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घर में भावात्मक, विद्यालय में ज्ञानात्मक और धर्माचार्य द्वारा प्रबोधनात्मक पद्धति से शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है। भावात्मक शिक्षा के आधार पर ज्ञानात्मक शिक्षा होती है। विद्यालय में जो ज्ञान प्राप्त किया उसे जीवनभर व्यवहार में प्रकट करना है। उस समय निरन्तर प्रबोधन करने का काम विद्वान धर्माचार्य करते हैं।
घर में भावात्मक, विद्यालय में ज्ञानात्मक और धर्माचार्य द्वारा प्रबोधनात्मक पद्धति से शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है। भावात्मक शिक्षा के आधार पर ज्ञानात्मक शिक्षा होती है। विद्यालय में जो ज्ञान प्राप्त किया उसे जीवनभर व्यवहार में प्रकट करना है। उस समय निरन्तर प्रबोधन करने का काम विद्वान धर्माचार्य करते हैं।
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इस व्यवस्था में विद्यालय की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय में जो शिक्षा दी जाती है उससे समाज की स्थिति बनती है। विद्यालय में यदि अच्छी शिक्षा मिलती है तो समाज अच्छा बनता है, विद्यालय में अच्छी शिक्षा नहीं
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इस व्यवस्था में विद्यालय की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय में जो शिक्षा दी जाती है उससे समाज की स्थिति बनती है। विद्यालय में यदि अच्छी शिक्षा मिलती है तो समाज अच्छा बनता है, विद्यालय में अच्छी शिक्षा नहीं मिलती है तो समाज अच्छा नहीं बनता है। समाज ही विद्यालय की शिक्षा का निकष है। अतः शिक्षा विद्यार्थी के माध्यम से सम्पूर्ण समाज को लक्ष्य बनाकर दी जानी चाहिये ।
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===== विद्यालय की भूमिका =====
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समाज को सुसंस्कृत बनाने का और संस्कृति के प्रवाह को निरन्तर प्रवाहित तथा शुद्ध रखने का कार्य विद्यालय कैसे करेगा ?
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व्यवस्थाओं को जीवनदृष्टि के अनुरूप बनाने हेतु विभिन्न शास्त्रों की रचना करना और सिखाना विद्यालय का प्रमुख कार्य है। सर्वे भवन्तु सुखिनः यह भारतीय जीवनदृष्टि है । इस दृष्टि के अनुरूप राज्यव्यवस्था, अर्थव्यवस्था आदि होनी चाहिये। इस दृष्टि से राजशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि शास्त्रों की रचना करना विद्यालय का कार्य है । यह सही है कि यह अध्ययन, अनुसन्धान और ग्रन्थों के निर्माण का कार्य है और उच्चशिक्षा के केन्द्रों में होगा । परन्तु होगा तो विद्यालय में ही। इसके अध्यापन के माध्यम से विद्वान, दक्ष और कार्यकुशल लोग तैयार करने का काम भी विद्यालय को ही करना है। मंत्री हो या प्रशासक, सैनिक हो या जासूस, व्यापारी हो या उत्पादक शिक्षक हो या वैज्ञानिक, बाबू हो या मुकादम, ये सारे विद्यालय से ही अपनी अपनी विद्या सीखते हैं। इन सभी क्षेत्रों में यदि गडबड है तो यह विद्यालय की अधूरी या अनुचित शिक्षा का ही परिणाम माना जाना चाहिये । देश के कानून, विभिन्न प्रकार के तन्त्र, यदि ठीक नहीं हैं तो हम मान सकते हैं कि विद्यालय ने सही कानून, सही नीतियाँ, सही तन्त्र बनानेवाले लोग निर्माण नहीं किये हैं।
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समाज में हिंसा, चोरी, अनाचार, भ्रष्टाचार, असत्य, धोखाधडी आदि दिखाई देता है तो मानना चाहिये कि देश के विद्यालयों में (तथा परिवार में) सद्गुण और सदाचार की शिक्षा नहीं दी जाती है, शिक्षकों की तथा संचालकों की नीयत ठीक नहीं है, मातापिता गैरजिम्मेदार हैं। विद्यालय को समाज के संस्कारों का भी रक्षक और नियामक होना चाहिये।
परन्तु हम सब जानते हैं कि हमें इनमें से एक भी
परन्तु हम सब जानते हैं कि हमें इनमें से एक भी