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अतिथि, अधिकारी, सन्त, महापुरुष विद्यालय में आते हैं तब मुख्याध्यापक ही परिवार के मुखिया के रूप में उनका स्वागत और सम्मान करते हैं।
 
अतिथि, अधिकारी, सन्त, महापुरुष विद्यालय में आते हैं तब मुख्याध्यापक ही परिवार के मुखिया के रूप में उनका स्वागत और सम्मान करते हैं।
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अभिभावक, संचालक, निरीक्षक विद्यालय के
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अभिभावक, संचालक, निरीक्षक विद्यालय के शिक्षकों और मुख्याध्यापक से बड़े नहीं हैं यह उनके हृदय में, मस्तिष्क में और व्यवहार में बिठाना विद्यालय के सभी शिक्षकों का ही काम है । विनय और शिष्टता न छोडते हुए भी दृढतापूर्वक यह बात प्रस्थापित करनी चाहिये।
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अभिभावकों के साथ आदर, सम्मान, स्नेह और विनयपूर्वक व्यवहार करते हुए भी यह बात स्पष्ट होनी चाहिये कि वे कोई ग्राहक नहीं है और विद्यालय कोई बाजार नहीं है कि उनकी मर्जी को माना जाय या उनका अविनय भी सहा जाय । उन्हें विद्यालय के अनुकूल बनाना है न कि विद्यालय को उनके अनुकूल।
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
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संचालकों के साथ भी इसी प्रकार आदर, सम्मान और विनयपूर्वक व्यवहार करते हुए भी यह बात प्रस्थापित होनी चाहिये कि यह विद्या का क्षेत्र है, ज्ञान का क्षेत्र है, यहाँ ज्ञान की उपासना होती है और वे ज्ञान के उपासकों की सहायता और सहयोग करने वाले हैं, उनके मालिक नहीं है । ज्ञान की प्रतिष्ठा सत्ता या धन से अधिक होती है ।
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सरकार के शिक्षा विभाग के अधिकारियों के मनमस्तिष्क में यह बात स्पष्ट होनी चाहिये कि वे भी शिक्षक की तरह व्यवहार करें, शासकीय कर्मचारी की तरह नहीं । वे शिक्षक ही हैं और उनकी शिक्षक की योग्यता शासकीय कर्मचारी की योग्यता से अधिक है। यदि वे शिक्षक कीतरह व्यवहार करते हैं तो समानधर्मी शिक्षक के योग्य आदर सम्मान करेंगे तो उन्हें ही शिक्षकों का सम्मान करना होगा ।
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सरकार के सचिव, मंत्री आदि जब विद्यालय में आते हैं तब पूरा विद्यालय उनकी सेवा के लिये तत्पर हो जाता है। विश्वविद्यालय के कुलपति भी ऐसा ही करते हैं। मंत्री ही क्यों पार्षद, विधायक या सांसद जैसे जनप्रतिनिधि भी विद्यालय में आते हैं तब उनका व्यवहार ऐसा ही होता है । वास्तव में होना तो उल्टा चाहिये । हमारी परम्परा तो कहती है कि राजा भी यदि गुरुकुल में आता है तो विनीत वेश धारण करके आता है अर्थात् अपने शासक होने के सारे चिह्न गुरुकुल के बाहर ही छोडकर आता है। फिर आज क्या हो गया है ? हम कौन सी परम्परा का अनुसरण कर रहे हैं ?
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आज यदि सही परम्परा को, अपनी परम्परा को प्रस्थापित करना है तो शिक्षकों और विद्यार्थियों ने मिलकर जनप्रतिनिधियों को, मन्त्रियों को, सचिवों को अतिथि के रूप में आदर और सम्मान तो अवश्य देना चाहिये । उनका स्वागत भी उचित पद्धति से करना चाहिये, हमारी भाषा भी शिष्ट ही होनी चाहिये परन्तु यह भी स्पष्ट होना चाहिये कि उन सबको मुख्याध्यापक, प्राचार्य या कुलपति का अधिक सम्मान करना चाहिये ।
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कहने की आवश्यकता नहीं कि शिक्षक समाज को अपने ज्ञान, तप, आचरण, सेवाभाव, सद्भाव और निष्ठा से ही यह पात्रता और अधिकार प्राप्त होता है केवल व्यवस्था से नहीं । व्यवस्था गुणों का अनुसरण करती है, गुण व्यवस्था का नहीं । बिना गुण के केवल व्यवस्था से प्राप्त अधिकार समय बीतते मजाक और उपेक्षा के योग्य बन जाता है।
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====== ३. समस्या का हल करना मुख्याध्यापक का दायित्व है ======
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विद्यालय में व्यवहार या व्यवस्था के सन्दर्भ में यदि कोई समस्या निर्माण होती है तब उसे अपने बलबूते पर उसे हल करना मुख्याध्यापक का दायित्व है उसमें सहभागी बनना शिक्षकों का।
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विद्यार्थियों की उद्दण्डता बिना अभिभावक को बुलाये शिक्षकों द्वारा ही ठीक की जानी चाहिये । अपने विद्यार्थियों की उद्दंडता की जिम्मेदारी अभिभावकों पर नहीं डालनी  चाहिये । हाँ, विद्यार्थियों के व्यवहार से यह ध्यान में आये कि अभिभावक भी दोषी है तो उन्हें मार्गदर्शन देने हेतु विद्यालय में बुलाया जा सकता है अथवा औचित्य के अनसार उनके पास भी जाया जा सकता है। परन्त विद्यार्थियों की उद्दण्डता हेतु अभिभावकों को जामीन नहीं बनाना चाहिये । अपने विद्यार्थियों के दोषों की जिम्मेदारी शिक्षकों को लेनी चाहिये ।
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अभिभावकों की शिक्षा अलग बात है और विद्यार्थियों के अपराध या दोष के निवारण का हवाला अभिभावकों को सौंपना अलग बात है।
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इसी प्रकार से विद्यालय परिसर में पुलीस को बुलाना, न्यायालय में केस दर्ज करना आदि नहीं होना चाहिये । यह मुख्याध्यापक की वरिष्ठता समाप्त कर देता है। विद्यार्थी,
    
© विद्यालय की आन्तरिक व्यवस्थाओं का मामला
 
© विद्यालय की आन्तरिक व्यवस्थाओं का मामला
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