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== बुद्धि के अवरोध दूर करने के उपाय ==
 
== बुद्धि के अवरोध दूर करने के उपाय ==
अब बुद्धि के क्षेत्र में अवरोध दूर करने के उपाय ।
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अब बुद्धि के क्षेत्र में अवरोध दूर करने के उपाय पर चर्चा करते हैं।  सब से पहले छोटी आयु में कण्ठस्थीकरण की ओर ध्यान देना चाहिये । छोटी आयु में स्मृति तेज होती है, सक्रीय होती है और कण्ठस्थीकरण सहज लगने वाला कार्य होता है इसलिये बहुत सारी बातों का कण्ठस्थीकरण हो जाये ऐसा ही शिक्षाक्रम बनाना चाहिये। पहाड़ो का कण्ठस्थीकरण, सूत्र, नियम आदि का कण्ठस्थीकरण, मन्त्रों का कण्ठस्थिकरण, भगवदू गीता के अध्यायों का, स्तोत्रों का कण्ठस्थिकरण आगे चल कर विषय समझने में और विषय का प्रतिपादन करने में बहुत ही सहायता करते हैं
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सब से पहले छोटी आयु में कण्ठस्थीकरण की ओर ध्यान
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पहाड़े केल्कुलेटर का काम करते हैं और स्तोत्र, मन्त्र, सूत्र आदि सब विज्ञान और गणित के क्षेत्र में तथा तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में बुद्धि से प्रतिपादन करने के क्षेत्र में नित्य उपस्थित ऐसे सन्दर्भों का काम करते हैं । इसलिये कण्ठस्थीकरण बहुत कर चाहिये । साथ ही सभी बातों का निरिक्षण करने का अभ्यास करना चाहिये । निरिक्षण करने से ध्यान भी एकाग्र होता है, मन भी एकाग्र होता है, रुचि भी बढ़ती है और समझ भी बढ़ती है । अनेक बातें अपने आप ध्यान में आती हैं । इसलिये निरीक्षण करना और परीक्षण करना यह नित्य अभ्यास के विषय बनने चाहिये । किशोर आयु में किसी भी सिद्धान्त का साधक बाधक विचारप्रवृत्ति का विकास करना चाहिये । किसी भी कृति के, किसी भी घटना के दोनों पक्ष क्या हैं इसका कार्य कारण भाव समझना बहुत आवश्यक है । छात्रों की विचार प्रक्रिया को प्रेरणा देकर उनका विकास करना यह अध्ययन का तरीका होता है । यदि ऐसा नहीं किया तो छात्र रटने पर उतारु हो जाते हैं और रटी हुई बातें समझ में नहीं आती । वे परीक्षा का प्रयोजन समाप्त होते ही भूल जाते हैं। ये व्यक्तित्व का अंग नहीं बनती । इसलिये विचार की प्रक्रिया को चलने देना बहुत आवश्यक है । साधक बाधक चर्चा करना बहुत आवश्यक है । कार्य कारण भाव समझना बहुत आवश्यक है । चिंतन करना बहुत आवश्यक है । अपने अभिप्राय बनाना इसका भी बहुत अभ्यास होना चाहिये । इसी से बुद्धि की स्वतंत्रता का विकास होता है । साथ में दायित्व बोध भी निर्मित होता है।
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देना चाहिये । छोटी आयु में स्मृति तेज होती है, सक्रीय
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किशोर अवस्था में समाज सेवा में प्रवृत्ति होना बहुत आवश्यक है । इस प्रकार समाज सेवा में प्रवृत्ति होने से अध्ययन को एक प्रयोजन प्राप्त होता है, सन्दर्भ प्राप्त होता है। किशोर और तरूण अवस्था में प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान ये सीखने के महत्त्वपूर्ण विषय बनते हैं । ध्यान केवल एकाग्रता के लिये नहीं परन्तु ध्यान अन्तर्मुख होने में भी बहुत सहायक बनता है । एकाग्रता से भी अन्तर्मुख होना अधिक आवश्यक है । अन्तर्मुख होने से बाहर के अध्ययन के साथ साथ अन्दर का और स्वयं का अध्ययन करने की प्रवृत्ति का भी विकास होता है । बाहर और अन्दर दोनों की ओर अध्ययन की दिशा बननी चाहिये । अन्दर का अध्ययन करने से एक प्रकार का विकास होता है । बाहर का अध्ययन करने से दूसरे प्रकार का विकास होता है । दोनों और सम्यक विकास होते होते यह ध्यान में आता है कि बाहर और अन्दर अलग नहीं है दोनों एक ही है । यह अनुभूति की शिक्षा है । पग पग पर अनुभूति की शिक्षा का प्रवर्तन करना, उसकी योजना करना, यह भी अध्ययन का विकास करने के लिये, अध्ययन की क्षमता का विकास करने के लिये बहुत आवश्यक है । यदि ऐसा नहीं हुआ तो अध्ययन यान्त्रिक बन जाता है । इस प्रकार अध्ययन के लिये यान्त्रिकता भी बहुत बड़ी बाधा है । यह तो छात्र के स्वयं के आन्तरिक अवरोध हैं जो छात्र के लिये विभिन्न प्रकार के उपायों की योजना करने से दूर होते हैं परन्तु अध्ययन के अवरोध बाहर भी होते हैं। कक्षा कक्ष का वातावरण, अध्ययन का समय, अध्ययन के विषय, अध्ययन के पाठ्यक्रम, अध्ययन की पद्धतियाँ, उपकरणों का उपयोग, परीक्षा की पद्धति, ये सारे के सारे अध्ययन के अवरोध ही हैं।
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होती है और कण्ठस्थीकरण सहज लगने वाला कार्य होता
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ये अध्यापक की ओर से अथवा पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें बनानेवाले की ओर से निर्माण होते हैं । परीक्षा पद्धति का निर्माण करने वाले भी रचना करनेवाले भी अध्ययन की प्रवृत्ति को कुंठित करने का काम करते हैं । इसलिये अध्ययन में छात्र के स्वयं के व्यक्तित्व के या छात्र के स्वयं के आंतरिक गुणों के अवरोध और दूसरे बाह्य परिस्थिति के अवरोध ऐसे दोनों प्रकार के अवरोध दूर करने से ही अध्ययन स्वाभाविक बनता है, सहज बनता है और तेजस्वी बनता है । हमें ध्यान रखना चाहिये कि छात्र अध्ययन के लिये ही जन्मा है। हर छात्र अध्ययन कर सकता है । जो कर सकता है वह उसे करने नहीं देना, उसके लिये अनुकूलता ही निर्माण नहीं करना यह बहुत बड़ा अपराध है, बहुत बड़ा दोष है । ऐसे दोष शिक्षा के क्षेत्र से दूर करना । कक्षा कक्ष के क्षेत्र से दूर करना । विद्यालय परिसर से दूर करना । घर से दूर करना । यह एक बहुत बड़ा विचारणीय क्षेत्र है। हम अध्ययन की प्रवृत्ति को बहुत सीमित कर देते हैं । उसको पुस्तकों के अन्दर कक्षा कक्ष के अंदर, पाठ्यक्रम के अंदर और परीक्षा के अंदर सीमित कर देते हैं । अध्ययन के व्यापक क्षेत्र को सीमित कर देना ठीक नहीं है । अध्ययन के जीवन्त क्षेत्र को कृत्रिम और यांत्रिक बना देना ये भी ठीक नहीं है । अध्ययन के क्षेत्र को अस्वाभाविक बना देना ये भी ठीक नहीं है। हम सब मिलकर यदि छात्र के अध्ययन के अवरोध दूर कर दें तो अध्ययन तेजस्वी बन जाता है और तेजस्वी अध्ययन से छात्र का जीवन तो अच्छा होता ही होता है, समाज को और राष्ट्र को भी उसका बहुत लाभ होता है । यह सब करना हमारे लिये असंभव नहीं है । कदाचित थोड़ा कठिन लग सकता है । परन्तु थोड़ा विचार करने पर कठिन भी नहीं है ऐसी प्रतीति होगी । इसलिये हमें इन अवरोधों पर विचार करना चाहिये ।
 
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है इसलिये बहुत सारी बातों का कण्ठस्थीकरण हो जाये
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ऐसा ही शिक्षाक्रम बनाना चाहिये। पहाड़ो का
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कण्ठस्थीकरण, सूत्र, नियम आदि का कण्ठस्थीकरण, मन्त्रों
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का कण्ठस्थिकरण, भगवदू गीता के अध्यायों का, स्तोत्रों
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का कण्ठस्थिकरण आगे चल कर विषय समझने में और
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विषय का प्रतिपादन करने में बहुत ही सहायता करते हैं ।
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पहाड़े केल्कुलेटर का काम करते हैं और स्तोत्र, मन्त्र, सूत्र
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आदि सब विज्ञान और गणित के क्षेत्र में तथा तत्त्वज्ञान के
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क्षेत्र में बुद्धि से प्रतिपादन करने के क्षेत्र में नित्य उपस्थित
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ऐसे सन्दर्भों का काम करते हैं । इसलिये कण्ठस्थीकरण
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बहुत करना चाहिये । साथ ही सभी बातों का निरिक्षण
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करने का अभ्यास करना चाहिये । निरिक्षण करने से ध्यान
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भी एकाग्र होता है, मन भी एकाग्र होता है, रुचि भी बढ़ती
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है और समझ भी बढ़ती है । अनेक बातें अपने आप ध्यान
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में आती हैं । इसलिये निरीक्षण करना और परीक्षण करना
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यह नित्य अभ्यास के विषय बनने चाहिये । किशोर आयु
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में किसी भी सिद्धान्त का साधक बाधक विचासप्रवृत्ति का
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विकास करना चाहिये । किसी भी कृति के, किसी भी
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घटना के दोनों पक्ष क्या हैं इसका कार्य कारण भाव
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समझना बहुत आवश्यक है । छात्रों की विचार प्रक्रिया को
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प्रेरणा देकर उनका विकास करना यह अध्ययन का तरीका
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होता है । यदि ऐसा नहीं किया तो छात्र रटने पर उतारु हो
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जाते हैं और रटी हुई बातें समझ में नहीं आती । वे परीक्षा
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हैं। ये व्यक्तित्व का अंग नहीं बनती । इसलिये विचार की
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प्रक्रिया को चलने देना बहुत आवश्यक है । साधक बाधक
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चर्चा करना बहुत आवश्यक है । कार्य कारण भाव समझना
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बहुत आवश्यक है । चिंतन करना बहुत आवश्यक है ।
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अपने अभिप्राय बनाना इसका भी बहुत अभ्यास होना
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चाहिये । इसी से बुद्धि की स्वतंत्रता का विकास होता है ।
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साथ में दायित्व बोध भी निर्मित होता है । किशोर अवस्था
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में समाज सेवा में प्रवृत्ति होना बहुत आवश्यक है । इस
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प्रकार समाज सेवा में प्रवृत्ति होने से अध्ययन को एक
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प्रयोजन प्राप्त होता है, सन्दर्भ प्राप्त होता है । किशोर और
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तरूण अवस्था में प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान
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ये सीखने के महत्त्वपूर्ण विषय बनते हैं । ध्यान केवल
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एकाग्रता के लिये नहीं परन्तु ध्यान अन्तर्मुख होने में भी
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बहुत सहायक बनता है । एकाग्रता से भी अन्तर्मुख होना
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अधिक आवश्यक है । अन्तर्मुख होने से बाहर के अध्ययन
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के साथ साथ अन्दर का और स्वयं का अध्ययन करने की
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प्रवृत्ति का भी विकास होता है । बाहर और अन्दर दोनों
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की ओर अध्ययन की दिशा बननी चाहिये । अन्दर का
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अध्ययन करने से एक प्रकार का विकास होता है । बाहर
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का अध्ययन करने से दूसरे प्रकार का विकास होता है ।
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दोनों और सम्यक विकास होते होते यह ध्यान में आता है
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कि बाहर और अन्दर अलग नहीं है दोनों एक ही है । यह
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अनुभूति की शिक्षा है । पग पग पर अनुभूति की शिक्षा का
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प्रवर्तन करना, उसकी योजना करना,. यह भी अध्ययन का
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विकास करने के लिये, अध्ययन की क्षमता का विकास
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करने के लिये बहुत आवश्यक है । यदि ऐसा नहीं हुआ तो
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अध्ययन यान्त्रिक बन जाता है । इस प्रकार अध्ययन के
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लिये यान्त्रिकता भी बहुत बड़ी बाधा है । यह तो छात्र के
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स्वयं के आन्तरिक अवरोध हैं जो छात्र के लिये विभिन्न
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प्रकार के उपायों की योजना करने से दूर होते हैं परन्तु
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अध्ययन के अवरोध बाहर भी होते हैं। कक्षा कक्ष का
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वातावरण, अध्ययन का समय, अध्ययन के विषय,
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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अध्ययन के पाठ्यक्रम, अध्ययन की पद्धतियाँ, उपकरणों
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का उपयोग, परीक्षा की पद्धति, ये सारे के सारे अध्ययन
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के अवरोध ही हैं । ये अध्यापक की ओर से अथवा
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पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें बनानेवाले की ओर से निर्माण
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होते हैं । परीक्षा पद्धति का निर्माण करने वाले भी रचना
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करनेवाले भी अध्ययन की प्रवृत्ति को कुंठित करने का
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काम करते हैं । इसलिये अध्ययन में छात्र के स्वयं के
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व्यक्तित्व के या छात्र के स्वयं के आंतरिक गुणों के
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अवरोध और दूसरे बाह्य परिस्थिति के अवरोध ऐसे दोनों
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प्रकार के अवरोध दूर करने से ही अध्ययन स्वाभाविक
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बनता है, सहज बनता है और तेजस्वी बनता है । हमें
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ध्यान रखना चाहिये कि छात्र अध्ययन के लिये ही जन्मा
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है। हर छात्र अध्ययन कर सकता है । जो कर सकता है
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वह उसे करने नहीं देना, उसके लिये अनुकूलता ही निर्माण
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नहीं करना यह बहुत बड़ा अपराध है, बहुत बड़ा दोष है ।
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ऐसे दोष शिक्षा के क्षेत्र से दूर करना । कक्षा कक्ष के क्षेत्र
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से दूर करना । विद्यालय परिसर से दूर करना । घर से दूर
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करना । यह एक बहुत बड़ा विचारणीय क्षेत्र है। हम
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अध्ययन की प्रवृत्ति को बहुत सीमित कर देते हैं । उसको
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पुस्तकों के अन्दर कक्षा कक्ष के अंदर, पाठ्यक्रम के अंदर
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और परीक्षा के अंदर सीमित कर देते हैं । अध्ययन के
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व्यापक क्षेत्र को सीमित कर देना ठीक नहीं है । अध्ययन
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के जीवन्त क्षेत्र को कृत्रिम और यांत्रिक बना देना ये भी
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ठीक नहीं है । अध्ययन के क्षेत्र को अस्वाभाविक बना देना
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ये भी ठीक नहीं है। हम सब मिलकर यदि छात्र के
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अध्ययन के अवरोध दूर कर दें तो अध्ययन तेजस्वी बन
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जाता है और तेजस्वी अध्ययन से छात्र का जीवन तो
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अच्छा होता ही होता है, समाज को और राष्ट्र को भी
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उसका बहुत लाभ होता है । यह सब करना हमारे लिये
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असंभव नहीं है । कदाचित थोड़ा कठिन लग सकता है ।
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परन्तु थोड़ा विचार करने पर कठिन भी नहीं है ऐसी प्रतीति
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होगी । इसलिये हमें इन अवरोधों पर विचार करना
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चाहिये ।
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पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
   
==References==
 
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<references />
 
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