Line 515: |
Line 515: |
| ====== एक समझने लायक उदाहरण ====== | | ====== एक समझने लायक उदाहरण ====== |
| एक उदाहरण समझने लायक है। मजदूरी करना ही जिनका स्वाभाविक जीवनक्रम है ऐसी एक जाति का मुखिया चुनाव जीतकर विधायक बन गया । उसकी जाति में गरीबी और निरक्षरता की मात्रा बहुत अधिक थी। उसे लगा कि अपनी जाति के लडके और लडकियों के लिये शिक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये । इसलिये उसने दो छात्रावास बनाये और एक विद्यालय बनाया। एक छात्रावास लडकियों के लिये और दूसरा लडकों के लिये था । वे छात्रावास सारी सुविधाओं से पूर्ण थे । कपडे धोने के लिये नौकर, सोने के लिये पलंग, भोजन के लिये स्टील के बर्तन और कुर्सी मेज । विद्यार्थियों को केवल अपने निवासकक्ष की स्वच्छता और अपने भोजन के बर्तनों की सफाई करने का ही काम था । भोजन, आवास, शिक्षा सब निःशुल्क था । ये सारे लडके और लडकियाँ ऐसे परिवारों से थे जहाँ एक छोटे कमरे में सात आठ लोग रहते थे, रूखा सूखा भोजन करते थे, कभी दान में मिले किसी के पुराने कपडे भी पहनते थे और सोने के लिये टाट या दरी ही मिलती थी। छात्रावास के जीवन का वैभव भोगकर एक दो वर्षों में तो सबकी आदतें ऐसी बिगड गई कि वे अब घर जाना नहीं चाहते थे, अपने माँबाप से सम्बन्ध बताने में लज्जा का अनुभव करते थे और छात्रावास में भी वे कहने लगे कि अब कक्ष की और बर्तनों की सफाई के लिये भी नौकर हो तो अच्छा है । उस विधायक को बार बार मन में प्रश्न उठ रहा था कि उसने अच्छा काम किया या बुरा, अपनी जाति के लडके-लडकियों का भला किया या बुरा । वास्तव में वह भला करना चाहता था परन्तु शिक्षा विषयक दृष्टि के अभाव में उसने सबको हानि पहुँचाई । | | एक उदाहरण समझने लायक है। मजदूरी करना ही जिनका स्वाभाविक जीवनक्रम है ऐसी एक जाति का मुखिया चुनाव जीतकर विधायक बन गया । उसकी जाति में गरीबी और निरक्षरता की मात्रा बहुत अधिक थी। उसे लगा कि अपनी जाति के लडके और लडकियों के लिये शिक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये । इसलिये उसने दो छात्रावास बनाये और एक विद्यालय बनाया। एक छात्रावास लडकियों के लिये और दूसरा लडकों के लिये था । वे छात्रावास सारी सुविधाओं से पूर्ण थे । कपडे धोने के लिये नौकर, सोने के लिये पलंग, भोजन के लिये स्टील के बर्तन और कुर्सी मेज । विद्यार्थियों को केवल अपने निवासकक्ष की स्वच्छता और अपने भोजन के बर्तनों की सफाई करने का ही काम था । भोजन, आवास, शिक्षा सब निःशुल्क था । ये सारे लडके और लडकियाँ ऐसे परिवारों से थे जहाँ एक छोटे कमरे में सात आठ लोग रहते थे, रूखा सूखा भोजन करते थे, कभी दान में मिले किसी के पुराने कपडे भी पहनते थे और सोने के लिये टाट या दरी ही मिलती थी। छात्रावास के जीवन का वैभव भोगकर एक दो वर्षों में तो सबकी आदतें ऐसी बिगड गई कि वे अब घर जाना नहीं चाहते थे, अपने माँबाप से सम्बन्ध बताने में लज्जा का अनुभव करते थे और छात्रावास में भी वे कहने लगे कि अब कक्ष की और बर्तनों की सफाई के लिये भी नौकर हो तो अच्छा है । उस विधायक को बार बार मन में प्रश्न उठ रहा था कि उसने अच्छा काम किया या बुरा, अपनी जाति के लडके-लडकियों का भला किया या बुरा । वास्तव में वह भला करना चाहता था परन्तु शिक्षा विषयक दृष्टि के अभाव में उसने सबको हानि पहुँचाई । |
| + | |
| + | यही बात बहुत धनाढ्यों के बच्चे जब आवासीय विद्यालयों में पढ़ते हैं तब वे अधिक उद्दण्ड और वास्तविक जीवन से विमुख बन जाते हैं। ऐसे विद्यालयों का कृत्रिम अनुशासन उन्हें हृदयशून्य बना देता है और वैभव उन्हें मदान्वित बनाता है। |
| + | |
| + | ====== ये विद्यालय गुरुकुलों की तरह सांस्कृतिक उद्देश्यों के लिए चलने चाहिये । ====== |
| + | इन विद्यालयों के अभिभावकों का व्यवहार और मानस बहुत अस्वाभाविक होता है। बच्चे छात्रावास में रहते हैं इसलिये घर के लोगों के स्नेह से, घर की सुविधाओं और स्वतन्त्रता से, घर के भोजन से वे वंचित रह जाते हैं ऐसा उन्हें लगता है । इसलिये जब अवकाश में घर आते हैं तब टीवी, होटेल, घूमना फिरना, काम नहीं करना आदि बातों की इतनी अधिकता हो जाती है कि बच्चे भी आवासीय विद्यालय के अनुशासन, भोजन, व्यवस्था आदि को बन्धन मानने लगते हैं और सदैव उससे मुक्ति चाहते हैं । छात्रालय का जीवन मानो उनके लिये मजबूरी बन जाता है। अनुशासन, व्यवस्था आदि का यदि अच्छे मन से स्वीकार नहीं किया जाय तो वे जीवन का अंग नहीं बनतीं । वर्षों तक आवासीय विद्यालय में रहने के बाद भी विद्यार्थियों के चरित्र का गठन नहीं हो पाता क्योंकि अभिभावकों और शिक्षकों की ना समझी और अकुशलता के कारण विद्यार्थी उसका स्वीकार ही नहीं कर पाते । बच्चे उद्दण्ड हैं इसलिये यदि आवासीय विद्यालय में भेज दिये गये हैं तब तो उनके और अधिक उद्दण्ड बनने की सम्भावना ही अधिक होती है क्योंकि शिक्षक यदि गुरुकुल के शिक्षक जैसे नहीं हैं तो विद्यालय का कृत्रिम अनुशासन सुधारगृह का ही अनुभव करवाता है।। |
| + | |
| + | जिन आवासीय विद्यालयों में कुछ छात्र स्थानिक होते हैं और केवल पढाई के लिये ही विद्यालय में आते हैं वहाँ वातावरण, व्यवस्था, मानसिकता बिगड जाने की सम्भावनायें ही अधिक होती हैं। बाहर के वातावरण के दूषण और आन्तरिक व्यवस्था की कृत्रिमता विद्यार्थियों को असहज बना देते हैं। |
| + | |
| + | जिन आवासीय विद्यालयों में कुछ छात्र स्थानिक होते हैं और केवल पढाई के लिये ही विद्यालय में आते हैं वहाँ वातावरण, व्यवस्था, मानसिकता बिगड जाने की सम्भावनायें ही अधिक होती हैं। बाहर के वातावरण के दूषण और आन्तरिक व्यवस्था की कृत्रिमता विद्यार्थियों को असहज बना देते हैं। |
| + | |
| + | आवासीय विद्यालयों में कुछ विद्यार्थियों को दिन में केवल पढाई हेतु खण्ड समय के लिये प्रवेश देने की बाध्यता अधिकतर आर्थिक कारणों से ही बनती है । परन्तु विद्यालय में रहनेवाले विद्यार्थियों पर इसका विपरीत प्रभाव पडता है । इस कारण से ऐसा करना उचित नहीं है । अधिकांश संचालक यह स्थिति समझते हैं परन्तु इस पर नियन्त्रण नहीं प्राप्त कर सकते । |
| + | |
| + | महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों और शोधसंस्थानों में स्वतन्त्र छात्रालयों में रहनेवाले विद्यार्थी अनेक प्रकार के सांस्कृतिक संकटों से घिर जाते हैं, अनेक सांस्कृतिक संकट निर्माण भी करते हैं जिन्हें वे मुक्तता और सुख मानते हैं। धूम्रपान करने वाली लडकियाँ, युवकयुवतियों की मित्रता और पराकाष्ठा की उनकी निकटता, शराब जैसे व्यसन इस प्रकार के छात्रावासों में सहज होता है। इनमें गम्भीर अध्ययन कनरेवाले विद्यार्थी भी होते ही हैं परन्तु इन दूषणों से बचना अत्यन्त कठिन हो जाता है । इन युवाओं के लिये सारे उत्सव सांस्कृतिक नहीं अपितु मनोरंजन के साधन ही होते हैं । |
| + | |
| + | आवासीय विद्यालय यदि गुरुकुलों के समान और विशेष सांस्कृतिक उद्देश्य और पद्धति से नहीं चलाये गये तो दो पीढियों में अन्तर निर्माण करने के निमित्त बन जाते हैं । वैसे भी वर्तमान वातावरण में मातापिता और सन्तानों में दूरत्व |
| + | |
| + | आवासीय विद्यालयों में कुछ विद्यार्थियों को दिन में |
| | | |
| है। सायंकाल खेलने के बाद यदि छः बजे वापस... अधिक प्रचलन हो यह हितकारी है । | | है। सायंकाल खेलने के बाद यदि छः बजे वापस... अधिक प्रचलन हो यह हितकारी है । |