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भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं थी। शिक्षक को गुरु कहा जाता रहा है। शिक्षक आचार्य रहा है। विद्यार्थी का शिक्षक उसके परिवार का भी गुरु माना जाता रहा है। छोटे गाँवों में तो शिक्षक पूरे गाँव के लिये गुरुजी रहा है और वह गाँव का मार्गदर्शक रहा है । शिक्षक सबके लिये आदर का पात्र रहा है। शिक्षक ज्ञान देने वाला है। चरित्रनिर्माण करनेवाला है। जीवन बनानेवाला है। सबका भला करनेवाला है। शिक्षक धर्म सिखाता है।  
 
भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं थी। शिक्षक को गुरु कहा जाता रहा है। शिक्षक आचार्य रहा है। विद्यार्थी का शिक्षक उसके परिवार का भी गुरु माना जाता रहा है। छोटे गाँवों में तो शिक्षक पूरे गाँव के लिये गुरुजी रहा है और वह गाँव का मार्गदर्शक रहा है । शिक्षक सबके लिये आदर का पात्र रहा है। शिक्षक ज्ञान देने वाला है। चरित्रनिर्माण करनेवाला है। जीवन बनानेवाला है। सबका भला करनेवाला है। शिक्षक धर्म सिखाता है।  
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एक नौकर का कभी ऐसा सम्मान नहीं होता है। इसका अर्थ है शिक्षक कभी नौकरी करनेवाला नहीं रहा है। शिक्षक यदि धर्म सिखाता है तो वह राज्य का या ट्रस्टियों का नौकर कैसे रह सकता है ? नौकर रहकर वह शिक्षा कैसे दे सकता है ? इस स्वाभाविक प्रश्न से प्रेरित
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एक नौकर का कभी ऐसा सम्मान नहीं होता है। इसका अर्थ है शिक्षक कभी नौकरी करनेवाला नहीं रहा है। शिक्षक यदि धर्म सिखाता है तो वह राज्य का या ट्रस्टियों का नौकर कैसे रह सकता है ? नौकर रहकर वह शिक्षा कैसे दे सकता है ? इस स्वाभाविक प्रश्न से प्रेरित होकर ही नियुक्त होनेवाला, गैरशिक्षक के द्वारा नियन्त्रित होनेवाला शिक्षक भारत में कभी नहीं रहा ।
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===== प्राचीनभारत में शिक्षा का स्वरूप =====
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तो फिर भारत में शिक्षा चलती कैसे थी ? छोटे गाँव में किसी ज्ञानवान व्यक्ति को लगता था कि मेरे गाँव के लोग अशिक्षित नहीं रहने चाहिये, मैं उन्हें शिक्षित बनाऊँगा, और वह विद्यालय शुरू करता था । गाँव का मुखिया किसी ज्ञानवान व्यक्ति को प्रार्थना करता था कि हमारे गाँव के बच्चे अनाडी नहीं रहने चाहिये, आप उन्हें ज्ञान दो, और वह व्यक्ति बिना किसी शर्त के विद्यालय शुरू करता था । वह अपने हिसाब से ही पढ़ाता था । विद्यालय कहाँ शुरू होता था ? अपने ही घर में शिक्षक विद्यालय शुरू करता था । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि भारत में सारे व्यवसाय व्यवसायियों के घरों में ही चलते थे । वे व्यवसाय गृहजीवन के ही अंग होते थे । यदि विद्यार्थियों की संख्या अधिक रही तो किसी वटवृक्ष के नीचे बठ जाते थे, कहीं मन्दिर के अहाते में बैठ जाते थे, कहीं किसी के बडे घर के आँगन में या बरामदे में बैठ जाते थे । गम्भीर से गम्भीर विषयों की शिक्षा भी बिना तामझाम के, बिना पैसे के हो जाती थी । विद्यार्थियों को पढ़ाने में शिक्षक का, उसे अपने घर का कमरा देने में उस घर के मालिक का, उसे गाँव के बच्चों को पढ़ाने की प्रार्थना करने वाले मुखिया का कोई अपना स्वार्थ नहीं था । शिक्षक किसी का नौकर नहीं था । पढने के लिये शुल्क नहीं देना पडता था फिर शिक्षक का निर्वाह कैसे चलता था ? उसकी व्यवस्था भी स्वाभाविक रूप से ही हो जाती थी । जब विद्यार्थी पहली बार पढने के लिये आता था तब कुछ न कुछ लेकर आता था । यह शुल्क नहीं था । कुछ न कुछ लाना अनिवार्य नहीं था । परन्तु देव, गुरु, पण्डित, राजा, बडा व्यक्ति, स्वजन के पास जाते समय खाली हाथ नहीं जाना यह भारत की परम्परा रही है । अतः विद्यार्थी कुछ न कुछ लेकर ही आता था । यह विद्यार्थी के घर्‌ की हैसियत के अनुरूप होता था । गरीब कम और अमीर अधिक मात्रा में लाता था | यह पैसे के रूप में न होकर अनाज, वस्त्र, गाय आदि के रूप में होता था ।
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
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शिक्षक पूरे गाँव के लिये सम्माननीय था । घर के विवाहादि अवसरों पर शिक्षक का सम्मान किया जाता था और वस्त्र, अलंकार जैसी भौतिक वस्तु के रूप में यह सम्मान होता था । उसे भोजन के लिये भी बुलाया जाता था । विद्यार्थी जब अध्ययन पूर्ण करता था तब गुरुदक्षिणा देता था । यह भी उसके घर की हैसियत से ही होती थी । संक्षेप में गाँव के बच्चों को ज्ञान देने वाले को गाँव कभी भी दृरिद्र और बेचारा नहीं रहने देता था ।
 
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होकर ही नियुक्त होनेवाला, गैरशिक्षक के द्वारा नियन्त्रित
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होनेवाला शिक्षक भारत में कभी नहीं रहा ।
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प्राचीनभारत में शिक्षा का स्वरूप
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तो फिर भारत में शिक्षा चलती कैसे थी ? छोटे गाँव में
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किसी ज्ञानवान व्यक्ति को लगता था कि मेरे गाँव के लोग
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अशिक्षित नहीं रहने चाहिये, मैं उन्हें शिक्षित बनाऊँगा, और
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वह विद्यालय शुरू करता था । गाँव का मुखिया किसी
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ज्ञानवान व्यक्ति को प्रार्थना करता था कि हमारे गाँव के बच्चे
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अनाडी नहीं रहने चाहिये, आप उन्हें ज्ञान दो, और वह
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व्यक्ति बिना किसी शर्त के विद्यालय शुरू करता था । वह
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अपने हिसाब से ही पढ़ाता था । विद्यालय कहाँ शुरू होता
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था ? अपने ही घर में शिक्षक विद्यालय शुरू करता था । यह
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कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि भारत में सारे व्यवसाय
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व्यवसायियों के घरों में ही चलते थे । वे व्यवसाय गृहजीवन
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के ही अंग होते थे । यदि विद्यार्थियों की संख्या अधिक रही
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तो किसी वटवृक्ष के नीचे बठ जाते थे, कहीं मन्दिर के अहाते
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में बैठ जाते थे, कहीं किसी के बडे घर के आँगन में या
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बरामदे में बैठ जाते थे । गम्भीर से गम्भीर विषयों की शिक्षा
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भी बिना तामझाम के, बिना पैसे के हो जाती थी । विद्यार्थियों
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को पढ़ाने में शिक्षक का, उसे अपने घर का कमरा देने में उस
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घर के मालिक का, उसे गाँव के बच्चों को पढ़ाने की प्रार्थना
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करने वाले मुखिया का कोई अपना स्वार्थ नहीं था । शिक्षक
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किसी का नौकर नहीं था । पढने के लिये शुल्क नहीं देना
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पडता था फिर शिक्षक का निर्वाह कैसे चलता था ? उसकी
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व्यवस्था भी स्वाभाविक रूप से ही हो जाती थी । जब
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विद्यार्थी पहली बार पढने के लिये आता था तब कुछ न कुछ
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लेकर आता था । यह शुल्क नहीं था । कुछ न कुछ लाना
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अनिवार्य नहीं था । परन्तु देव, गुरु, पण्डित, राजा, बडा
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व्यक्ति, स्वजन के पास जाते समय खाली हाथ नहीं जाना यह
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भारत की परम्परा रही है । अतः विद्यार्थी कुछ न कुछ लेकर
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ही आता था । यह विद्यार्थी के घर्‌ की हैसियत के अनुरूप
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होता था । गरीब कम और अमीर अधिक मात्रा में लाता था |
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शिक्षक पूरे गाँव के लिये
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सम्माननीय था । घर के विवाहादि अवसरों पर शिक्षक का
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सम्मान किया जाता था और वस्त्र, अलंकार जैसी भौतिक
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वस्तु के रूप में यह सम्मान होता था । उसे भोजन के लिये
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भी बुलाया जाता था । विद्यार्थी जब अध्ययन पूर्ण करता
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था तब गुरुदक्षिणा देता था । यह भी उसके घर की हैसियत
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से ही होती थी । संक्षेप में गाँव के बच्चों को ज्ञान देने वाले
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को गाँव कभी भी दृरिद्र और बेचारा नहीं रहने देता था ।
      
यह भारत का स्वभाव ही रहा है । परिवार-भावना से
 
यह भारत का स्वभाव ही रहा है । परिवार-भावना से
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