इन सभी व्यवस्थाओं का मूल आधार है धर्म, धर्म के अनुसार जो रीति बनती है वह है संस्कृति ।
इन सभी व्यवस्थाओं का मूल आधार है धर्म, धर्म के अनुसार जो रीति बनती है वह है संस्कृति ।
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तात्पर्य यह है कि मनुष्य का । ) समाज धर्म और संस्कृति से चलता है ।
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===== संस्कृति सनातन है =====
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संस्कृति का प्रवाह पीढी दर पीढी अखण्ड चलता है । नित्य प्रवाहित होने वाली सभी व्यवस्थाओं में परिवर्तन होते ही रहते हैं। परिवर्तन के कारण ही उसकी सुस्थिति बनी रहती है। जिस प्रकार बहती नदी का पानी कभी भी एक स्थान पर नहीं टिकता, टिकते ही वह नदी नदी नहीं रहती, टिकते ही उसकी शुद्धि की प्रक्रिया भी स्थगित हो जाती है, उस प्रकार संस्कृति का प्रवाह भी पीढ़ी दर पीढ़ी गतिमान रहने के कारण नित्य परिवर्तनशील भी रहता है और नित्य परिवर्तनशील होने के कारण नित्य शुद्ध, नित्य ताजा भी रहता है।
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नित्य परिवर्तित होने पर भी वह एक और अखण्ड रहता है । यही संस्कृति की सनातनता है । नित्य परिवर्तन, नित्य शुद्धि, नित्य नूतनता होने पर भी वही का वही रहता है उसीको संस्कृति का प्रवाह कहते हैं ।
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===== शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है =====
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संस्कृति को एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित करते हुए नित्य प्रवाहित रखने का महत्त्वपूर्ण कार्य शिक्षा करती है । वह घर में मातापिता द्वारा सन्तानों को, विद्यालय में शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को और समाज में धर्माचार्यो द्वारा लोगों को हस्तान्तरित की जाती है ।
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घर में भावात्मक, विद्यालय में ज्ञानात्मक और धर्माचार्य द्वारा प्रबोधनात्मक पद्धति से शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है। भावात्मक शिक्षा के आधार पर ज्ञानात्मक शिक्षा होती है। विद्यालय में जो ज्ञान प्राप्त किया उसे जीवनभर व्यवहार में प्रकट करना है। उस समय निरन्तर प्रबोधन करने का काम विद्वान धर्माचार्य करते हैं।
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इस व्यवस्था में विद्यालय की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय में जो शिक्षा दी जाती है उससे समाज की स्थिति बनती है। विद्यालय में यदि अच्छी शिक्षा मिलती है तो समाज अच्छा बनता है, विद्यालय में अच्छी शिक्षा नहीं