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ये तो आचरण के विषय हैं । विद्यार्थी छोटे होते हैं
ये तो आचरण के विषय हैं । विद्यार्थी छोटे होते हैं
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०... विद्यालय में प्रवेश की आयु ५ वर्ष पूर्ण है । अब वह... * यान्त्रिकता और भौतिकता हा साथ चलते हैं ।
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तब तो वे सरलता से यह सब करते हैं परन्तु अच्छे और सही आचरण का स्रोत हृदय के भाव होते हैं। शिक्षक के हृदय में विद्यार्थियों के प्रति प्रेम और विद्यार्थियों के हृदय में शिक्षक के प्रति श्रद्धा ही विनयशील आचरण का स्रोत है । विद्यार्थियों में श्रद्धा के भाव का स्रोत भी शिक्षक के हृदय का प्रेम ही है। जब यह होता है तब विद्यार्थी बड़े होते हैं तब विनयशील बने रहते हैं, नहीं तो किशोर आयु के विद्यार्थियों के लिये विनयशील होना कठिन हो जाता है। महाविद्यालय के विद्यार्थी विनयशील बने रहें इसके लिये शिक्षक में प्रेम और आचारनिष्ठा के साथ साथ ज्ञाननिष्ठा भी आवश्यक होती है। शिक्षक में यदि ये तीन नहीं हैं तो युवा विद्यार्थियों का विनयशील होना कठिन हो जाता है।
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छः वर्ष हुई है। इसका कारण शैक्षिक नहीं है, भौतिकता का यह दृष्टिकोण विषयों के आकलन तक
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====== शिक्षक के ह्रदय में प्रेम, आचारनिष्ठा व ज्ञाननिष्ठा का अभाव ======
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आज का शिक्षाक्षेत्र का संकट हम समझ सकते हैं। शिक्षकों के हृदय में प्रेम, आचार निष्ठा और ज्ञाननिष्ठा का अभाव लगभग सार्वत्रिक बन गया है और वही विद्यार्थियों में उद्दण्डता बनकर प्रकट होता है।
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व्यवस्थागत है । शैक्षिक दृष्टि से तो औपचारिक शिक्षा पहुँचता है | aad a
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शिक्षक ऐसे गुणवान हों तब भी यदि विद्यार्थी अविनयशील हो तो वह दण्ड के पात्र हैं। कई कारणों से शिक्षक गुणवान होने पर भी विद्यार्थी विद्यार्थी के लक्षण से युक्त नहीं रहते । तब वे दण्ड के पात्र तो हैं ही, साथ ही पढने के भी अधिकारी नहीं रहते।
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प्रारम्भ करने की आयु सात वर्ष के बाद होनी चाहिये । उदाहरण के लिये आज विद्यालयों और वि
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विद्यालय परिसर के बाहर भी विद्यार्थी शिक्षक के प्रति विनयशील रहे यह अपेक्षित ही है। यदि नहीं रहता है तो उसके संस्कार और अध्ययन में ही कहीं कमी है ऐसा मान सकते हैं।
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परन्तु यह किसी के लिये छः वर्ष, किसी के लिये सात, .... में योग शारीरिक शिक्षा के अन्तर्गत रखा गया है । योग की
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अपना पुत्र या पुत्री अपने शिक्षक का सम्मान करे इसके संस्कार घर में मिलने चाहिये । अभिभावकों में भी शिक्षक के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिये । विनयशील व्यवहार तो होना ही चाहिये । आजकल अखबारों में अनेक प्रकार से शिक्षकों को उपालम्भ और उपदेश दिये जाते हैं, अधिकारी विद्यार्थियों के सामने ही शिक्षकों के साथ अविनयशील व्यवहार करते हैं, मातापिता घर में शिक्षक के सन्दर्भ में अविनयशील सम्भाषण करते हैं, सरकार विद्यार्थियों के पक्ष में होती है, न्यायालय में शिक्षक और विद्यार्थी समान माने जाते हैं - ऐसे अनेक कारणों से विद्यार्थी विनय छोडकर उद्दण्ड बन जाते हैं। वास्तव में पढने के लिये पात्रता प्राप्त करना और जब तक वह पात्रता प्राप्त नहीं करता तब तक उसे नहीं पढाना विद्यार्थी और शिक्षक का धर्म है। शिक्षक और विद्यार्थी के बीच अन्य अनेक व्यवस्थायें आ गई हैं इसलिये इस धर्म की भी अवज्ञा होने लगी है । परन्तु शिक्षाक्षेत्र में चिन्ता करने योग्य ये भी बातें हैं और पर्याप्त महत्त्व रखती हैं यह मानकर कुछ उपाय किये जाने चाहिये।
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किसी के लिये आठ वर्ष की भी हो सकती है । फिर... परिभाषा पातंजलयोगसूत्र में इस प्रकार दी गई है,
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====== २. शिक्षक और मुख्याध्यापक के आपसी व्यवहार में भी शिष्ट आचरण अपेक्षित है । ======
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विद्यालय मुख्याध्यापक का है और सारे शिक्षक तथा अन्य कर्मचारी उसके सहयोगी हैं यह व्यवस्था है। परन्तु सबको सहयोगी के स्थान पर सहभागी बनाना और मानना मुख्याध्यापक का काम है। मुख्याध्यापक का ज्ञान में, आचार में, निष्ठा में वरिष्ठ होना अपेक्षित है इसलिये शिक्षकों को केवल आज्ञा करने का ही नहीं तो मार्गदर्शन करने का भी अधिकार मुख्याध्यापक का है।
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किसे किस आयु में प्रवेश देना चाहिये यह व्यवस्था द्वारा... पोगशित्तवृत्तिनिरोधः अर्थात् चित्तवृत्यों के निरोध को योग
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शिक्षक मुख्याध्यापक को क्या सम्बोधन करें ?
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निश्चित दिनाँक को कैसे हो सकता है ? वह अभिभावकों... फेहते हैं । यहाँ चित्त अन्तःकरण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ।
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सामान्यतः आचार्यजी कहने का ही प्रचलन है। मुख्याध्यापक शिक्षकों को भी आचार्य कहकर ही सम्बोधित करते हैं।
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और शिक्षकों के विवेक के अनुसार होना चाहिये । इसका अर्थ यह है कि योग का सम्बन्ध शरीर से नहीं, अन्तःकरण
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शिक्षकों की बैठक में, सम्पूर्ण विद्यालय के कार्यक्रमों में मुख्याध्यापक का स्थान सबसे ऊपर होता है। उनके आने पर सब वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा शिक्षक के कक्षा में आने पर विद्यार्थी करते हैं। केवल शिक्षकों को मुख्याध्यापक के चरणस्पर्श करना अपेक्षित नहीं है।
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०... सबके लिए एक वर्ष में समान रूप से निश्चित पाठ्यक्रम... है । अर्थात् योग को या तो मनोविज्ञान के अथवा इसे
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अतिथि, अधिकारी, सन्त, महापुरुष विद्यालय में आते हैं तब मुख्याध्यापक ही परिवार के मुखिया के रूप में उनका स्वागत और सम्मान करते हैं।
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क्यों होना चाहिये ? यह तो मानवीय स्वाभाविकता है... थोगदर्शन कहें तो तत्त्वज्ञान के विभाग में समावेश होना
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अभिभावक, संचालक, निरीक्षक विद्यालय के
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कि सबकी आवश्यकता भिन्न होती है, रुचि भिन्न होती चाहिये । परन्तु आज योग को व्यायाम अथवा चिकित्सा मानकर
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है, गति और क्षमता भिन्न होती है । उसके अनुसार ही उसे शरीर से जोड़ते हैं । मनोविज्ञान को भारत में आत्मविज्ञान
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पाठ्यक्रम और पाठनपद्धति भिन्न भिन्न होनी चाहिये । .... फें प्रकाश में देखा जाता है, वर्तमान व्यवस्था में उसे भौतिक
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परन्तु वह व्यवस्था में नहीं बैठता इसलिये सब समान... स्तर पर उतार दिया गया है । ये तो गम्भीर बातें हैं । ये सम्पूर्ण
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किया जाता है । जीवन की दृष्टि ही बदल देती हैं ।
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०... निश्चित समय के कालांश, निश्चित प्रकार का पाठ्यक्रम
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यंत्र आधारित वर्तमान व्यवस्था
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योजना
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विभाजन, निश्चित प्रकार की परीक्षा पद्धति यान्त्रिकता sare ae 3
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का ही लक्षण है । वास्तव में भारतीय शिक्षा अध्यात्मनिष्ठ होनी चाहिये,
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०... सभी विषयों की समान परीक्षा पद्धति भी यान्त्रिकता का... पेर्तमान व्यवस्था उसे देहनिष्ठ बना देती है ।
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लक्षण है । सर्व प्रकार का मूल्यांकन अंकों में रूपान्तरित ऐसे अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं । इनका विवरण
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कर देना भी यान्त्रिक प्रक्रिया है । अधिक अधिक करने के स्थान पर इसका उपाय क्या करना
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०... यहाँ मौलिकता, विवेक, सृजनशीलता, भिन्न आकलन यही सोचना चाहिये ।
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आदि कुछ मान्य नहीं होता । जहाँ कल्पनाशक्ति, प्रश्न यह है कि इसका क्या किया जाय |
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दृष्टिकोण, स्वतन्त्र आकलन, विवेक के आभाव में... * सर्वप्रथम शिक्षकों को अधिक विश्वसनीय बनना चाहिये |
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aay और वादग्रस्त हो जाते हैं और धीरे धीरे इसका सारी समस्याओं की जड शिक्षक विश्वसनीय और दायित्व
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मूल्यांकन बन्द हो जाता है और जिन्हें 'ओब्जेक्टिव' को समझने वाले नहीं रहे यह है । a
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कहा जाता है ऐसे ही प्रश्न पूछकर परीक्षा ली जाती है। .. * विश्वसनीय और दायित्वबोध से युक्त होने के बाद शिक्षकों
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इसमें समझ की गहराई नहीं नापी जाती, जानकारी नापी को यान्त्रिकता यह प्रश्न a है, उसका स्वरूप कैसा
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जाती है । इस प्रकार यान्त्रिक होते होते बात पत्राचार है, उसके परिणाम कैसे हैं और भारतीय जीवनदृष्ट और
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पाठूक्रम, इ-लर्निंग आदि पर चली जाती है । यह यन्त्र भारतीय जनमानस के साथ यह कितना विसंगत है यह
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के अधीन होने की परिसीमा है । समझना होगा । यह शिशु से उच्चशिक्षा तक सर्वव्र व्याप्त
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०... सर्व प्रकार का मूल्यांकन अंकों में और सर्व प्रकार की प्रश्न है यह भी समझना होगा । अपने अपने स्तर पर
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योग्यता अथर्जिन में मानना यान्त्रिकता के अधीन ही इसके उपाय का विचार करना होगा ।
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