो
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  −
उनके लिये मजबूरी बन जाता है । अनुशासन, व्यवस्था
  −
 
  −
आदि का यदि अच्छे मन से स्वीकार नहीं किया जाय तो वे
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जीवन का अंग नहीं बनतीं । वर्षों तक आवासीय विद्यालय
  −
 
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में रहने
  −
 
  −
के बाद भी विद्यार्थियों के चरित्र का गठन नहीं हो
  −
 
  −
पाता क्योंकि अभिभावकों और शिक्षकों की ना समझी और
  −
 
  −
अकुशलता के कारण विद्यार्थी उसका स्वीकार ही नहीं कर
  −
 
  −
पाते । बच्चे उद्दण्ड हैं इसलिये यदि आवासीय विद्यालय में
  −
 
  −
भेज दिये गये हैं तब तो उनके और अधिक उद्दण्ड बनने की
  −
 
  −
सम्भावना ही अधिक होती है क्योंकि शिक्षक यदि गुरुकुल के
  −
 
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शिक्षक जैसे नहीं हैं तो विद्यालय का कृत्रिम अनुशासन
  −
 
  −
सुधारगृह का ही अनुभव करवाता है ।
  −
 
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जिन आवासीय विद्यालयों में कुछ छात्र स्थानिक होते
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  −
हैं और केवल पढाई के लिये ही विद्यालय में आते हैं वहाँ
  −
 
  −
वातावरण, व्यवस्था, मानसिकता बिगड जाने की सम्भावनायें
  −
 
  −
ही अधिक होती हैं । बाहर के वातावरण के दृषण और
  −
 
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आन्तरिक व्यवस्था की कृत्रिमता विद्यार्थियों को असहज बना
  −
 
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देते हैं ।
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आवासीय विद्यालयों में कुछ विद्यार्थियों को दिन में
  −
 
  −
cc
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  −
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
  −
 
  −
केवल पढाई हेतु खण्ड समय के लिये प्रवेश देने की बाध्यता
  −
 
  −
अधिकतर आर्थिक कारणों से ही बनती है । परन्तु विद्यालय
  −
 
  −
में रहनेवाले विद्यार्थियों पर इसका विपरीत प्रभाव पडता है ।
  −
 
  −
इस कारण से ऐसा करना उचित नहीं है । अधिकांश संचालक
  −
 
  −
यह स्थिति समझते हैं परन्तु इस पर नियन्त्रण नहीं प्राप्त कर
  −
 
  −
सकते |
  −
 
  −
महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों और शोधसंस्थानों में
  −
 
  −
स्वतन्त्र छात्रालयों में रहनेवाले विद्यार्थी अनेक प्रकार के
  −
 
  −
सांस्कृतिक संकटों से घिर जाते हैं, अनेक सांस्कृतिक संकट
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निर्माण भी करते हैं जिन्हें वे मुक्तता और सुख मानते हैं ।
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धूम्रपान करने वाली लडकियाँ, युवकयुवतियों की मित्रता और
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पराकाष्ठा की उनकी निकटता, शराब जैसे व्यसन इस प्रकार
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के छात्रावासों में सहज होता है । इनमें गम्भीर अध्ययन
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कनरेवाले विद्यार्थी भी होते ही हैं परन्तु इन दूषणों से बचना
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अत्यन्त कठिन हो जाता है । इन युवाओं के लिये सारे उत्सव
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सांस्कृतिक नहीं अपितु मनोरंजन के साधन ही होते हैं ।
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आवासीय विद्यालय यदि गुरुकुलों के समान और
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विशेष सांस्कृतिक उद्देश्य और पद्धति से नहीं चलाये गये तो
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दो पीछढ़ियों में अन्तर निर्माण करने के निमित्त बन जाते हैं ।
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वैसे भी वर्तमान वातावरण में मातापिता और सन्तानों में दूरत्व
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निर्माण करने वाले अनेक साधन उत्पन्न हो ही गये हैं उनमें
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यह एक बडा निमित्त जुड॒ जाता है । दो पीढ़ियों में समरस
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सम्बन्ध निर्माण नहीं होने से सांस्कृतिक परम्परा खण्डित होती
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है । परम्परा खण्डित होना किसी भी समाज के लिये घाटे का
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ही सौदा होता है । इसलिये समाज हितचिन्तक हमेशा परम्परा
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को बनाये रखने हेतु हर सम्भव प्रयास करने का ही परामर्श
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देते हैं ।
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आज समाज में धनवान लोगों की यह मानसिकता भी
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बढ़ने लगी है कि अच्छी पढाई हेतु अपनी सन्तानों को बडे
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नगरों में या विदेशों में भेजना अच्छा है । ऐसा नहीं है कि
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ऐसी पढाई हेतु अपने ही स्थान पर कोई महाविद्यालय नहीं
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है । परन्तु महानगरों, दूर स्थित महानगरों और विदेशों का
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दोनों पीढियों को आकर्षण है । बडों को उसमें प्रतिष्ठा का
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अनुभव होता है और युवाओं को प्रतिष्ठा के साथ साथ मुक्ति
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का भी अनुभव होता है । अपनी सन्तानों के भले के लिये ही
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
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यह सब कर रहे हैं ऐसा बडों का भाव होता है । अनेक बार
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हैं परन्तु यह शैक्षिक दृष्टि से भी उचित
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तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता क्रण लेकर भी... होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता । सामाजिक सांस्कृतिक
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अपनी संतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते
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दृष्टि से यह हानिकारक है ।
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सरकारी प्राथमिक विद्यालयों का क्या करें
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वर्तमान स्थिति
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शिक्षा सरकार के लिये चिन्ता का विषय है । शिक्षा
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की व्यवस्था करना सरकार ने अपना दायित्व माना है । हमारे
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संविधान में छः से चौदह वर्ष की आयु तक शिक्षा को
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अनिवार्य बनाया है । अनिवार्य है इसीलिये निःशुल्क भी
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करना होता है । सरकार की इच्छा है कि देश के ६ से १४
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वर्ष के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मिले । इस दृष्टि से छोटे
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छोटे गाँवों में भी सरकारी प्राथमिक विद्यालय होते हैं ।
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इनमें बच्चों के प्रवेश हों, उन्हें प्रोत्साहन मिले इस हेतु
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से प्रवेशोत्सव मनाये जाते हैं । विद्यार्थी बीच में ही विद्यालय
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छोड़कर न जाय इसका भी ध्यान रखा जाता है । गरीबों को
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अपने बच्चों को पढ़ाने की सुविधा हो इस दृष्टि से yea
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भोजन योजना चलाई जाती है । बच्चों को पुस्तकें, गणवेश,
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बस्ता आदि भी दिया जाता है । सरकार अनेक प्रयास करती
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है। सर्व शिक्षा अभियान चलता है। तो भी सरकारी
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विद्यालयों की हालत अत्यन्त दयनीय और चिन्ताजनक है ।
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आँकडे भी दयनीय स्थिति दर्शाते हैं जबकि वास्तविक स्थिति
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आँकडों से अधिक दयनीय होती है यह सब जानते हैं ।
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सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की कोई प्रतिष्ठा नहीं है ।
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प्रजा को इन विद्यालयों पर कोई भरोसा नहीं है । अब ऐसा
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कहा जाता है कि सरकारी विद्यालयों में अच्छे लोगों के बच्चे
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पढ़ते ही नहीं हैं, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, नशा करने
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वाले, असंस्कारी मातापिता के बच्चे पढते हैं जिनकी संगत में
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हमारे बच्चें बिगड जायेंगे । परन्तु यह तो परिणाम है ।
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“अच्छे' घर के लोगों ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया
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इसलिये अब 'पिछडे' बच्चे रह गये हैं । दो पीढ़ियों पूर्व आज
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के विद्वान लोग भी सरकारी विद्यालयों में पढ़े हुए ही हैं । धीरे
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धीरे पढ़ाना बन्द हुआ इसलिये लोगों ने अपने बच्चों को
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भेजना बन्द किया । झुग्गी झॉंपडियों में नहीं रहनेवाले
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सुसंस्कृत और झुग्गी झेंपडियों में रहनेवाले पिछडे यह
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वर्गीकरण तो बडी भ्रान्ति है परन्तु इस भ्रान्ति को दूर करने की
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चिन्ता कोई नहीं करता, उल्टे उसका ही लोग फायदा उठाने
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का प्रयास करते हैं । सरकारी विद्यालयों के शिक्षक हमेशा
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शिकायत करते हैं कि हमारे यहाँ बच्चे पढने के लिये आते ही
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नहीं हैं, केवल खाने के लिये ही आते हैं, अच्छे घर के आते
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ही नहीं है तो हम किसे पढायें । यह भी सत्य नहीं है परन्तु
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इस सम्बन्ध में कोई प्रयास नहीं किया जाता ।
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अनेक बार लोगों द्वारा शिकायतें की जाती हैं,
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अखबारों में सचित्र समाचार छपते हैं कि गाँवों में विद्यालय
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के भवन अच्छे नहीं हैं, बैठने की, शौचालयों की सुविधा
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नहीं है, शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है, यदि हुई है तो वे
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शिक्षक आते नहीं हैं, अपने स्थान पर अन्य किसी नौसीखिये
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को भेजकर स्वयं दूसरा व्यवसाय करते हैं । इस बात में सचाई
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होने पर भी इस कारण से शिक्षा नहीं दी जा सकती ऐसा नहीं
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है । नगरों और महानगरों के प्राथमिक विद्यालयों में अच्छा
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भवन, अच्छा मैदान, शिक्षक, साधनसामग्री, विद्यार्थी
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सबकुछ है तो भी शिक्षा की स्थिति तो वैसी ही दयनीय है ।
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इसका क्या कारण है ?
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शैक्षिक दृष्टि से सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पर्याप्त
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व्यवस्था होती है । कई निजी विद्यालयों में शिक्षक उचित
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योग्यता वाले नहीं भी होते परन्तु सरकारी विद्यालयों में पर्याप्त
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योग्यता वाले होते ही हैं । उनके प्रशिक्षण की और निरीक्षण
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की पर्याप्त व्यवस्था होती है । साधनसामग्री, पुस्तकें आदि
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का अभाव नहीं होता । सरकारी शिक्षकों का जितना
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प्रशिक्षण होता है उतना तो sem कहीं नहीं होता ।
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वेतनमान भी निजी विद्यालयों की अपेक्षा अच्छा होता है ।
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तो भी शिक्षा अच्छी नहीं होती इसका क्या कारण है ?
      
यह स्थिति एक बात तो सिद्ध करती है कि नियम,
 
यह स्थिति एक बात तो सिद्ध करती है कि नियम,
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