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अपनी संतान इसकी शिक्षाग्रहण करने के लायक है कि नहीं, पढ लेने के बाद उसे नौकरी मिलेगी कि नहीं, पैसा मिलेगा कि नहीं ऐसा प्रश्न भी उनके मन में नहीं उठता । वर्तमान बेरोजगारी की स्थिति का अनुभव करने के बाद भी नहीं उठता । उन्हें लगता है कि बेटा इन्जिनियर बनेगा ऐसी इच्छा है तो बस बन ही जायेगा ।
 
अपनी संतान इसकी शिक्षाग्रहण करने के लायक है कि नहीं, पढ लेने के बाद उसे नौकरी मिलेगी कि नहीं, पैसा मिलेगा कि नहीं ऐसा प्रश्न भी उनके मन में नहीं उठता । वर्तमान बेरोजगारी की स्थिति का अनुभव करने के बाद भी नहीं उठता । उन्हें लगता है कि बेटा इन्जिनियर बनेगा ऐसी इच्छा है तो बस बन ही जायेगा ।
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अच्छा पैसा कमाने के लिये उपाय क्या है ? बस एक
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अच्छा पैसा कमाने के लिये उपाय क्या है ? बस एक ही । अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में भेजना । अंग्रेजी माध्यम श्रेष्ठ बनने का, अच्छी नौकरी पाने का, विदेश जाने का, प्रतिष्ठित होने का निश्चित मार्ग है ऐसी समझ बन गई है इसलिये ऊँचा शुल्क देकर, आगेपीछे का विचार किये बिना ही अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में अपनी सन्तानों को भेजकर मातापिता निश्चित हो जाते हैं । अब इससे अधिक कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं ऐसी उनकी समझ बन जाती है ।
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ही अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में भेजना
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एक बार ढाई तीन वर्ष की आयु में शिक्षा की चक्की में पिसना शुरू हुआ कि अब किसी को आगे क्या होगा इसका विचार करने का होश नहीं है। विद्यालय, गृहकार्य, विभिन्न गतिविधियाँ, ट्यूशन, कोचिंग, परीक्षा, परीक्षा में प्राप्त होने वाले अंक आदि का चक्कर दसवीं की परीक्षा तक चलता है। तब तक किसी को कुछ होना है, किसी का कुछ होना है इसका विचार करने की आवश्यकता नहीं । बाद में डॉक्टर, इन्जिनीयर आदि करियर की बातचीत शुरू होती है । विद्यार्थी तय करते हैं और मातापिता उनके अनुकूल हो जाते हैं । मातापिता तय करते हैं और सन्तानो को उनके अनुकूल होना है । दोनों बातें चलती हैं । परन्तु एक का भी निश्चित आधार नहीं होता क्यों ऐसा करियर चुनना है इसका तर्वपूर्ण उत्तर न विद्यार्थी दे सकते हैं न मातापिता । बस परीक्षा में अच्छे अंक मिले हैं तो साहित्य, इतिहास, गणित, कला, विज्ञान आदि तो नहीं पढ सकते।  तेजस्वी विद्यार्थी मैनेजर बनेंगे, पाइलट बनेंगे, चार्टर्ड अकाउण्टण्ट बनेंगे वे शिक्षक क्यों बनेंगे, व्यापारी क्यों बनेंगे, कृषक क्यों बनेंगे ?
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अंग्रेजी माध्यम श्रेष्ठ बनने का, अच्छी नौकरी पाने
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अधिकांश विद्यार्थी कुछ करने को नहीं इसलिये बी.ए., बी.कोम., बी.एससी., आदि पढ़ते हैं । इस स्तर की भी अनेक विद्याशाखायें हैं । विश्वविद्यालय जैसे एक डिपार्टमण्टल स्टोर अथवा मॉल बन गया है जहाँ चाहे जो पदवी मिलती है, बस (मातापिता की) जेब में पैसे होने चाहिये । इस प्रकार पढाई पूर्ण होती है और बिना पतवार की नौका जैसा दूसरा दौर शुरू होता है जहाँ आजीविका ढूँढने का काम चलता है । पूर्वजीवन, पूर्वअपेक्षा के अनुसार कुछ भी नहीं होता । जैसे भी हो कहीं न कहीं ठहरकर विवाह जो जाता है और अब तक जो देश का भविष्य था वह वर्तमान बन जाता है ।
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का, विदेश जाने का, प्रतिष्ठित होने का निश्चित मार्ग है
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कोई पाँच प्रतिशत विद्यार्थी जो निश्चित करते हैं वह कर पाते हैं, हो पाते हैं । शेष को तो जो हो रहा है उसका स्वीकार करना होता है
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ऐसी समझ बन गई है इसलिये ऊँचा शुल्क
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6. यह तो एक पक्ष हुआ । इसमें केवल आर्थिक पक्ष है। जीवन की शिक्षा का तो कोई विचार ही नहीं है। विद्यार्थी गुणवान, ज्ञानवान, कर्तृत्ववान बनना चाहिये, उसके शरीर, मन, बुद्धि, सक्षम और समर्थ बनने चाहिये, वह परिवार, समाज और राष्ट्र की मूल्यवान सम्पत्ति बनना चाहिये इसकी चाह, इसकी योजना और व्यवस्था कहाँ है ? घर में ? नहीं, विद्यालय में ? नहीं, सरकार में ? नहीं । हाँ चाह अवश्य है, भाषण अवश्य होते हैं, गोष्ठियाँ भी होती है परन्तु इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। एक बार विद्यार्थी विद्यालय जाने लगा तो मातापिता को अब उसके लिये कुछ करना नहीं है । न इसके लिये समय है, न क्षमता है । न दृष्टि । विद्यालय में विषयों की चिन्ता होती है चरित्र की नहीं । सरकार नियम, कानून, नीति और प्रशासन में व्यस्त है । चरित्र और संस्कृति उसका विषय नहीं । तब जीवन, चरित्र संस्कार आदि की सुध लेने वाला तो कोई बचा ही नहीं । ऐसा मान लिया जाता है कि बिना कुछ किये ही विद्यार्थी चरित्रवान और दृष्टियुक्त बन जायेगा । अनुभव यह है कि ऐसा बनता नहीं ।
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देकर, आगेपीछे का विचार किये बिना ही अंग्रेजी
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इस कारण से अनिश्चित भावी अव्यवस्थित वर्तमान बन जाता है । ऐसे युवाओं का देश समर्थ कैसे बनेगा ? यह युवा पीढ़ी सम्पत्ति नहीं, जिम्मेदारी बन जाती है ।
 
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माध्यम के विद्यालयों में अपनी सन्तानों को भेजकर
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मातापिता निश्चित हो जाते हैं । अब इससे अधिक कुछ
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करने की आवश्यकता ही नहीं ऐसी उनकी समझ बन
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जाती है ।
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एक बार ढाई तीन वर्ष की आयु में शिक्षा की चक्की
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में पिसना शुरू हुआ कि अब किसी को आगे क्या
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होगा इसका विचार करने का होश नहीं है।
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विद्यालय, गृहकार्य, विभिन्न गतिविधियाँ, ट्यूशन,
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आदि का चक्कर दसवीं की परीक्षा तक चलता है।
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तब तक किसी को कुछ होना है, किसी का कुछ
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होना है इसका विचार करने की आवश्यकता नहीं ।
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बाद में डॉक्टर, इन्जिनीयर आदि करियर की बातचीत
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शुरू होती है । विद्यार्थी तय करते हैं और मातापिता
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उनके अनुकूल हो जाते हैं । मातापिता तय करते हैं
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ak Gat को उनके अनुकूल होना है । दोनों बातें
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चलती हैं । परन्तु एक का भी निश्चित आधार नहीं
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होता । क्यों ऐसा करियर चुनना है इसका तर्वपूर्ण
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उत्तर न विद्यार्थी दे सकते हैं न मातापिता । बस
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परीक्षा में अच्छे अंक मिले हैं तो साहित्य, इतिहास,
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गणित, कला, विज्ञान आदि तो नहीं पढ aad |
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तेजस्वी विद्यार्थी मैनेजर बनेंगे, पाइलट बनेंगे, चार्टर्ड
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अकाउण्टण्ट बनेंगे । वे शिक्षक क्यों बनेंगे, व्यापारी
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क्यों बनेंगे, कृषक क्यों बनेंगे ?
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अधिकांश विद्यार्थी कुछ करने को नहीं इसलिये
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बी.ए., बी.कोम., बी.एससी., आदि पढ़ते हैं । इस
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स्तर की भी अनेक विद्याशाखायें हैं ।
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विश्वविद्यालय जैसे एक डिपार्टमण्टल स्टोर अथवा
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मॉल बन गया है जहाँ चाहे जो पदवी मिलती है,
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बस (मातापिता की) जेब में पैसे होने चाहिये । इस
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प्रकार पढाई पूर्ण होती है और बिना पतवार की
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ढूँढने का काम चलता है । पूर्वजीवन, पूर्वअपेक्षा के
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अनुसार कुछ भी नहीं होता । जैसे भी हो कहीं न
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कहीं ठहरकर विवाह जो जाता है और अब तक जो
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देश का भविष्य था वह वर्तमान बन जाता है ।
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वह कर पाते हैं, हो पाते हैं । शेष को तो जो हो रहा
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है उसका स्वीकार करना होता है ।
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यह तो एक पक्ष हुआ । इसमें केवल आर्थिक पक्ष
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है। जीवन की शिक्षा का तो कोई विचार ही नहीं
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है। विद्यार्थी गुणवान, ज्ञानवान, कर्तृत्ववान बनना
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चाहिये, उसके शरीर, मन, बुद्धि, सक्षम और समर्थ
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बनने चाहिये, वह परिवार, समाज और राष्ट्र की
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मूल्यवान सम्पत्ति बनना चाहिये इसकी चाह, इसकी
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योजना और व्यवस्था कहाँ है ? घर में ? नहीं,
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विद्यालय में ? नहीं, सरकार में ? नहीं । हाँ चाह
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अवश्य है, भाषण अवश्य होते हैं, गोष्ठियाँ भी होती
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है परन्तु इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। एक बार
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विद्यार्थी विद्यालय जाने लगा तो मातापिता को अब
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उसके लिये कुछ करना नहीं है । न इसके लिये समय
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है, न क्षमता है । न दृष्टि । विद्यालय में विषयों की
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चिन्ता होती है चरित्र की नहीं । सरकार नियम,
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कानून, नीति और प्रशासन में व्यस्त है । चरित्र और
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संस्कृति उसका विषय नहीं । तब जीवन, चरित्र
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संस्कार आदि की सुध लेने वाला तो कोई बचा ही
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नहीं । ऐसा मान लिया जाता है कि बिना कुछ किये
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ही विद्यार्थी चरित्रवान और दृष्टियुक्त बन जायेगा ।
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अनुभव यह है कि ऐसा बनता नहीं ।
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इस कारण से अनिश्चित भावी अव्यवस्थित वर्तमान
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बन जाता है । ऐसे युवाओं का देश समर्थ कैसे बनेगा ?
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यह युवा पीढ़ी सम्पत्ति नहीं, जिम्मेदारी बन जाती है ।
      
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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माता-पिता को क्या करना चाहिए
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==== माता-पिता को क्या करना चाहिए ====
 
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1. सबसे पहला दायित्व मातापिता का है । अपनी सन्तान अधिकतम दस वर्ष की होते होते उसका चरित्र, उसकी क्षमतायें, रुचि, सम्भावनायें सब मातापिता की समझ में आ जानी चाहिये । उनकी अपनी क्षमता भी होनी अपेक्षित है, साथ ही वे अपने घर के बडे बुजुर्ग, अपने श्रद्धेय स्वजन, विदट्रज्जन, धर्माचार्य आदि का मार्गदर्शन भी प्राप्त कर सकते हैं । अपनी सन्तान के भविष्य का मार्ग निश्चित करना उनका अपनी सन्तान के प्रति महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है ।
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सबसे पहला दायित्व मातापिता का है । अपनी सन्तान
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अधिकतम दस वर्ष की होते होते उसका चरित्र, उसकी
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क्षमतायें, रुचि, सम्भावनायें सब मातापिता की समझ में
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आ जानी चाहिये । उनकी अपनी क्षमता भी होनी
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अपेक्षित है, साथ ही वे अपने घर के बडे बुजुर्ग, अपने
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श्रद्धेय स्वजन, विदट्रज्जन, धर्माचार्य आदि का मार्गदर्शन
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भी प्राप्त कर सकते हैं । अपनी सन्तान के भविष्य का
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मार्ग निश्चित करना उनका अपनी सन्तान के प्रति
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महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है ।
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अपने बालक का चरित्र निर्माण और चरित्रगठन करना
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भी मातापिता का ही काम है । इस दृष्टि से सक्षम
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बनना, व्यवहारदक्ष बनना, बाल मनोविज्ञान जानना भी
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मातापिता से अपेक्षित है ।
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अपनी सन्तान का करियर क्या बनेगा यह निश्चित करना
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भी मातापिता का काम है । बालक की शरीर, मन और
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बुद्धि की क्षमताओं, अपनी आर्थिक और सामाजिक
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स्थिति और आवश्यकताओं को समझकर भविष्य के
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बारे में निश्चितता बननी चाहिये । अनेक बार लोग
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कहते हैं कि विद्यार्थी की रुचि और स्वतंत्रता का भी
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सम्मान करना चाहिये । अपनी इच्छाओं और
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महत्त्वाकांक्षा ओं को उसके ऊपर लादना नहीं चाहिये |
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यह तो सत्य है । उसके भविष्य की निश्चिति करते
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समय उसकी इच्छा और रुचि की भी गणना करनी
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चाहिये, किंबहुना उसे अपनी रुचि और स्वतंत्रता को
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भी ठोस सन्दर्भों का परिप्रेक्ष्य देना सिखाना चाहिये ।
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उसके बाद भी वह भविष्य में यदि कुछ अलग
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करना चाहे और अपनी सक्षमता बनाये तो ऐसा करने
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की उसे छूट होनी चाहिये । तात्पर्य केवल इतना ही है
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कि भावी गढने का समय, करियर की तैयारी करने का
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समय लम्बा होता है । यह लम्बा समय अनिश्चितताओं
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वाला नहीं होना चाहिये ।
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मातापिता को ध्यान में रखना चाहिये कि उनकी सन्तान
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
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विद्यालय में तो कुछ वर्षों तक जायेगी परन्तु घर में तो
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जीवनभर रहेगी । घर में पीढियाँ बनती हैं, वंशपरम्परा
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बनती हैं । परम्परा से अनेक बातें एक पीढी से दूसरी
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पीढी को हस्तान्तरित होती हैं । घर में सम्पूर्ण जीवन
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बीतता है । जीवन में व्यवसाय और व्यवसाय से मिलने
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वाले पैसे के अलावा और बहुत कुछ होता है ।
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मातापिता को इस बात का विचार करना चाहिये कि
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उनके पास अपनी सन्तानों को देने के लिये क्या क्या
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है और यह सब देने की उन्होंने क्या व्यवस्था की है ।
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इसका पूर्ववर्ती विचार यह भी है कि उन्हें अपने
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मातापिता से क्या मिला है जो उन्हें अपनी सन्तानों को
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देना ही है । उन्हें इस बात का भी विचार करना है कि
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अपनी सन्तानों को समाज में गुणों और कौशलों के
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कारण सम्मान और प्रतिष्ठा मिले इसलिये कैसे गढना
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होगा । अपनी सन्तानों का सद्गुणविकास किस प्रकार
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होगा इसका विचार करना भी उनका ही काम है ।
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५... समाज को, देश को अच्छा नागरिक देना मातापिता का
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ही सौभाग्य है । उन्हें इस लायक मातापिता ही बना
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सकते हैं, विद्यालय या सरकार नहीं । सन्तान अपने
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मातापिता के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की, सम्पूर्ण कुल की
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अंशरूप होती है । घर से निकल कर वह जब समाज
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में जाती है तो घर की, मातापिता की, कुल की प्रतिनिधि
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बनकर ही जाती है । यह श्रेष्ठ हो यही मातापिता की
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2. अपने बालक का चरित्र निर्माण और चरित्रगठन करना भी मातापिता का ही काम है । इस दृष्टि से सक्षम बनना, व्यवहारदक्ष बनना, बाल मनोविज्ञान जानना भी मातापिता से अपेक्षित है ।
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समाज सेवा है, राष्ट्र को दिया हुआ दान है । इस दृष्टि
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3. अपनी सन्तान का करियर क्या बनेगा यह निश्चित करना भी मातापिता का काम है । बालक की शरीर, मन और बुद्धि की क्षमताओं, अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति और आवश्यकताओं को समझकर भविष्य के बारे में निश्चितता बननी चाहिये । अनेक बार लोग कहते हैं कि विद्यार्थी की रुचि और स्वतंत्रता का भी सम्मान करना चाहिये । अपनी इच्छाओं और महत्त्वाकांक्षा ओं को उसके ऊपर लादना नहीं चाहिये | यह तो सत्य है । उसके भविष्य की निश्चिति करते समय उसकी इच्छा और रुचि की भी गणना करनी चाहिये, किंबहुना उसे अपनी रुचि और स्वतंत्रता को भी ठोस सन्दर्भों का परिप्रेक्ष्य देना सिखाना चाहिये ।
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से मातापिता को अपनी सन्तानों का संगोपन करना
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उसके बाद भी वह भविष्य में यदि कुछ अलग करना चाहे और अपनी सक्षमता बनाये तो ऐसा करने की उसे छूट होनी चाहिये । तात्पर्य केवल इतना ही है कि भावी गढने का समय, करियर की तैयारी करने का समय लम्बा होता है । यह लम्बा समय अनिश्चितताओं वाला नहीं होना चाहिये ।
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चाहिये ।
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4. मातापिता को ध्यान में रखना चाहिये कि उनकी सन्तान विद्यालय में तो कुछ वर्षों तक जायेगी परन्तु घर में तो जीवनभर रहेगी । घर में पीढियाँ बनती हैं, वंशपरम्परा बनती हैं । परम्परा से अनेक बातें एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित होती हैं । घर में सम्पूर्ण जीवन बीतता है । जीवन में व्यवसाय और व्यवसाय से मिलने वाले पैसे के अलावा और बहुत कुछ होता है । मातापिता को इस बात का विचार करना चाहिये कि उनके पास अपनी सन्तानों को देने के लिये क्या क्या है और यह सब देने की उन्होंने क्या व्यवस्था की है । इसका पूर्ववर्ती विचार यह भी है कि उन्हें अपने मातापिता से क्या मिला है जो उन्हें अपनी सन्तानों को देना ही है । उन्हें इस बात का भी विचार करना है कि अपनी सन्तानों को समाज में गुणों और कौशलों के कारण सम्मान और प्रतिष्ठा मिले इसलिये कैसे गढना होगा । अपनी सन्तानों का सद्गुणविकास किस प्रकार होगा इसका विचार करना भी उनका ही काम है
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शिक्षकों का दायित्व
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5. समाज को, देश को अच्छा नागरिक देना मातापिता का ही सौभाग्य है । उन्हें इस लायक मातापिता ही बना सकते हैं, विद्यालय या सरकार नहीं । सन्तान अपने मातापिता के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की, सम्पूर्ण कुल की अंशरूप होती है । घर से निकल कर वह जब समाज में जाती है तो घर की, मातापिता की, कुल की प्रतिनिधि बनकर ही जाती है । यह श्रेष्ठ हो यही मातापिता की समाज सेवा है, राष्ट्र को दिया हुआ दान है । इस दृष्टि से मातापिता को अपनी सन्तानों का संगोपन करना चाहिये ।
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==== शिक्षकों का दायित्व ====
 
मातापिता के साथ साथ विद्यार्थियों का भविष्य
 
मातापिता के साथ साथ विद्यार्थियों का भविष्य
  
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