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===== शिक्षा का यूरोपीकरण =====
 
===== शिक्षा का यूरोपीकरण =====
पड़ती है । इस आयोग की रचना भी संसद ने पारित किये
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हुए कानून के तहत हुई है । विश्वविद्यालय आयोग के साथ
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और भी परिषदें हैं जो विभिन्न प्रकार की शिक्षासंस्थाओं को
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मान्यता देती हैं । ये सब सरकारी हैं । विश्वविद्यालय के
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कुलपति की नियुक्ति सरकार के परामर्श के साथ राज्यपाल
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या राष्ट्रपति करते हैं। राज्यपाल राज्य के सभी
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विश्वविद्यालयों के और राष्ट्रपति सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों
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के कुलाधिपति होते हैं । इसी प्रकार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड
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ब्रिटीशों ने भारतीय शिक्षा का यूरोपीकरण करना प्रारम्भ किया उसका एक अंग था शिक्षाक्षेत्र को सरकार के हस्तक करना । यह एक अआप्रत्याशित घटना थी । भारतीय मानस और भारतीय व्यवस्था में न बैठने वाली यह बात थी। परन्तु आर्थिक क्षेत्र में भारत ने इतनी अधिक मार खाई थी कि शिक्षाव्यवस्था के इस परिवर्तन का प्रतीकार करने का उसे होश नहीं था । या कहें कि भारत का भाग्य ही ऐसा था । परन्तु यह परिवर्तन अनेक संकटों की परम्परा का प्रारम्भ बना । आज भी उसका प्रभाव इतना अधिक है कि हम उसकी तीव्रता को समझ नहीं रहे हैं । उसे समझना शिक्षा को रोगमुक्त करने के लिये अत्यन्त आवश्यक है ।
 
ब्रिटीशों ने भारतीय शिक्षा का यूरोपीकरण करना प्रारम्भ किया उसका एक अंग था शिक्षाक्षेत्र को सरकार के हस्तक करना । यह एक अआप्रत्याशित घटना थी । भारतीय मानस और भारतीय व्यवस्था में न बैठने वाली यह बात थी। परन्तु आर्थिक क्षेत्र में भारत ने इतनी अधिक मार खाई थी कि शिक्षाव्यवस्था के इस परिवर्तन का प्रतीकार करने का उसे होश नहीं था । या कहें कि भारत का भाग्य ही ऐसा था । परन्तु यह परिवर्तन अनेक संकटों की परम्परा का प्रारम्भ बना । आज भी उसका प्रभाव इतना अधिक है कि हम उसकी तीव्रता को समझ नहीं रहे हैं । उसे समझना शिक्षा को रोगमुक्त करने के लिये अत्यन्त आवश्यक है ।
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===== शिक्षा अर्थ के अधीन =====
 
===== शिक्षा अर्थ के अधीन =====
ब्रिटीशों की जीवनदृष्टि अर्थनिष्ठ थी । अर्थनिष्ठता के
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ब्रिटीशों की जीवनदृष्टि अर्थनिष्ठ थी । अर्थनिष्ठता के कारन प्रजाजीवन की सारी व्यवस्था को बाजार का स्वरूप प्राप्त हुआ। आज शिक्षाक्षेत्र को यह आयाम भी चिपक गया है। अतः  शासन की नीतियां, प्रशासन के नियम और बाजार का व्यापारवाद तीनों मिलकर शिक्षा का नियमन कर रहे है। शासन मालिक है, प्रशासन नियंत्रक है और विद्यार्थी यदि छोटा है
    
भारत स्वाधीन तो हो गया परन्तु व्यवस्थायें सारी कारण प्रजाजीवन की सारी व्यवस्थाओं को बाजार का स्वरूप प्राप्त हुआ । आज शिक्षाक्षेत्र को यह आयाम भी चिपक गया है । अतः शासन की नीतियाँ, प्रशासन के नियम और बाजार का व्यापारवाद तीनों मिलकर शिक्षा का.नियमन कर रहे हैं । शासन मालिक है, प्रशासन नियन्त्रक है और विद्यार्थी यदि छोटा है तो उसके मातापिता और वयस्क है तो विद्यार्थी स्वयं ग्राहक है । इस तन्त्र में शिक्षक का स्थान कहाँ  है? वह शासक का नौकर है और विद्यार्थी के लिए विक्रयिक (सेल्समेन ) दूसरे का माल दूसरे को बेचने वाला है। इसका उसे वेतन मिलता है।  
 
भारत स्वाधीन तो हो गया परन्तु व्यवस्थायें सारी कारण प्रजाजीवन की सारी व्यवस्थाओं को बाजार का स्वरूप प्राप्त हुआ । आज शिक्षाक्षेत्र को यह आयाम भी चिपक गया है । अतः शासन की नीतियाँ, प्रशासन के नियम और बाजार का व्यापारवाद तीनों मिलकर शिक्षा का.नियमन कर रहे हैं । शासन मालिक है, प्रशासन नियन्त्रक है और विद्यार्थी यदि छोटा है तो उसके मातापिता और वयस्क है तो विद्यार्थी स्वयं ग्राहक है । इस तन्त्र में शिक्षक का स्थान कहाँ  है? वह शासक का नौकर है और विद्यार्थी के लिए विक्रयिक (सेल्समेन ) दूसरे का माल दूसरे को बेचने वाला है। इसका उसे वेतन मिलता है।  
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भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं थी शिक्षक को गुरु
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बाजारतन्त्र में ग्राहक की मर्जी सम्हालनी होती है। यह तो प्रकट व्यवहार है परन्तु प्रच्छन्न रूप से उत्पादक व्यापारी उसने जो बनाया है वह माल ग्राहकों को बेचना चाहता है। बेचने के लिये अनेक प्रकार के विज्ञापनों का सहारा लेता है । राजकीय पक्ष यही करते हैं अंग्रेज भारत में ऐसा ही करते थे। उनका शासन स्थिररूप से जमा रहे इस हेतु से भारत के लोगों का भला करने की भाषा बोलते हए शिक्षा के माध्यम से प्रजा को गुलाम और निवीर्य बनाते थे । स्वतन्त्र भारत की सरकारें भी ऐसा ही करती रही हैं ऐसा मानने में क्षोभ का अनुभव होता है तो भी यह सत्य है ऐसा मानना पडता है।
 
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कहा जाता रहा है । शिक्षक आचार्य रहा है विद्यार्थी का
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शिक्षा अर्थ के अधीन शिक्षक उसके परिवार का भी गुरु माना जाता रहा है । छोटे
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. ट्रस्टियों का नौकर कैसे रह सकता है ? नौकर रहकर वह
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लिये विक्रयिक (सेल्समेन) दूसरे का माल दूसरे को बेचने. शिक्षा कैसे दे सकता है ? इस स्वाभाविक प्रश्न से प्रेरित
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===== शिक्षा की सभी व्यवस्थाएँ वही की वही =====
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भारत स्वाधीन तो हो गया परन्तु व्यवस्थायें सारी ब्रिटीश तन्त्र की ही रहीं। इतने वर्षों के बाद हमें इसमें कुछ गलत या अनुचित नहीं लग रहा है। शिक्षा की व्यवस्था सरकार को ही करनी चाहिये ऐसा हमने स्वीकार कर लिया है। शिक्षक स्वयं विद्यालय कैसे चला सकता है यह प्रश्न अत्यन्त स्वाभाविक हो गया है। जिसका पैसा है उसी का स्वामित्व होता है यह बात भी हमें स्वाभाविक लगती है।
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भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं थी। शिक्षक को गुरु कहा जाता रहा है। शिक्षक आचार्य रहा है। विद्यार्थी का शिक्षक उसके परिवार का भी गुरु माना जाता रहा है। छोटे गाँवों में तो शिक्षक पूरे गाँव के लिये गुरुजी रहा है और वह गाँव का मार्गदर्शक रहा है । शिक्षक सबके लिये आदर का पात्र रहा है। शिक्षक ज्ञान देने वाला है। चरित्रनिर्माण करनेवाला है। जीवन बनानेवाला है। सबका भला करनेवाला है। शिक्षक धर्म सिखाता है।
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एक नौकर का कभी ऐसा सम्मान नहीं होता है। इसका अर्थ है शिक्षक कभी नौकरी करनेवाला नहीं रहा है। शिक्षक यदि धर्म सिखाता है तो वह राज्य का या ट्रस्टियों का नौकर कैसे रह सकता है ? नौकर रहकर वह शिक्षा कैसे दे सकता है ? इस स्वाभाविक प्रश्न से प्रेरित
    
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