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==== बेचारा शिक्षक ! ====
 
==== बेचारा शिक्षक ! ====
भारतीय शिक्षा शिक्षकाधीन होती है । जैसा शिक्षक
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भारतीय शिक्षा शिक्षकाधीन होती है । जैसा शिक्षक वैसी शिक्षा ऐसा बारबार कहा जाता है । वर्तमान समय में ऐसा है भी और नहीं भी । जैसा शिक्षक वैसी शिक्षा का सूत्र आज भी चरितार्थ होता दिखाई दे रहा है । परन्तु शिक्षा शिक्षकाधीन नहीं है ।
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वैसी शिक्षा ऐसा बारबार कहा जाता है । वर्तमान समय में
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विगत दो सौ वर्षों में शिक्षक गुरू से शिक्षाकर्मी बन गया है । शिक्षक की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई है। शिक्षक सामाजिक प्रतिष्ठा खो चुका है । शिक्षक बेचारा बन गया है । इसलिये कोई शिक्षक बनना नहीं चाहता । जो और कुछ नहीं बन सकता वह शिक्षक बनता है । ऐसे शिक्षक शिक्षक के पद की और शिक्षाक्षेत्र की प्रतिष्ठा और कम कर देते हैं ।
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ऐसा है भी और नहीं भी जैसा शिक्षक वैसी शिक्षा का
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जिस प्रकार शिक्षक की सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं है उसी प्रकार उसकी शैक्षिक प्रतिष्ठा भी नहीं है । उसे केवल पढ़ाना है, पढ़ाने सम्बन्धी निर्णय उसे नहीं करने है
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सूत्र आज भी चरितार्थ होता दिखाई दे रहा है । परन्तु शिक्षा
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उसके विद्यार्थी कौन होंगे वह नहीं जानता । कोई और उसे विद्यार्थी देता है । पढाने के लिये पाठ्यक्रम कोई और देता है । परीक्षा कोई और लेता है । प्रमाणपत्र कोई और देता है । विद्यार्थी का शुल्क कोई और लेता है और उसे वेतन देने वाला कोई और है । उसे बैठने के लिये कुर्सी चाहिये वह भी कोई और देता है । पढ़ाने के लिये स्थान किसी और ने निश्चित किया है। वह कुर्सी पर बैठकर पढायेगा या नीचे बैठकर इसका निर्णय भी कोई और करता है । उसने खडे होकर ही पढाना है, बैठना नहीं है यह भी कोई और तय करता है । कुर्सी होगी तो उस पर बैठने का प्रमाद वह करेगा ऐसा सोचकर उसकी कुर्सी हटा दी जाती है किसी ओर के द्वारा
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शिक्षकाधीन नहीं है ।
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अर्थात्‌ उसे केवल “'पढाना' ही है, और कुछ नहीं करना है ।
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विगत दो सौ वर्षों में शिक्षक गुरू से शिक्षाकर्मी बन
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==== जड की नहीं चेतन की प्रतिष्ठा हो ====
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परन्तु वह केवल उसका दोष नहीं है । दो सौ वर्षों में भारत में जीवनव्यवस्था में जो परिवर्तन हुआ है उसका सबसे अधिक विनाशक परिणामकारी पहलू यह है कि हमने मनुष्य के स्थान पर उत्पादन के क्षेत्र में यन्त्र को और व्यवस्था के क्षेत्र में तन्त्र को प्रतिष्ठित कर दिया । दोनों निर्मनुष्य हैं । इसका अर्थ यह है कि मनुष्य के अन्तःकरण के जो गुण होते हैं वे यन्त्र में और तन्त्र में दिखाई नहीं देते, अर्थात्‌ ये दोनों दया, करुणा, अनुकम्पा, समझ, विवेक आदि से संचालित नहीं हो सकते । यहाँ देशकाल परिस्थिति के अनुसार नहीं चला जाता है, 'नियम' से चला जाता है । दोनों जड हैं और चेतन मनुष्य को नियमन और नियन्त्रण में रखते हैं । स्वाधीनता से पूर्व, अंग्रेजों का नियन्त्रण था, अब तन्त्र और यन्त्र का है । पराधीनता आज भी है ।
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गया है । शिक्षक की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई है।
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इस तन्त्र ने केवल शिक्षा को ही नहीं, जीवन के सभी पहलुओं का ग्रास कर लिया है । इसके चलते आज जो सबसे बडी कठिनाई पैदा हुई है वह यह है कि मनुष्य. का मन मर गया है, बुद्धि दब गई है । न उसे पराधीनता से मुक्त होने की इच्छा है, न उसे मुक्त कैसे हुआ जा सकता है इसकी समझ है । उसने सब कुछ स्वीकार कर लिया है ।
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शिक्षक सामाजिक प्रतिष्ठा खो चुका है । शिक्षक बेचारा बन
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उपचार तो इस मूल रोग का करना है अर्थात्‌ जड के स्थान पर चेतन की प्रतिष्ठा करना है ।  
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गया है । इसलिये कोई शिक्षक बनना नहीं चाहता जो
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भारतीय शिक्षा को यदि पुन:प्रतिष्ठित करना है तो शिक्षक को प्रतिष्ठित करना होगा। उसे प्रतिष्ठित करने हेतु उसके मन को पुनर्जीवित करना होगा और बुद्धि को सक्रिय करना होगा उसके मन और बुद्धि, काम करने लगेंगे तो शेष सारी व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन आयेगा
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और कुछ नहीं बन सकता वह शिक्षक बनता है । ऐसे
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==== शिक्षक के मन को पुनर्जीवित करना ====
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शिक्षक का मन मर गया है इसके लक्षण कौन से हैं ? वह अब कहने लगा है कि...
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शिक्षक शिक्षक के पद की और शिक्षाक्षेत्र की प्रतिष्ठा और
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अब इस तंत्र में कुछ नहीं हो सकता । प्राथमिक.विद्यालय का शिक्षक भी यह कहता है और विश्व-विद्यालय का भी । विद्वान भी कहते हैं और बुद्धिमान भी।
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कम कर देते हैं
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०... हमारे करने से क्या होने वाला है ? सरकार जब तक. कुछ नहीं करती तब तक कुछ नहीं हो सकता । सब कुछ सरकार के ही हाथ में है ।  
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जिस प्रकार शिक्षक की सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं है
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... मुझे क्या पडी है कि मैं कुछ करूँ ? बडे बडे नहीं करते तो मुझे क्यों कहा जाता है कि कुछ करो ?
 
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उसी प्रकार उसकी शैक्षिक प्रतिष्ठा भी नहीं है । उसे केवल
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पढ़ाना है, पढ़ाने सम्बन्धी निर्णय उसे नहीं करने है ।
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उसके विद्यार्थी कौन होंगे वह नहीं जानता । कोई
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और उसे विद्यार्थी देता है । पढाने के लिये पाठ्यक्रम कोई
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और देता है । परीक्षा कोई और लेता है । प्रमाणपत्र कोई
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और देता है । विद्यार्थी का शुल्क कोई और लेता है और
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उसे वेतन देने वाला कोई और है । उसे बैठने के लिये कुर्सी
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चाहिये वह भी कोई और देता है । पढ़ाने के लिये स्थान
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किसी और ने निश्चित किया है। वह कुर्सी पर बैठकर
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पढायेगा या नीचे बैठकर इसका निर्णय भी कोई और करता
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है । उसने खडे होकर ही पढाना है, बैठना नहीं है यह भी
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कोई और तय करता है । कुर्सी होगी तो उस पर बैठने का
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प्रमाद वह करेगा ऐसा सोचकर उसकी कुर्सी हटा दी जाती है
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किसी ओर के द्वारा
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अर्थात्‌ उसे केवल “'पढाना' ही है, और कुछ नहीं
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करना है ।
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जड की नहीं चेतन की प्रतिष्ठा हो
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परन्तु वह केवल उसका दोष नहीं है । दो सौ वर्षों में
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भारत में जीवनव्यवस्था में जो परिवर्तन हुआ है उसका
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सबसे अधिक विनाशक परिणामकारी पहलू यह है कि हमने
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मनुष्य के स्थान पर उत्पादन के क्षेत्र में यन्त्र को और
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
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व्यवस्था के क्षेत्र में तन्त्र को प्रतिष्ठित कर दिया । दोनों अपना काम पढ़ाने का है, और
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निर्मनुष्य हैं । इसका अर्थ यह है कि मनुष्य के अन्तःकरण किसी झंझट में vet की क्या आवश्यकता है ?
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के जो गुण होते हैं वे यन्त्र में और तन्त्र में दिखाई नहीं देते, चरित्रनिर्माण, प्रामाणिकता आदि सब पुरानी बातें हो
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अर्थात्‌ ये दोनों दया, करुणा, अनुकम्पा, समझ, विवेक गई । आज यह सब नहीं चलता । आज भलाई का
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आदि से संचालित नहीं हो सकते । यहाँ देशकाल परिस्थिति जमाना नहीं है। कुछ करने जाओ तो स्वयं ही
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के अनुसार नहीं चला जाता है, 'नियम' से चला जाता है । परेशानी में पड जायेंगे ।
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दोनों जड हैं और चेतन मनुष्य को नियमन और नियन्त्रण में... *.. विद्यार्थी सुनते नहीं, अभिभावकों को पडी नहीं है,
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रखते हैं । स्वाधीनता से पूर्व, अंग्रेजों का नियन्त्रण था, अब कुछ भले के लिये करो तो उल्टी शिकायत कर देते
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तन्त्र और यन्त्र का है । पराधीनता आज भी है । हैं, संचालक डाँटते हैं अथवा कार्यवाही करते हैं । तो
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इस तन्त्र ने केवल शिक्षा को ही नहीं, जीवन के फिर कुछ भी करने की क्या आवश्यकता है ? अपना
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सभी पहलुओं का ग्रास कर लिया है । इसके चलते आज वेतन लो, पाठ्यक्रम पूरा करो और मौज करो ।
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जो सबसे बडी कठिनाई पैदा हुई है वह यह है कि मनुष्य... *... सारी अपेक्षा शिक्षक से ही क्यों की जाती है ? और
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का मन मर गया है, बुद्धि दब गई है । न उसे पराधीनता से लोग भी तो अपना काम ठीक नहीं करते । उनसे
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मुक्त होने की इच्छा है, न उसे मुक्त कैसे हुआ जा सकता है जाकर कहो । पहले इन राजनीति वालों को ठीक
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इसकी समझ है । उसने सब कुछ स्वीकार कर लिया है । करो । अर्थात्‌ उसने पराधीनता का स्वीकार कर लिया
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उपचार तो इस मूल रोग का करना है अर्थात्‌ जड के और जान लिया की स्वाधीन और स्वतन्त्र नहीं हुआ
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स्थान पर चेतन की प्रतिष्ठा करना है । जा सकता तो वह बेपरवाह भी हो गया । प्रयास
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भारतीय शिक्षा को यदि पुनः्प्रतिष्ठित करना है तो करना छोड दिया और जैसा रखा जाता है वैसा रहने
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शिक्षक को प्रतिष्ठित करना होगा । उसे प्रतिष्ठित करने हेतु लगा । दुनिया ऐसी ही है, जीवन ऐसा ही है, अब
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उसके मन को पुनर्जीवित करना होगा और बुद्धि को सक्रिय किसी के लिये कुछ करने की आवश्यकता नहीं,
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करना होगा । उसके मन और बुद्धि, काम करने लगेंगे तो अपने में रहो, अपने से रहो ।
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शेष सारी व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन आयेगा । ऐसी स्थिति में उसका मन अब स्वतन्त्रता की नहीं,
      
उपभोग की ही चाह रखता है और बुद्धि किसीकी भलाई के
 
उपभोग की ही चाह रखता है और बुद्धि किसीकी भलाई के
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शिक्षक के मन को पुनर्जीवित करना लिये नहीं, अपनी ही “भलाई' के लिये प्रयुक्त होती है ।
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लिये नहीं, अपनी ही “भलाई' के लिये प्रयुक्त होती है ।
 
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शिक्षक का मन मर गया है इसके लक्षण कौन से शिक्षा को शिक्षकाधीन बनाने हेतु प्रथम तो शिक्षक
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हैं ? वह अब कहने लगा है कि के मरे हुए मन को जीवन्त करना होगा और निष्क्रिय बुद्धि
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०". sa gi dad pe नहीं हो सकता । प्राथमिक. को सक्रिय बनानी होगी ।
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विद्यालय का शिक्षक भी यह कहता है और विश्व-
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विद्यालय का भी । विद्वान भी कहते हैं और बुद्धिमान शिक्षक प्रबोधन के बिन्दु व चरण
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शिक्षा को शिक्षकाधीन बनाने हेतु प्रथम तो शिक्षक
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भी | मरे हुए मन को जीवन्त बनाने का काम कठिन है ।
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के मरे हुए मन को जीवन्त करना होगा और निष्क्रिय बुद्धि
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०... हमारे करने से क्या होने वाला है ? सरकार जब तक. अपमान, अवहेलना, उपेक्षा, निर्धनता, आत्मग्लानि आदि
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अपमान, अवहेलना, उपेक्षा, निर्धनता, आत्मग्लानि आदि
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कुछ नहीं करती तब तक कुछ नहीं हो सकता । सब भावों ने उसे जकड लिया है । आज उसके व्यवहार में
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भावों ने उसे जकड लिया है । आज उसके व्यवहार में
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कुछ सरकार के ही हाथ में है । जडता, निष्ठा का अभाव, काम की उपेक्षा, बेपरवाही,
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जडता, निष्ठा का अभाव, काम की उपेक्षा, बेपरवाही,
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०... मुझे क्या पडी है कि मैं कुछ करूँ ? बडे बडे नहीं... स्वार्थ, लालच, बिकाऊपन दिखाई देता है परन्तु इस
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... स्वार्थ, लालच, बिकाऊपन दिखाई देता है परन्तु इस
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करते तो मुझे क्यों कहा जाता है कि कुछ करो ? व्यवहार के पीछे उसकी पूर्व में बताई ऐसी मानसिकता है ।
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व्यवहार के पीछे उसकी पूर्व में बताई ऐसी मानसिकता है ।
    
 
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