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समाज में हिंसा, चोरी, अनाचार, भ्रष्टाचार, असत्य, धोखाधडी आदि दिखाई देता है तो मानना चाहिये कि देश के विद्यालयों में (तथा परिवार में) सद्गुण और सदाचार की शिक्षा नहीं दी जाती है, शिक्षकों की तथा संचालकों की नीयत ठीक नहीं है, मातापिता गैरजिम्मेदार हैं। विद्यालय को समाज के संस्कारों का भी रक्षक और नियामक होना चाहिये।
 
समाज में हिंसा, चोरी, अनाचार, भ्रष्टाचार, असत्य, धोखाधडी आदि दिखाई देता है तो मानना चाहिये कि देश के विद्यालयों में (तथा परिवार में) सद्गुण और सदाचार की शिक्षा नहीं दी जाती है, शिक्षकों की तथा संचालकों की नीयत ठीक नहीं है, मातापिता गैरजिम्मेदार हैं। विद्यालय को समाज के संस्कारों का भी रक्षक और नियामक होना चाहिये।
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===== सामाजिक रीतियों का शोधन करना =====
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समाज की रीतियों में जब प्रदूषण फैलता है तब उसका शोधन करने का काम भी विद्यालय को करना होता है ।  विद्यालय की वह क्षमता है, अधिकार है और दायित्व
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विभिन्न सन्दर्भ और उदाहरणों से इस प्रतिपादन को स्पष्ट करेंगे।
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होली, नवरात्रि, गणेश चर्थी आदि भारत के देशव्यापी सांस्कृतिक पर्व हैं। इनका आयोजन धार्मिक, सांस्कृतिक पद्धति से होना चाहिये । परन्तु वर्तमान में इसका बाजारीकरण, भौतिकीकरण और फिल्मीकरण हो गया है। ये सात्त्विक आनन्दप्रमोद के, उपासना के, राष्ट्र भावना जगाने के, समाज को संगठित करने के पर्व नहीं रह गये हैं। इन्हें यदि शुद्ध करना है तो कानून, पुलीस, बाजार, प्रशासन की क्षमता नहीं है। विद्यालय को ही अपने विद्यार्थियों की शिक्षा और उनके परिवारों के प्रबोधन के माध्यम से यह कार्य करना होगा। विद्यालय का यह कानूनी नहीं, स्वाभाविक कर्तव्य है।
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चुनावों में लेनदेन होता है, सांसद उद्योजकों के साथ
    
परन्तु हम सब जानते हैं कि हमें इनमें से एक भी
 
परन्तु हम सब जानते हैं कि हमें इनमें से एक भी
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