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==== शिक्षकों का दायित्व ====
==== शिक्षकों का दायित्व ====
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मातापिता के साथ साथ विद्यार्थियों का भविष्य
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मातापिता के साथ साथ विद्यार्थियों का भविष्य उज्ज्वल बनाने का दायित्व शिक्षकों का भी है । वे अपने दायित्व को नकार नहीं सकते । सारे संकट शिक्षकों ने दायित्व लिया नहीं है इस कारण से ही निर्माण हुए हैं ।
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उज्ज्वल बनाने का दायित्व शिक्षकों का भी है । वे अपने
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==== शिक्षकों को क्या करना चाहिये ? ====
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1. सर्वप्रथम शिक्षकों को विषय के शिक्षक के साथ साथ विद्यार्थियों के शिक्षक बनना चाहिये । विद्यार्थी का शिक्षक विद्यार्थी के कल्याण की कामना करता है, उनके गुणदोष जानता है, उनकी क्षमताओं को पहचानता है, उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि को जानता है और उनकी भविष्य की सम्भावनाओं का ठोस विचार करता है ।
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दायित्व को नकार नहीं सकते । सारे संकट शिक्षकों ने
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2. शिक्षक ने विद्यार्थियों को अपने भविष्य की कल्पना करना सिखाना चाहिये, कल्पनाओं को साकार कैसे किया जाता है इस पर विचार करना सिखाना चाहिये, अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं और स्वप्नों को वास्तविकता के निकष पर कसना सिखाना चाहिये, सामर्थ्य कैसे बढाया जाय यह भी सिखाना चाहिये ।
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दायित्व लिया नहीं है इस कारण से ही निर्माण हुए हैं ।
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3. विद्यार्थी के जीवनविकास के सन्दर्भ में उसके मातापिता के साथ भी आत्मीय सम्पर्क बनाना चाहिये । कोई भी योजना दोनों को मिलकर बनानी चाहिये ।
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शिक्षकों को क्या करना चाहिये ?
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4. शिक्षकों को विद्यार्थी के शिक्षक बनने के साथ साथ राष्ट्रीय शिक्षक भी बनना चाहिये । राष्ट्रीय शिक्षक राष्ट्र के सन्दर्भ में विचार करता है और अपने विद्यार्थी राष्ट्र के लिये किस प्रकार उपयोगी होंगे इसका चिन्तन करते हैं । व्यवहारजीवन में अधथर्जिन के लिये व्यवसाय का चयन कते समय जिस प्रकार विद्यार्थीकी रुचि, क्षमता, आवश्यकता और अनुकूलता का विचार करना होता है उसी प्रकार राष्ट्र की आवश्यकताओं का भी विचार करना होता है । यह बात शिक्षक ही विद्यार्थियों के हृदय और मस्तिष्क में प्रस्थापित करता है । व्यक्ति का आर्थिक विकास समाज के आर्थिक विकास के अविरोधी क्यों होना चाहिये और वह कैसे होता है इसकी समझ शिक्षक ही विद्यार्थियों को देता है। शिक्षक मातापिता से भी बढकर होता है क्योंकि वह विद्यार्थियों के अन्तःकरण को उदार बनाता है और बुद्धि को तेजस्वी और विशाल बनाता है।
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१... सर्वप्रथम शिक्षकों को विषय के शिक्षक के साथ साथ
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5. समाज समृद्ध और सुसंस्कृत कैसे बनता है इसकी दृष्टि विद्यार्थी को देना और उसमें विद्यार्थी कैसे योगदान दे सकता है इसका मार्गदर्शन भी शिक्षक ही विद्यार्थी को देता है ।
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6. प्राथमिक, माध्यमिक. और महाविद्यालयों को विद्यार्थियों और समाज को व्यावहारिक रूप में जोडना चाहिये । इस दृष्टि से विद्यालयों की इकाइयाँ छोटी होनी चाहिये और शिशु से उच्च शिक्षा तक की एक ही इकाई बननी चाहिये । आज तो सारा तन्त्र बिखरा हुआ और विशूंखल है इसलिये किसी की कोई जिम्मेदारी ही नहीं बनती है । जिस प्रकार बालकों का एक ही घर होता है उस प्रकार विद्यार्थियों का एक ही विद्यालय होना चाहिये जहाँ सारी शिक्षा एक ही संकुल में, एक ही व्यवस्था में, एक ही शिक्षक समूह के साथ प्राप्त हो । प्राथमिक शिक्षा का नियमन तन्त्र अलग, माध्यमिक बोर्ड अलग, विश्वविद्यालय का नियमन अलग होने से यह व्यवस्था ठीक से नहीं हो पाती है। इस दृष्टि से शिक्षा की पुरररचना करना अत्यन्त आवश्यक है ।
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7. समाज की आवश्यकतायें आर्थिक भी होती हैं और सांस्कृतिक भी । विद्यालयों को मुख्य रूप से सांस्कृतिक दृष्टि से विचार करना चाहिये, साथ ही आर्थिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु शासन और अर्थक्षेत्र के साथ भी समायोजन करना चाहिये | दोनों क्षेत्र किस प्रकार सहयोगी बन सकते हैं इसका प्रमुख विचार विद्यालयों को करना है। विद्यालयों का दायित्व केवल विषयों और विद्याशाखाओं की शिक्षा का विचार करने तक का नहीं है, विद्यार्थी, उसके परिवार, समाज, राष्ट्र सभी क्षेत्रों का विचार करना है । विद्यालयों की भूमिका, कार्यक्षेत्र और कार्य के स्वरूप पर नये सिरे से चिन्तन होने की आवश्यकता है ।
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विद्यार्थियों के शिक्षक बनना
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=== शिक्षक प्रबोधन ===
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चाहिये । विद्यार्थी का शिक्षक विद्यार्थी के कल्याण
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की कामना करता है, उनके गुणदोष जानता है,
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उनकी क्षमताओं को पहचानता है, उनकी पारिवारिक
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पृष्ठभूमि को जानता है और उनकी भविष्य की
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सम्भावनाओं का ठोस विचार करता है ।
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शिक्षक ने विद्यार्थियों को अपने भविष्य की कल्पना
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करना सिखाना चाहिये, कल्पनाओं को साकार कैसे
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किया जाता है इस पर विचार करना सिखाना चाहिये,
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अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं और स्वप्नों को
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वास्तविकता के निकष पर कसना सिखाना चाहिये,
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सामर्थ्य कैसे बढाया जाय यह भी सिखाना चाहिये ।
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विद्यार्थी के जीवनविकास के सन्दर्भ में उसके मातापिता
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के साथ भी आत्मीय सम्पर्क बनाना चाहिये । कोई भी
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योजना दोनों को मिलकर बनानी चाहिये ।
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शिक्षकों को विद्यार्थी के शिक्षक बनने के साथ साथ
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राष्ट्रीय शिक्षक भी बनना चाहिये । राष्ट्रीय शिक्षक राष्ट्र
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के सन्दर्भ में विचार करता है और अपने विद्यार्थी राष्ट्र
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के लिये किस प्रकार उपयोगी होंगे इसका चिन्तन करते
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हैं । व्यवहारजीवन में अधथर्जिन के लिये व्यवसाय का
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चयन कते समय जिस प्रकार विद्यार्थीकी रुचि, क्षमता,
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आवश्यकता और अनुकूलता का विचार करना होता है
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उसी प्रकार राष्ट्र की आवश्यकताओं का भी विचार
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करना होता है । यह बात शिक्षक ही विद्यार्थियों के
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हृदय और मस्तिष्क में प्रस्थापित करता है । व्यक्ति का
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आर्थिक विकास समाज के आर्थिक विकास के
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अविरोधी क्यों होना चाहिये और वह कैसे होता है
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इसकी समझ शिक्षक ही विद्यार्थियों को देता है।
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शिक्षक मातापिता से भी बढकर होता है क्योंकि वह
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विद्यार्थियों के अन्तःकरण को उदार बनाता है और
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बुद्धि को तेजस्वी और विशाल बनाता 2 |
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समाज समृद्ध और सुसंस्कृत कैसे बनता है इसकी दृष्टि
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विद्यार्थी को देना और उसमें विद्यार्थी कैसे योगदान दे
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सकता है इसका मार्गदर्शन भी शिक्षक ही विद्यार्थी को
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देता है ।
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६... प्राथमिक, माध्यमिक. और
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महाविद्यालयों को विद्यार्थियों और समाज को
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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व्यवस्था ठीक से नहीं हो पाती है। इस दृष्टि से
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शिक्षा की पुरररचना करना अत्यन्त आवश्यक है ।
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व्यावहारिक रूप में जोडना चाहिये । इस दृष्टि से. ७... समाज की आवश्यकतायें आर्थिक भी होती हैं और
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विद्यालयों की इकाइयाँ छोटी होनी चाहिये और सांस्कृतिक भी । विद्यालयों को मुख्य रूप से
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शिशु से उच्च शिक्षा तक की एक ही इकाई बननी सांस्कृतिक दृष्टि से विचार करना चाहिये, साथ ही
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चाहिये । आज तो सारा तन्त्र बिखरा हुआ और आर्थिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु शासन और
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विशूंखल है इसलिये किसी की कोई जिम्मेदारी ही अर्थक्षेत्र के साथ भी समायोजन करना चाहिये | दोनों
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नहीं बनती है । जिस प्रकार बालकों का एक ही क्षेत्र किस प्रकार सहयोगी बन सकते हैं इसका प्रमुख
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घर होता है उस प्रकार विद्यार्थियों का एक ही विचार विद्यालयों को करना है। विद्यालयों का
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विद्यालय होना चाहिये जहाँ सारी शिक्षा एक ही दायित्व केवल विषयों और विद्याशाखाओं की शिक्षा
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संकुल में, एक ही व्यवस्था में, एक ही शिक्षक का विचार करने तक का नहीं है, विद्यार्थी, उसके
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समूह के साथ प्राप्त हो । प्राथमिक शिक्षा का परिवार, समाज, राष्ट्र सभी क्षेत्रों का विचार करना है ।
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नियमन तन्त्र अलग, माध्यमिक बोर्ड अलग, विद्यालयों की भूमिका, कार्यक्षेत्र और कार्य के स्वरूप
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विश्वविद्यालय का नियमन अलग होने से यह पर नये सिरे से चिन्तन होने की आवश्यकता है ।
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शिक्षक प्रबोधन
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बेचारा शिक्षक !
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==== बेचारा शिक्षक ! ====
भारतीय शिक्षा शिक्षकाधीन होती है । जैसा शिक्षक
भारतीय शिक्षा शिक्षकाधीन होती है । जैसा शिक्षक