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आज शिक्षाक्षेत्र सरकार के अधीन है । विश्वविद्यालय शुरू करना है तो उसका कानून संसद में अथवा राज्य की विधानसभा में पारित होता है। उसमें कानून पारित हुए बिना विश्वविद्यालय बन ही नहीं सकता । उसके बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से उसे मान्यता प्राप्त करनी पड़ती है । इस आयोग की रचना भी संसद ने पारित किये हुए कानून के तहत हुई है । विश्वविद्यालय आयोग के साथ और भी परिषदें हैं जो विभिन्न प्रकार की शिक्षासंस्थाओं को मान्यता देती है। ये सब सरकारी है।  विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति सर्कार के परामर्श के साथ राज्यपाल या राष्ट्रपति करते है।  राज्यपाल राज्य के सभी विश्वविद्यालयों के और राष्ट्रपति सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते है। इसी प्रकार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड भी सरकार द्वारा की गई रचना ही होती है। प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति भी बैसी ही है । राज्य और केन्द्र के शिक्षामन्त्री और शिक्षासचिव नीति और प्रशासन के क्षेत्र में सर्वोच्च होते हैं और वे शिक्षक हों यह आवश्यक नहीं होता । इसके अलावा आयुक्त और निदेशक भी सरकारी ही होते हैं । आयुक्त का शिक्षक होना आवश्यक नहीं, निदेशक शिक्षक होता हैं । अर्थात्‌ शिक्षाविषयक नीतियाँ और शिक्षा का प्रशासन शिक्षक नहीं ऐसे लोगों के हाथो में ही है | यह खास ब्रिटिश व्यवस्था है, या कहें कि यह पश्चिम की सोच है।
 
आज शिक्षाक्षेत्र सरकार के अधीन है । विश्वविद्यालय शुरू करना है तो उसका कानून संसद में अथवा राज्य की विधानसभा में पारित होता है। उसमें कानून पारित हुए बिना विश्वविद्यालय बन ही नहीं सकता । उसके बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से उसे मान्यता प्राप्त करनी पड़ती है । इस आयोग की रचना भी संसद ने पारित किये हुए कानून के तहत हुई है । विश्वविद्यालय आयोग के साथ और भी परिषदें हैं जो विभिन्न प्रकार की शिक्षासंस्थाओं को मान्यता देती है। ये सब सरकारी है।  विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति सर्कार के परामर्श के साथ राज्यपाल या राष्ट्रपति करते है।  राज्यपाल राज्य के सभी विश्वविद्यालयों के और राष्ट्रपति सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते है। इसी प्रकार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड भी सरकार द्वारा की गई रचना ही होती है। प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति भी बैसी ही है । राज्य और केन्द्र के शिक्षामन्त्री और शिक्षासचिव नीति और प्रशासन के क्षेत्र में सर्वोच्च होते हैं और वे शिक्षक हों यह आवश्यक नहीं होता । इसके अलावा आयुक्त और निदेशक भी सरकारी ही होते हैं । आयुक्त का शिक्षक होना आवश्यक नहीं, निदेशक शिक्षक होता हैं । अर्थात्‌ शिक्षाविषयक नीतियाँ और शिक्षा का प्रशासन शिक्षक नहीं ऐसे लोगों के हाथो में ही है | यह खास ब्रिटिश व्यवस्था है, या कहें कि यह पश्चिम की सोच है।
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देश के लिये आवश्यक मात्रा में शिक्षा की व्यवस्था करना किसी भी सरकार के बस की. बात नहीं है इसलिये दो प्रकार की व्यवस्था है । समाज के कुछ सेवाभावी सज्जन विद्यालय शुरू करने के इच्छुक होते  हैं । भारत में तो शिक्षा की सेवा करना पुण्य का काम माना गया है। इन सज्जनों को संस्था बनानी होती है जो सोसायटी अथवा ट्रस्ट कहा जाता है, उसे सोसायटी और  
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देश के लिये आवश्यक मात्रा में शिक्षा की व्यवस्था करना किसी भी सरकार के बस की बात नहीं है इसलिये दो प्रकार की व्यवस्था है । समाज के कुछ सेवाभावी सज्जन विद्यालय शुरू करने के इच्छुक होते  हैं । भारत में तो शिक्षा की सेवा करना पुण्य का काम माना गया है। इन सज्जनों को संस्था बनानी होती है जो सोसायटी अथवा ट्रस्ट कहा जाता है, उसे सोसायटी और ट्रस्ट के लिये कानून के अन्तर्गत पंजीकृत करवाना होता है,  उसकी शर्तों के अनुसार भवन तथा अन्य भौतिक सुविधायें जुटानी होती हैं । सरकार शिक्षकों का वेतन अनुदान के रूप में देती है, शेष व्यय ट्रस्ट को करनी पड़ती है । सरकार और ट्रस्टी मिलकर शिक्षकों का चयन और नियुक्ति करते हैं । दूसरा एक प्रकार होता है जिसमें सरकार शिक्षकों के वेतन के लिये भी अनुदान नहीं देती । विद्यार्थियों से शुल्क लिया जाता है, उसमें से शिक्षकों को वेतन दिया जाता है । भवन आदि अन्य आवश्यकताओं के लिये समाज का सहयोग लिया जाता है । ट्रस्टियों की सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर और शिक्षा के लिये दान देना चाहिये ऐसी मानसिकता.के कारण विद्यालय हेतु दान मिलता है। 
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विद्यालयों का शिक्षाक्रम सरकार ट्रारा इस काम के लिये नियुक्त संस्थाओं द्वारा बने हुए पाठ्यक्रमों, पाठ्यपुस्तकों , निर्देशों तथा परीक्षातन्त्र के नियमन में चलता.है। शासन की नीति और प्रशासन के नियमों के अधीन होकर देश की शिक्षा चल रही है ।
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ट्रस्ट के लिये कानून के अन्तर्गत पंजीकृत करवाना होता है, . में ऐसा ही करते थे । उनका शासन स्थिररूप से जमा रहे
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===== शिक्षा अर्थ के अधीन =====
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ब्रिटीशों की जीवनदृष्टि अर्थनिष्ठ थी । अर्थनिष्ठता के
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उसकी शर्तों के अनुसार भवन तथा अन्य भौतिक सुविधायें.. इस हेतु से भारत के लोगों का भला करने की भाषा बोलते
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भारत स्वाधीन तो हो गया परन्तु व्यवस्थायें सारी कारण प्रजाजीवन की सारी व्यवस्थाओं को बाजार का स्वरूप प्राप्त हुआ । आज शिक्षाक्षेत्र को यह आयाम भी चिपक गया है । अतः शासन की नीतियाँ, प्रशासन के नियम और बाजार का व्यापारवाद तीनों मिलकर शिक्षा का.नियमन कर रहे हैं । शासन मालिक है, प्रशासन नियन्त्रक है और विद्यार्थी यदि छोटा है तो उसके मातापिता और वयस्क है तो विद्यार्थी स्वयं ग्राहक है । इस तन्त्र में शिक्षक का स्थान कहाँ  है? वह शासक का नौकर है और विद्यार्थी के लिए विक्रयिक (सेल्समेन ) दूसरे का माल दूसरे को बेचने वाला है। इसका उसे वेतन मिलता है।
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जुटानी होती हैं । सरकार शिक्षकों का वेतन अनुदान के रूप... हुए शिक्षा के माध्यम से प्रजा को गुलाम और निवीर्य बनाते
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भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं थी । शिक्षक को गुरु
 
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में देती है, शेष व्यय ट्रस्ट को करनी पड़ती है । सरकार और थे । स्वतन्त्र भारत की सरकारें भी ऐसा ही करती रही हैं
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ट्रस्टी मिलकर शिक्षकों का चयन और नियुक्ति करते हैं ।.. ऐसा मानने में क्षोभ का अनुभव होता है तो भी यह सत्य है
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दूसरा एक प्रकार होता है जिसमें सरकार शिक्षकों के वेतन... ऐसा मानना पड़ता है ।
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के लिये भी अनुदान नहीं देती । विद्यार्थियों से शुल्क लिया
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जाता है, उसमें से शिक्षकों को वेतन दिया जाता है । भवन शिक्षा की सभी व्यवस्थाएँ वही की वही
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आदि अन्य आवश्यकताओं के लिये समाज का सहयोग भारत स्वाधीन तो हो गया परन्तु व्यवस्थायें सारी
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लिया जाता है । ट्रस्टियों की सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार... ब्रिटीश तन्त्र की ही रहीं । इतने वर्षों के बाद हमें इसमें
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पर और शिक्षा के लिये दान देना चाहिये ऐसी मानसिकता... कुछ गलत या अनुचित नहीं लग रहा है । शिक्षा की
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के कारण विद्यालय हेतु दान मिलता है । व्यवस्था सरकार को ही करनी चाहिये ऐसा हमने स्वीकार
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विद्यालयों का शिक्षाक्रम सरकार ट्रारा इस काम के... कर लिया है । शिक्षक स्वयं विद्यालय कैसे चला सकता
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लिये नियुक्त संस्थाओं द्वारा बने हुए पाठ्यक्रमों, है यह प्रश्न अत्यन्त स्वाभाविक हो गया है । जिसका पैसा
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पाठ्यपुस्तकों , निर्देशों तथा परीक्षातन्त्र के नियमन में चलता. है उसी का स्वामित्व होता है यह बात भी हमें
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है। शासन की नीति और प्रशासन के नियमों के अधीन... स्वाभाविक लगती है ।
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होकर देश की शिक्षा चल रही है । भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं थी । शिक्षक को गुरु
      
कहा जाता रहा है । शिक्षक आचार्य रहा है । विद्यार्थी का
 
कहा जाता रहा है । शिक्षक आचार्य रहा है । विद्यार्थी का
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शिक्षा अर्थ के अधीन शिक्षक उसके परिवार का भी गुरु माना जाता रहा है । छोटे
 
शिक्षा अर्थ के अधीन शिक्षक उसके परिवार का भी गुरु माना जाता रहा है । छोटे
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ब्रिटीशों की जीवनदृष्टि अर्थनिष्ठ थी । अर्थनिष्ठता के... गाँवों में तो शिक्षक पूरे गाँव के लिये गुरुजी रहा है और वह
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. ट्रस्टियों का नौकर कैसे रह सकता है ? नौकर रहकर वह
 
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कारण प्रजाजीवन की सारी व्यवस्थाओं को बाजार का... गाँव का मार्गदर्शक रहा है । शिक्षक सबके लिये आदर का
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स्वरूप प्राप्त हुआ । आज शिक्षाक्षेत्र को यह आयाम भी... पात्र रहा है। शिक्षक ज्ञान देने वाला है। चरित्रनिर्माण
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चिपक गया है । अतः शासन की नीतियाँ, प्रशासन के... करनेवाला है। जीवन बनानेवाला है। सबका भला
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नियम और बाजार का व्यापारवाद तीनों मिलकर शिक्षा का... करनेवाला है । शिक्षक धर्म सिखाता है ।
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नियमन कर रहे हैं । शासन मालिक है, प्रशासन नियन्त्रक है एक नौकर का कभी ऐसा सम्मान नहीं होता है।
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और विद्यार्थी यदि छोटा है तो उसके मातापिता और वयस्क. इसका अर्थ है शिक्षक कभी नौकरी करनेवाला नहीं रहा
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है तो विद्यार्थी स्वयं ग्राहक है । इस तन्त्र में शिक्षक का... है । शिक्षक यदि धर्म सिखाता है तो वह राज्य का या
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स्थान कहाँ है ? वह शासक का नौकर है और विद्यार्थी के. ट्रस्टियों का नौकर कैसे रह सकता है ? नौकर रहकर वह
      
लिये विक्रयिक (सेल्समेन) दूसरे का माल दूसरे को बेचने. शिक्षा कैसे दे सकता है ? इस स्वाभाविक प्रश्न से प्रेरित
 
लिये विक्रयिक (सेल्समेन) दूसरे का माल दूसरे को बेचने. शिक्षा कैसे दे सकता है ? इस स्वाभाविक प्रश्न से प्रेरित
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